20 दिसंबर, 2018

अति का विश्लेषण ज़रूरी है




जब मेरे वजूद में
वसुधैवकुटुम्बकम की भावना थी
सबके लिए अपनी थाली से
बराबर बराबर कौर निकालती थी
एक तिनके से सत्य को भी
खुलकर बताती थी,
सब मौन थे !
उनके मेरे मध्य
खाई जैसा फर्क है ...
यह उन्होंने आँखों से समझाया ।
मैं मूर्ख,
समझते हुए भी
बराबर बराबर कौर निकालती रही,
नारायण स्तब्ध !!
उन्होंने मेरे आगे से
मेरी थाली खींच ली,
दिल-दिमाग में,
सम्पूर्ण रक्त कोशिकाओं में
उन्होंने तांडव किया,
मेरी बेमानी सहजता के
कई मंच तोड़ दिए
...
पाँव स्थिर करने में
वक़्त लगा,
धरती का मजबूत कोना
स्वयं नारायण ही रहे,
लेकिन मौन, बंजर सा रूप लिए ।
साथ तो हम पहले भी थे
अब ज्ञात है ।
संसार अर्थात नारायण
नारायण अर्थात मोक्ष ...
मोक्ष,
प्रेमहीन नहीं
मोह से मुक्त
रोटी के उतने ही टुकड़े करो,
जितने भूखे हैं,
जो तृप्त हैं,
और और की रट में हैं
उनको कौर बढ़ाना
अन्न का अपमान है
जो अपने अपमान से ऊपर है ।
कोशिश
और अति में अंतर होता है
और वही तूफ़ान लाता है
तूफ़ान को दोष देने से पूर्व
अति का विश्लेषण ज़रूरी है ।

11 दिसंबर, 2018

मेरी उपस्थिति तुम्हारा सम्बल बने




डॉक्टर के आले की तरह
मैं तुम्हारी धड़कनें टटोलती हूँ
बीपी मशीन की तरह
रक्तचाप देखती हूँ ...
मैं निर्विकार किसी क्षण नहीं होती,
किसी शून्य में आँखें टिकाकर,
उन ठोकरों को घूरती हूँ,
जिन्होंने तुम्हें ठेस पहुँचाई !
नहीं,नहीं
मैं उनको कोई शाप नहीं देती,
इसलिए नहीं
कि मैं दे नहीं सकती ...
एक माँ कुछ भी कर सकती है,
लेकिन,
मैं इन कमज़ोर क्षणों से
स्वयं को मुक्त करती हूँ
ठोकरों की शुक्रगुज़ार होती हूँ,
जिन्होंने तुम्हें दर्द दिया,
रुलाया,
लेकिन एक सबक दिया ।
माँ अ से अनार सिखला सकती है,
चलना सिखला सकती है,
किसी ग़लती पे कान उमेठ सकती है,
रात भर तुम्हारे लिए करवटें ले सकती है,
सपनों में भी दुआ कर सकती है,
पर मन के आगे,
जीवन के आगे,
अपने अनुभव ही श्रेष्ठ होते हैं ।
संवेदनाओं से इतर,
चोट अपनी होती है,
महसूस करने
और सहने में फ़र्क होता है
और यही फ़र्क
कभी मौन देता है,
कभी बचपन की अहमियत बताता है,
कभी सूक्ष्म रहस्यों के जंग लगे दरवाजों को
खोल देता है,
...
हाँ मैं माँ,
उन रहस्यों की धुंध में
तुम्हारे साथ होती हूँ,
बचपन की कहानियाँ सुनाती हूँ,
डबडबाई आंखों से,
हर्षातिरेक की स्थिति में
हरि का नाम लेती हूँ
ताकि 'हरि' पर तुम्हारा विश्वास रहे
और कुछ हद तक
मैं तुम्हारे अनुभवों की रास थाम सकूँ,
मरहम बनकर तुम्हारे दर्द को कम कर सकूँ,
और मेरी उपस्थिति तुम्हारा सम्बल बने ।

08 दिसंबर, 2018

कुछ ख्वाबों का अधूरा रह जाना ही अच्छा होता है




कई बार कुछ ख्वाब
प्रत्यक्षतः
रह जाते हैं अधूरे !
लेकिन ख्वाबों के उपजाऊ बीजों को सिंचना
मेरे रोज का उपक्रम है ।
हर दिन,
मिट्टी को हल्का और नम करती हूँ
बीज रखती हूँ,
और अंकुरित होती हूँ मैं ...
पौधा,
फिर वृक्ष,
उसकी शाखें
जाने कौन कौन सी चिड़िया
मेरे रोम रोम में चहचहा उठती है ।
कलरव मुझमें प्राण संचार करते हैं,
फिर से मिट्टी को हल्का
और नम करने के लिए ।
कुछ ख्वाबों का अधूरा रह जाना ही अच्छा होता है,
ताकि उनकी पूर्णता की पुनरावृत्ति
इस तरह हो,
और जीवंतता बनी रहे ।



06 दिसंबर, 2018

आमीन


कभी दर्द
कभी खुशी
कभी प्यार
कभी ख्वाब
मैं लिख लिया करती थी,
टूटे फूटे शब्द ही सही,
लगता था,
जी लिया दिन ।
एक दिन कुछ धुआँ सा दिखा,
और हवा के साथ पतंग की तरह उड़ते
कागज़ के कुछ टुकड़े
...जंल रहे थे मेरे एहसास,
जाने किस दिशा में उड़ रहे थे,
न मैं आग बुझा सकी,
न पकड़ पाई उन टुकड़ों को
खड़ी रही अवाक !
...
क्या सिर्फ अवाक ?
नहीं,
मेरी अवाक स्थिति ले रही थी संकल्प
किसी मन्त्र की तरह गूंज रहे थे ये वाक्य
"अपराध को सहते जानेवाला भी
अपराधी ही होता है ।
जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता,
उसकी रक्षा ईश्वर भी कब तक करेंगे ।"
और मेरे सामने मेरा "मैं" बोल पड़ा,
बस ...अब बस ।
दर्द,खुशी,ख्वाब,प्यार
सब मेरे गले लग गए,
और कहा,
अब लिखो,
तब तक लिखो,
जब तक अग्नि तुम्हारे राख हुए शब्दों का रूप न ले ले,
जब तक हवाएं शब्द शब्द न बहने लगे,
जब तक दिशाएं प्रतिध्वनित हो
तुम तक न लौटें
और मैंने कहा,
आमीन ।

04 दिसंबर, 2018

जा तेरे शब्दकोश बड़े हों




कभी कभी मन करता है,
इसके उसके सबके शब्द चुरा लूँ
और अपनी भावनाओं के बालों को सुलझा
उन्हें क्लिप बना टांक दूँ !
कई बार धूल की तरह
उड़ती नज़र आती हैं भावनाएं,
जब तक समझूँ
आंखों में जाकर बेचैन कर देती हैं ।
कितनी सारी कोशिशें होती हैं
उन धूलकणों को हटाने की
लेकिन वे आँखों की गहरी नदी में
बना लेती हैं अपनी जगह
किसी और दिन बह निकलने के लिए
...
उस दिन के लिए मेरे पास शब्द होने चाहिए न
ताकि मैं उन कणों की गाथा लिख सकूँ !
कभी चुरा लूँ,
तो क्षमा कर देना
धूलकणों सी उड़ती मेरी स्थिति को
दे देना आशीष
कि जा तेरे शब्दकोश बड़े हों ...

23 नवंबर, 2018

पुरुष/स्त्री



पुरुष यानी घर,
ठीक उसी तरह-
जैसे एक स्त्री आँगन ।
ऐसा नहीं कि स्त्री ने बाह्य संघर्ष नहीं किया,
पति की सुरक्षा नहीं की,
परन्तु,
पुरुष शरीर से शक्तिशाली था,
मन की कमजोरियों को,
उसने आंखों से बहने नहीं दिया,
तार तार होकर भी,
वह बना रहा ढाल,
ताकि स्त्री बनी रहे अन्नपूर्णा ।
पुरुष ने मिट्टी का दीया बनाया,
कि स्त्री भर सके उसमें रोशनी ,
अंधेरे से लड़ सके ...!
किसी भी बात की अति,
व्यक्ति को अत्याचारी
या निरीह बनाती है,
और वही होने लगा ।
पुरुष आक्रामक हो उठा,
स्त्री असहाय,
जबकि दोनों के भीतर रही जीवनदायिनी शक्ति,
दोनों थे पूरक,
लेकिन दोनों स्वयंसिद्धा बन गए,
एक दूसरे को नकार दिया,
भविष्य का पुरुष,
भविष्य की स्त्री ,
दोनों उग्र हो उठे,
परिवार,समाज से अलग
उनका एकल वर्चस्व हो,
इस कल्पनातीत इच्छा के आगे,
उनकी अद्भुत क्षमताएँ
क्षीण होने लगीं ।
प्रेम दोनों के आगे 
फूट फूटकर रो उठा,
घर का कोना कोना सिहरकर पूछने लगा,
कहाँ गया वह पुरुष
और वह स्त्री,
जिनसे मेरा वजूद था,
बचपन की मासूमियत थी,
बिना किसी तर्क के
पर्व-त्योहार थे, 
मेजबान और मेहमान थे ...
अब तो एक ही सवाल है,
इतना सन्नाटा क्यों है भाई,
या फिर है खीझ,
"ये कौन शोर कर रहा है" 
!!!

18 नवंबर, 2018

मन न भए दस बीस

 शरतचन्द्र का लिखा "देवदास" मेरी पहली किताब थी, जिसे मैंने डूबकर पढ़ा, और मेरा पूरा वजूद पारो' बन गया, कल्पनालोक की सीढियां उतरती पानी भरती, दौड़ती एक पुकार के साथ...देवदास$$$$ ।
फिर मेरी ज़िंदगी में आई शिवानी की "कृष्णकली" और मेरा एकांत शोख़ी से प्रवीर से बातें करने लगा ... "सुनो, यह तुम्हारी कुन्नी की साड़ी नहीं है"...
कृष्णकली की गली से निकली तो सामने खड़ा था "न हन्यते" का मिर्चा ...और अमृता बनकर मैं उससे मिलने गई । काश, मिर्चा देखता, लेकिन उससे क्या, अमृता की आहट से उसने वर्षों बाद भी उसे देख लिया ।
उम्र के साथ कहानियों का जो पड़ाव मिला हो, पात्रों में कहीं न कहीं समानता थी, शायद इसे ही कहते हैं पुनरावृति का आकर्षण, भविष्य का अद्भुत हस्ताक्षर ।
शिवाजी सामन्त की पुस्तक "मृत्युंजय" जब हाथ में आई तो कर्ण मेरी नसों में पुनः प्रवाहित होने लगा, दिनकर की "रश्मिरथी",लोगों की ज़ुबानी कहानी, सीरियल, इन सबसे एक बीजारोपण तो हो ही चुका था ।
इनदिनों, मैं एक तरफ वृंदावन में राधेकृष्ण सी चित्रित हो गई हूँ तो दूसरी तरफ कर्णसंगिनी बन कर्ण के अपमान, धैर्य की पराकाष्ठा देख रही हूँ । रसखान की पंक्तियों को गुनते हुए लगता है,"आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नन्द की गाय चराय बिसारो"
सूरदास की कलम में उतरकर गोपिकाओं का हृदय बांचती हूँ -
"ऊधौ मन न भए दस बीस। एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौ देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस। ‘सूर’ हमारै नंदनँदन बिनु, और नाहिं जगदीस।।"

 कृष्ण का प्रयोजन कृष्ण ही जानें ।




10 नवंबर, 2018

स्मृति कह लो या आत्मा



वह नहीं है,
तो फिर,
जब किसी पदचाप को सुनके
किसी के गुजरने का एहसास होता है,
उसे क्या कहेंगे ?
आत्मा !
जिसे भय से,
हम भूत मान लेते हैं ।
दरअसल यह भूत,
अतीत है !
पर, हम डरने लगे,
डराने लगे,
तर्पण अर्पण,
झाड़फूंक करवाने लगे ...
यदि तर्पण अर्पण हो ही जाता है,
तो आत्मा कहाँ जाती है ?
किसी दूसरे शरीर में रूप पा लेती है,
फिर दिखाई क्यूँ देती है ?
और यदि नहीं पाया दूसरा शरीर,
तब तो तर्पण अर्पण अर्थहीन हो गया !
अगर आत्मा हमारे बीच ही रहना चाहती है,
तो रहने देते हैं न ।
क्यूँ स्मृतियों के गले लग
हम रोते भी हैं,
ढेरों कहानियाँ सुनाते हैं,
"काश,वह होता/होती" जैसी बातें करते हैं,
और उसे दूर भी करना चाहते हैं ।
आत्मा अमर है,
तभी तो,
राम,कृष्ण,रावण,कर्ण...
कुंती,सीता,द्रौपदी,गांधारी...
ये सब हमारे बीच आज भी हैं ।
ये हमारा व्यक्तिगत साक्षात्कार है उनसे,
जो हम अपने नज़रिए से,
उनकी व्याख्या करते हैं ।
इसी तरह पूर्वज हैं,
नहीं होते तो पितृ पक्ष का कोई अर्थ नहीं होता,
नदी,समंदर में खंडित दिखाई देते देवी देवता,
पुनः उपस्थित नहीं होते,
आशीषों से नहीं नहलाते ।
वे हैं -
अब इन सबको स्मृति कह लो
या आत्मा ।।।

30 अक्तूबर, 2018

समय हर बार कहता है




जब कोई हमें neglect करता है तो हम अपने अपमान में सोचते हैं, हम हार   गए ।
वक़्त लगता है इस समझ के सुकून को पाने में कि हम हारे नहीं, हम बच गए असली जीत के लिए । और रही बात अपमान की, तो यह अपमान सही मायनों में उनका होता है, जो ग़लत करने से रोकते हैं, जो बेइन्तहां प्यार करते हैं ।
अम्मा (स्व सरस्वती प्रसाद) ने इसे सहज भाव से समझने के लिए "मन का रथ" ही लिख दिया है -

"मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
आंधी से तूफाँ से हाथ मिलाना होगा
अंगारों पे चलके मुझे दिखाना होगा
लोग तभी जानेंगे हस्ती क्या होती है
अंगूरी प्याले की मस्ती क्या होती है
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वह केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं.."

इस रथ के घोड़े अपने नशे में होते हैं, तो नशा उतरते असलियत सामने होती है ।
कोई भी व्यक्ति पूरी तरह सही नहीं होता है, इसलिए उसको समझाने से पहले समझना भी होता है । सच भयानक लगता है सुनने में, लेकिन सच कह देना ज़रूरी भी होता है । हाँ इकतरफा कभी नहीं ।
     रथ के पहिये जब अलग हो जाते हैं,और जहाँ से यह बात आती है कि सब मिलजुल अब साथ ही रहना, वहाँ से, बुद्धि-विवेक को अनदेखा करना ख़ुद से ख़ुद का अपमान है । फिर सामनेवाला दोषी नहीं होता, क्योंकि उसने अपने सत्य को उजागर कर दिया था ।
समय गवाह है, जब जब हमने देखे हुए,भोगे  गए सत्य को अनदेखा किया है, वर्तमान शूल बनकर चुभता है । रोओ, लेकिन इसलिए रोओ कि ईश्वर ने तुम्हें चेतावनी दी, बड़ों ने समझाया ... और तुमने सुनकर भी अनसुना किया ।
"मेरी ख़ुशी, मेरी इच्छा" ... यह सब क्षणिक उन्माद है ।
उन्माद को जीना चाहते हो तो जियो, और मजबूत बनो -क्योंकि उन्मादित लहरें दिशाहीन होती हैं ।
कभी मत कहो कि हमें पता नहीं चला" एक बार ऐसा हो सकता है, बार बार नहीं । समय हर बार कहता है, "रे मूरख, अब तू पछतायेगा,टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा" !
सार यही है, कि ईश्वर ने जो तुमको दिया है, उसे गंवाओ मत, और जो तुम्हारे लिए नहीं, उसके पीछे भागो मत । भागना है तो उसके जैसा बनने की क्षमता लाओ, एक ही मुखौटा सही - अपने लिए भी लाओ ।

26 अक्तूबर, 2018

इंतज़ार




वो जो सड़कों,शहरों,दो देशों की दूरियाँ है,
वह तुम्हारे लिए,मेरे आगे हैं
तो निःसंदेह, मेरे लिए तुम्हारे आगे भी हैं ।
बेचैनी बराबर भले न हो,
तुम समझदार हो,
मैं नासमझ ...
पर,
होंगी न !
कुछ बातें कह सुनाने को,
मेरे अंदर घुमड़ती हैं,
तो कुछ तो तुम्हारे भीतर भी सर उठाती होंगी ।
तुम्हें छूकर,
मेरे अंदर संगीत बजता है,
एक जलतरंग की चाह में,
तुम भी मेरे गले लग जाना चाहते होगे ।
रिश्तों के आगे,
उम्र की कैसी बाधा !
समय,लोग,संकोच के आगे रुक जाने से,
न समय समझेगा,
न लोग,
ना ही संकोच ...
सड़क,शहर,देश की दूरियां,
ज्यों ज्यों बढ़ेंगी,
बेचैनियां सर पटकेंगी,
और अगली बार तक
क्या पता मैं रहूँ ना रहूँ,
जिसके गले लग,
तुम अपने मन के धागे बांध सको !
यूँ यह यकीन रखना,
हर दूरी तय करके,
मैं तुम्हें सुनती हूँ,
सुनती रहूँगी,
और करूँगी इंतज़ार
- बिना कौमा,पूर्णविराम के,
तुम अपनी खामोशियाँ सुना जाओ ।

21 अक्तूबर, 2018

मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ




यज्ञ हो,
महायज्ञ हो ...
मौन हो, शोर हो,
खुशी हो,डूबा हुआ मन हो !
चलायमान मन ...
जाने कितनी अतीत की गलियों से घूम आता है ।
बचपन, रिश्ते,पुकार,शरारतें,हादसे,सपने, ख्याली इत्मीनान ...
सब ठहर से गए हैं !
पहले इनकी याद में,
बोलती थी,
तो बोलती चली जाती थी !
तब भी यह एहसास था
कि सामनेवाला सुनना नहीं चाहता,
उसे कोई दिलचस्पी नहीं है,
हो भी क्यूँ !!!
लेकिन मैं, जीती जागती टेपरिकॉर्डर -
बजना शुरू करती थी,
तो बस बजती ही जाती थी ।
देख लेती थी अपने भावों को,
सामनेवाले के चेहरे पर,
और एक सुकून से भर जाती थी,
कि चलो दर्द का रिश्ता बना लिया,
माँ कहती थी, दर्द के रिश्ते से बड़ा,
कोई रिश्ता नहीं !
ख़ुद नासमझ सी थी,
मुझे भी बना दिया ।
यूँ यह नासमझी,
बातों का सिरा थी,
लगता था - कह सुनाने को,
रो लेने को,
कुछ" है ... भ्रम ही सही ।
चहल पहल बनी रहती अपने व्यवहार से,
क्योंकि सामनेवाला सिर्फ़ द्रष्टा और श्रोता होता !
ईश्वर जाने,
कुछ सुनता भी था
या मन ही मन भुनभुनाता था,
मेरे गले पड़ जाने पर !
सच भी है,
"कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त"
और दूसरी ओर
दूसरों की ख़ुशी बर्दाश्त किसे होती है !
..
लेकिन, भिक्षाटन में मुझे दर्द मिला,
और उसे सहने की ताकत,
तो जिससे प्यार जैसा कुछ महसूस होता,
देना चाहती थी एक मुट्ठी,
पर झटक दिया द्रष्टा,श्रोता ने !
"आपकी बात और है,हम क्यूँ करेंगे भिक्षाटन!"
अचंभित, आहत होकर सोचती रही,
हमें कौन सी भिक्षा चाहिए थी
जो भी था, समय का हिसाब किताब था ।
ख़ैर,
सन्नाटा सांयें सांयें करे,
या किसी उम्मीद की हवा चले,
मैं उस घर की सारी खिड़कियाँ खोल देती हूँ,
जिसके बग़ैर मुझे रहने की आदत नहीं ।
बुहारती हूँ,
धूलकणों को साफ़ करती हूँ,
खिलौने वाले कमरे में प्राणप्रतिष्ठित खिलौनों से
बातें करती हूँ,
सबकी चुप्पी,
बेमानी व्यस्तता को,
अपनी सोच से सकारात्मक मान लेती हूँ,
एक दिन जब व्यस्तता नहीं रह जाएगी,
तब उस दिन इस घर,
इन कमरों की ज़रूरत तो होगी न,
जब -
गुनगुनाती,
सपने देखती,
मैं उन अपनों को दिखूंगी,
जिनके लिए,
मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ,
और ना ही कमरों में सीलन हुई !
सकारात्मक प्रतीक्षा बनी रहे,
अतीत,वर्तमान,भविष्य की गलियों में सपने बटोरती मैं
- यही प्रार्थना करती हूँ ।

15 अक्तूबर, 2018

एक कविता हूँ - अतुकांत !




मैं कोई कहानी नहीं,
एक कविता हूँ - अतुकांत !
पढ़ सकते हो इसे सिलसिले से
यदि तुमने कुछ काटने के दौरान
काट ली हो अपनी ऊँगली,
और उसका भय,
उसका दर्द याद रह गया हो !
तुम समझ सकोगे अर्थ,
यदि तुमने थोड़े बचे अन्न के दानों को देखकर सोचा हो,
कि लूँ या किसी और के लिए रहने दूँ ।
तुम्हारी ख़ास पसन्द की लाइब्रेरी में शामिल हो जाएगी,
यदि किसी भी चकाचौंध में तुम,
पैबन्द भरी जिंदगी के मायने न भूल पाओ तो !
यत्र तत्र बिखरे से शब्द,
तुम्हारी आँखों में पनाह पा लेंगे,
यदि आकस्मिक आँधियों में,
तुम्हारा बहुत कुछ सहेजा हुआ
बिखर गया हो,
गुम हो गया हो !
सर से पांव तक लिखी कविता,
जरा भी लम्बी नहीं,
बेतुकी भी उनके लिए है,
जो ज़िन्दगी के गहरे अंधे कुंए से नहीं गुजरे,
रास्तों को पुख़्ता नहीं किया,
बस पैसे की कोटपीस खेलते रहे ...

13 अक्तूबर, 2018

चीख भर जाए तो अपना आह्वान करो




#me too

दर्द कहने से दर्द दर्द नहीं रह जाता ।
उफ़नते आक्रोश,
बहते आँसुओं के आगे कोई हल नहीं ।
माँ कहती है, चुप रह जाओ,
झिड़क देती है,
उसके साथ नानी ने भी यही किया था,
क्योंकि, कहने के बाद -
जितने मुँह,
उतनी बातें होंगी !
भयानक हादसों के चश्मदीद,
क्या करते हैं ?
इतिहास गवाह है ...
बेहतर है,
आगे बढ़ो ।
गिद्ध अपनी आदत नहीं बदलेगा,
समाज ढिंढोरा पीटेगा,
नाते-रिश्तेदार कहानी सुनेंगे,
नौटंकी' कहकर,
उपहास करेंगे,
... इसलिए इन गन्दी नालियों को पार करो,
दुर्गंध उजबुजाहट भरे तो थूको,
आगे बढ़ो ...
एक चीख भर जाए भीतर,
तो अपने उस अस्तित्व का आह्वान करो,
जिसे माँ दुर्गा कहते हैं ,
अपनी पूजा ख़ुद करो ।

01 अक्तूबर, 2018

एक मौसम था




कट्टमकुट्टी का खेल,
बात बात पे लड़ने का आनन्द,
टिकोले चुनने का सुख,
लेमनचूस को,
जीभ के नीचे छुपाकर
ख़त्म हो जाने का नाटक,
कबड्डी में धीरे से सांस लेकर
नहीं मानने की तमतमाहट
... एक मौसम ही था,
जो ख़रगोश बनने की जुनून में,
ख़त्म ही हो गया ।
छत की खाट,
चार डंडे से लगी मसहरी,
सर्र से छूती हवा,
और गहरी नींद ...
जाने कहाँ रह गया वह सुकून ।
4 से 5
5 से 6 इंच,...
मोटे से मोटे होते गए गद्दे,
बीमारी का सबब बन गए ।
न रेस्तरां में वो बात है,
न कैफ़े में,
मिट्टी के चूल्हे पर बड़ी सी कड़ाही में
जो कचरी
और नमकीन सेव बनता था,
उसका स्वाद ही अनोखा था !
अपने घर के छोटे हरे मैदान में,
क्रिकेट का मैच,
सावधानी की हिदायतें,
बावजूद इसके,
खिड़की के शीशे का टूटना,
चेहरे पर बॉल का लगना,
फिर चीख-पुकार,
कोई तो लौटा लाओ ।
पेड़ से लटका रस्सी का झूला,
रईसी में लगा लकड़ी का पीढ़ा
ऊँची, और ऊँची पींगे,
हवा और बचपन की गलबहियां,
कुछ नहीं दिखाई देता,
धूल भरे पाँव को
साफ़ सुथरे घर में,
उधम मचाने की इजाज़त नहीं,
कीचड़ का तो सवाल ही नहीं ...
सबकुछ सबके हिसाब से
कीमती हो गया है,
साड़ी से पर्दे बनवाकर,
उसे छूकर,
 जो गुदगुदी लगती थी,
अब कहाँ !
मिट्टी के आँगन को,
गोबर से लीपकर,
जब पूजा की तैयारी चलती थी,
तो आस पड़ोस से आनेवालों से भी
अगर की खुशबू आती थी,
पूरा घर पवित्तर हो जाता था ...
कट्टमकुट्टी के खेल को,
हमने बड़ी संजीदगी से ले लिया,
छोटी छोटी खुशियों को,
व्यवहारिकता से काट दिया ।

15 सितंबर, 2018

हार-जीत सिर्फ एक दृष्टिकोण है




युद्ध कोई भी हो,उसका कोई परिणाम नहीं होता पार्थ, मान लेना है, वह जीत गया,वह हार गया । क्या तुम्हें अपनी जीत पर भरोसा था ? क्या तुम जीतकर भी जीत सके ? कर्ण की हार का दोषी दुनिया मुझे ठहराती है, फिर इस तरह मैं ही हारा !
दरअसल पार्थ, हार-जीत सिर्फ एक दृष्टिकोण है।  दुर्योधन को समय ने क्रूर और उदण्ड बना दिया था, इसलिए वह दंड का भागी बना, अन्यथा ग़ौर करो, तो वह भी  युद्ध में कुशल था, गांधारी उसे वज्र बनाकर अजेय बना ही देती, मृत्यु हिस्सा तो मेरे प्रयास से रह गया, ... क्योंकि, हार वह वहीं गया था, जब उसने द्रौपदी को अपनी जांघ पर बैठने को कहा, कर्ण की हार उसके मौन की वजह से तय हुई ।
हस्तिनापुर की उस सभा में, जब द्रौपदी का चीर खींचा गया, उस वक़्त हर देखनेवाले की  हार निश्चित हो गई थी ।
पार्थ, किसी भी हार-जीत में कई मासूम बेवजह हार जाते हैं, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होता कि वह कमज़ोर था ! देखो न, तुम्हारी जीत सुनिश्चित करने में मैं कई बार हारा । मेरी सबसे बड़ी हार थी, जब मैंने कर्ण के आगे प्रलोभन दिया , उसके दर्द में घी डाला ।
युद्ध नीति कहो या राजनीति, कभी सही नहीं होती । कुछ प्राप्त नहीं होता, कालांतर में रह जाती हैं आलोचनाएं और मेरे आगे प्रश्न ...
तुम ही कहो, मैं मथुरा नरेश हारा कि जीता ?

08 सितंबर, 2018

नई उड़ान




 कोई माने न माने..
परी थी मैं,
उड़ान ऐसी कि हर तरफ आग लग गई,
मेरे पंख जल गए,
लेकिन परी थी न,
 सो मन की उड़ान ज़िंदा रही ।
सपनों में पंख भी सही-सलामत रहे,
भीड़ में भी मेरी अदृश्य उड़ान  बनी रही ।
भागती ट्रेन से बाहर,मैं मेड़ों पर थिरकती,
खेत-खलिहानों में गुनगुनाती,
गाड़ी से बाहर भागती सड़कों पर ,
नृत्यांगना बन झूमती ।
पहली बार जब हवाई यात्रा की,
तो बादलों से कहा, आ गई न मिलने,
चलो, इक्कट,दुक्कट खेलें,
फिर सूरज के घर मुझे अपनी पालकी पर बिठाकर ले चलना,
चाँद की माँ के गले लगना है,
उनको चरखा चलाते देखना है,
ज़रा मैं भी तो जानूँ,
वो चाँद को क्या क्या सिखलाती हैं !
चाह में बड़ी ईमानदारी रही,
सपनों की बुनावट में जबरदस्त गर्माहट रही,
तभी,
 मुझे मेरे दोनों पंख बारी बारी मिल गए,
उन पंखों ने मुझे नई उड़ान दी,
आँखों पर सहेजकर रखे सपनों में रंग भरे,
मैं चाभी वाली गुड़िया की तरह थिरक उठी,
उम्र को भूलकर उड़ान भरने लगी,
मेरा परिवेश प्राकृतिक हो उठा
और मैं  .  .परी ।

02 सितंबर, 2018

प्रभु, मैं याचक हूँ, माँगती रहूँगी ...




बिना फूल,
अगरबत्ती,
चढ़ावे के,
मैं तुम्हें घर में ही
झाँक झाँक कर देखती रही,
टॉफी चाहिए हो,
कोई जादू देखना हो,
कह दिया तुमसे ...
कुछ लोगों ने कहा,
यह पूजा करने का ढंग है भला !
ढंग ?
कहा,
क्या लालची की तरह हर वक़्त माँगती हो,
दूसरे की लिखी पंक्तियों को हिकारत से सुनाया,
बिन माँगे मोती ..."
 प्रभु,
मैंने देखा उनको कीमती वस्त्र चढ़ाते,
...
कम उम्र थी मेरी
तब बड़े यत्न से मैंने भी कुछ कुछ लिया,
लेकिन बड़ा अटपटा लगा ।
तुम दोगे या मैं !!
तुम तो जानते ही हो
कि एक सुबह से सोने तक
मैं निरंतर तुमसे माँगती हूँ,
एक अलादीन का चिराग दे दो,
यह परिणाम सुंदर होना ही है,
लक्ष्मी स्वयं आ जायें मेरे पास,
बजरंगबली संजीवनी रख दें मेरी मुट्ठी में,
सारे भगवान मेरे सिरहाने रखे सपनों को पूरा कर दें  ...
कृष्ण एक बार माँ यशोदा की तरह मुझे ब्रह्माण्ड दिखा दें,
मेरे आशीष में. तुम्हारे आशीष सी अद्भुत ताकत हो।

प्रभु,
मैं याचक हूँ,
माँगती रहूँगी  ...
तुम दाता हो,
देते रहना।
तुमको दे सकूँ अपनी निष्ठा,
पुकारती रहूँ प्रतिपल,
यह सामर्थ्य देते रहना,
आते-जाते जब भी तुमको देखूँ,
झट से आशीष दे देना,
हर हाल में मेरे साथ रहना ... 

15 अगस्त, 2018

बड़े बड़े कारनामे झूठ होकर भी बहुत सच होते है बालमुकुंद




एक था बालमुकुंद
परियों की कहानी
सिंड्रेला के जादुई जूत्ते
आलू के कारनामे सुनकर
आखिर में अपनी दोनों बाहें
बेफिक्री से ऊपर उठाकर कहता
"सब झूठ है"
सुनकर हँसी आ जाती ....
झूठ से ही तो कल्पनायें निकलती हैं
सच की ईंट रखी जाती है
बच्चे इन्हीं कहानियों से
अपनी नई कहानी के रास्ते खोलते हैं
लेकिन बालमुकुंद तठस्थ था
झूठ है, फिर क्या मानना
क्या सोचना !
जज़्बा तैयार करना बहुत कठिन है
जब ना मानने के पुख्ता कारण हो !
क्योंकि हम जो लकीर खींचते हैं
वह आगे ही जाएगी
एक ही परिणाम होगा
यह तय नहीं है
तभी तो बचपन से
गाजर से
शकरकंद से
हम किला बनाते हैं
तोप की रचना करते हैं।
और दुश्मनों को मार गिराते हैं !
ये नन्हे नन्हे खेल
बड़े बड़े कारनामे
झूठ होकर भी
बहुत सच होते है बालमुकुंद
कुछ कर दिखाने का प्रतीक होते हैं  ...

14 अगस्त, 2018

अकेलापन ही सही, इस खुद्दारी में अपना अर्थ नज़र आया ।



प्रेम एक ही बार होता है
या कई बार,
किताबी या फिल्मी बातों से इतर,
मैंने,
हाँ मैंने,
एक बार नहीं,
दो तीन बार प्यार किया ...
क्यूँ का क्या जवाब ?
और क्यूँ ?
किसे देना है जवाब ?
कौन व्याख्या करने की,
तराज़ू पर तौलने की सामर्थ्य रखता है !
यह मेरा मन जानता है,
और यह मन की स्वीकृति है
कि मैंने प्यार किया ।
जब भी किया,
सामनेवाला उसका सही पात्र नहीं निकला,
कहा जा सकता है,
मैं सही पात्र नहीं निकली ।
उसे शरीर की तलाश थी,
मुझे मन की !
यकीनन,
स्पर्श प्रेम का माध्यम है,
पर,
जहाँ मन नहीं,
वहाँ शरीर छल है,
न दर्द ,न ख़ुशी
कुछ भी नहीं ।
...
फिर, मैंने मन की तलाश से ख़ुद को विमुख कर लिया,
मेरे एकाकी क्षणों में ,
मैंने एक बार नहीं,
कई बार ख़ुद की व्याख्या की,
और जाना,
मेरा प्रेम कभी भी स्वार्थी नहीं हुआ,
यदि स्वार्थ प्रबल होता,
तो मैं सिर्फ शरीर हो सकती थी,
लेकिन मुझे मन होना रास आया,
अकेलापन ही सही,
इस खुद्दारी में अपना अर्थ नज़र आया ।



08 अगस्त, 2018

अपने व्यक्तित्व को पहचानो, ... वही तुम्हारी कृति है ।




शब्दों की गहरी नदी में उतरकर,
कुशल तैराक बनी मैं,
सोच रही हूँ -
मैं एक कृति - अपने माँ पापा की,
वे भावातिरेक में आए होंगे,
तभी तो ऊँगली थमाकर मुझे कहा,
आगे बढ़ो ...
मैं बढ़ती गई,
अपने भीतर कुछ न कुछ गढ़ती गई,
स्तब्ध होती गई,
कितना कुछ छूटा,
कितना कुछ टूटा,
बेवजह कुछ जुड़ गया,
तार तार हुई मैं,
जार जार रोई,
कई संकल्प उठाये,
कई महत्वपूर्ण किनारे छोड़े,
मझदार को अपना विकल्प बनाया,
प्रश्नों के कटघरे में कहा एक दिन,
जवाब देना छोड़ो,
किसी जवाब से कुछ नहीं होगा ।
जो तुम्हारा है,
वह जवाबतलब करेगा नहीं,
और जो नहीं है,
वह किसी जवाब से संतुष्ट होगा नहीं ।
प्रश्नकर्ता की एक सनक होती है,
उसे मात देना होता है,
वह किसी भी स्तर पर उतरकर देगा ।
व्यर्थ की परेशानियों से खुद को मुक्त करो,
आँसुओं की नदी में निराधार बहने से बेहतर है,
अपने व्यक्तित्व को पहचानो,
... वही तुम्हारी कृति है ।
शैतान खुद को नहीं बदलता,
तो तुम किस परिवर्तन का संकल्प ले रहे ?
बाड़ का निर्माण करो,
बहुत ज़रूरी है खुद को सुरक्षित रखना,
न बुद्ध होने के ख्वाब देखो,
न यशोधरा बनने की चाह,
जो है,
उसे सम्भालकर रखो ...

11 जुलाई, 2018

बासी का स्वाद अनोखा होता है




बासी का स्वाद अनोखा होता है,
अगर वह बेस्वाद हो जाए,
मीठा से खट्टा हो जाए,
तो वक़्त देना खुद को
कि वजह क्या थी ।
रोटी हो,प्यार हो ,
बचपन हो,
या हो चिट्ठियाँ
बासी होकर
 भूख मिटा देती है,
आँखों से बहुत कुछ उमड़कर
हलक तक आ जाता है,
इच्छा होती है,
भीग जाएँ इस बारिश में ।
बच गई रोटी
सिर्फ बासी नहीं होती,
किसने बनाई,
कितने जतन से बनाई,
जतन से रखा,
ये सारी बातें आती हैं।
बासी रोटी,
यानी की ताजे भोजन के लिए वक़्त मत बर्बाद करो,
बासी रोटी,
रात से सुबह
सुबह से रात की यात्रा करके आती हैं,
बहुत कुछ उसमें नमक घी की तरह लगा होता है
बासी रोटी, बासी बचपन,बासी प्रेम
कृष्ण की बांसुरी सा होता है,
खींचता है अपनी तरफ  ...

09 जुलाई, 2018

दिनचर्या


उठती हूँ ,
बिखरे बालों को समेट लेती हूँ
दिनचर्या तिरछी नज़रों से देखती है,
लम्बी साँसें भरकर,
शरीर को जगाती हूँ,
मन को झकझोरती हूँ
"अरे उठो न"
झाड़-पोछ,
कुछ बनाना,
गीत गाना,
कुछ कहना-सुनना,
...
कई बार
बस यंत्रवत
सुनती हूँ, कहती हूँ,
 पढ़ती हूँ, लिखती हूँ,
पर, कुछ याद नहीं रहता ...
एक ही धुरी पर घूमती हूँ,
बातों को दुहराती हूँ ।
समय को हटाओ,
तारीखें भी देखकर याद आती हैं !
तारीख कोई भी हो,
एक सवाल उठता है
"आज कुछ है क्या"
ओह, कुछ नहीं है,
सोचकर पेट और दिमाग के गुब्बारे
फूटकर शांत हो जाते हैं ।
बेवजह का खौफ़
कुछ भी खाओ,
न स्वाद लगता है,
न पेट भरता है ।
बहुत सवेरे,
या नौ बजे के बाद रात में
मोबाइल के बजते
आंखें मिटमिटाने लगती हैं,
किसी बुरी खबर कीआशंका ...
किसी दुख में,
किसी के ना रहने पर,
आसपास कोई फुरसत वाला कंधा भी नहीं,
जिस पर सर रखकर रो लें,
...इंतज़ार रहता है,
फ़ोन आएगा,
टिकट कटाकर,
स्टेशन,एयरपोर्ट की दूरी तय करके,
बेचैनी को जब्त करके ,
कोई अपना पहुँचेगा ...
तब तक मन
सत्य-असत्य के बाणों से बिंध चुका होता है ।
"आपका समय शुरू होता है अब" से रोना,
संभव नहीं ।
अब क्या हम साधारण लोग भी रुदाली ढूंढेंगे ?
अजीब सी तरक्की है यह,
अजीब सी समानता !
आत्मीयता के आँसू सूख गए हैं,
क्या यह गंगा का शाप है ?
उन बुज़ुर्गों का शाप है,
जिनके फोन की घण्टी भी नहीं बजी,
या शाप है उन देवताओं का,
जिनके आगे कीमती वस्त्र,
भोग रखकर,
आडम्बरयुक्त नृत्य करके,
हम सर्वोच्च भक्त बन गए !
... कुछ तो हुआ है,
क्योंकि कोई एक नहीं,
सबकेसब अकेले हो गए हैं
...
तस्वीरों पर मत जाना,
वह तो एक और सबसे बड़ा झूठ है !!!

06 जुलाई, 2018

बन्द रास्ते




रास्ते बंद दिखाई देते हैं,
बन्द होते नहीं,
आगे बढ़ने के लिए
एक कोशिश की ज़रूरत होती है ।
कभी कभी नहीं,
कई बार
कूदना होता है खाई में,
ज़िन्दगी को पता होता है रास्तों का,
तो बचा ही लेती है अदृश्य शक्ति बनकर ,
... मृत्यु की संजीवनी है ज़िन्दगी
हार के आगे जीत है ज़िन्दगी
बंद रास्तों के आगे एक रहस्यात्मक विकल्प है ज़िन्दगी,
बस देखते जाना है,
एक खूबसूरत यात्रा का सूक्ष्म स्रोत होते हैं
ये बन्द रास्ते ।

01 जुलाई, 2018

खामोश रहकर हम एक आखिरी यात्रा कर लेते




एक खामोशी
रिश्तों की अदायगी पर
क्रमशः हो जाती है ।
खामोशी में एक मुस्कान
व्यवहारिक कुशलता बन जाती है ।
अच्छा होता न,
खामोश रहकर,
हम आखिरी यात्रा कर लेते,
कुछ वहम टूटने से बच जाते,
कुछ यादों के पंछी उड़ान भर लेते
...मौत तो एक दिन आ ही जानी थी !

29 जून, 2018

राधाकृष्ण,रास




मैं राधा
माता कीर्ति
पिता वृषभानु की बेटी !

कृष्ण की आदिशक्ति
नंदगाँव और बरसाने की प्रेमरेखा !

मैं कृष्ण की आराधिका थी
या उनकी बाँसुरी
यमुना का किनारा
या कदम्ब की डाली
गोकुल की पूरी धरती
या माखन
उनके मुख में चमकता ब्रह्माण्ड
या उनको बाँधी गई रस्सी

या !!! 

... जो भी मान लो
मैं थी - तो कृष्ण थे
कृष्ण थे - तो मैं !
०००
जिस दिन कृष्ण ने जन्म लिया
उस दिन मैं अमावस्या थी
कारागृह के द्वार मैंने ही खोले थे
टोकरी की एक एक बुनावट में मैं थी
मूसलाधार बारिश की बूंदों में मैं थी
यमुना की उठती हिलोरों में मैं थी
पाँव छूकर
मैंने ही
अपने होने का हस्ताक्षर किया था
 ...
बरसाने में जन्म लेकर मैं
गोकुल की प्रतीक्षित देहरी बन गई  !
माँ यशोदा के आँगन में
कृष्ण के जो नन्हें पाँव मचले थे
उसके मासूम निशानों में मैं तिरोहित हो गई
....  रास की इस पहेली को समझ सका है कोई !?
०००
 सिर्फ ज्ञान  ...
मात्र एक भ्रम है
जो मान लेता है खुद को सर्वस्व !
इसीलिए
 कृष्ण ने
उद्धव को
अपने ज्ञान का प्रतिरूप  बनाकर
अहम से परे
मोह में स्वयं को उलझाकर
हर रिश्तों के मध्य
प्रेम क्या है
यह समझने के लिए भेजा
क्योंकि,
गीता सुनाने के लिए
उसे समझने के लिए
पहले प्रेम और रिश्तों को जीना होता है
पाने से कहीं अधिक
खोना पड़ता है !!

गोपिकाओं के निकट 
उद्धव के शरीर में
दरअसल
कृष्ण ने स्वयं को प्रस्तुत किया
जहाँ प्रत्येक गोपिकाओं में
मैं समाहित थी
कृष्ण ज्ञान बनकर प्रज्ज्वलित थे
मैं प्रेम की मूक आँखों से बरस रही थी
तभी तो
गोकुल में कृष्ण का एक रूप ठिठक गया
रास के इस रहस्य को समझ सका है कोई !?
०००
मिट्टी का स्वर्णिम शरीर थे
वासुदेव,देवकी
नंदबाबा,यशोदा
रुक्मिणी,सत्यभामा
बलराम,सुदामा,
रसखान, सूरदास 
मीरा  ....

मैं थी मिट्टी
जिसमें अपनी आँखों का पानी मिलाकर
 कृष्ण ने मुझे बनाया - राधा
 !!!
साधारण स्तर पर
हर किसी ने सोचा
कृष्ण ने मुझे छोड़ दिया  ...
यदि यही बाह्य सत्य था
तो देवकी और मथुरा के लिए
वासुदेव ने कृष्ण को
तूफानों के मध्य जो गोकुल पहुँचाया
वह क्या था ?
 माँ यशोदा
पूरे गोकुल को छोड़कर
अधर्म के नाश के लिए
कृष्ण जो मथुरा पहुँचे
वह क्या उनका स्वार्थ था ?

यदि
साधारण
या असाधारण रूप से
 ऐसा नहीं होता तब ???
तब क्या होता ?
क्या होना चाहिए था ?

इस त्याग रास को समझ सका है कोई !?
०००
कुरुक्षेत्र के मैदान में
जिस विद्युत गति से रथ को दौड़ाया कृष्ण ने
उसकी रास मैं थी
कृष्ण के अकेलेपन की सम्पूर्ण वेदना मैं थी
उनके विराट स्वरुप का चमत्कृत रूप मैं थी
उनके और द्रौपदी के मध्य चीर मैं थी
अनहोनी अपनी जगह थी
उसकी सकारात्मक होनी मैं थी
इस अद्भुत रास को समझ सका है कोई !?
०००
मैं बड़ी भी हूँ
छोटी भी हूँ
ज्ञानी भी हूँ
अज्ञानी भी
मैं हूँ शरीर कृष्ण की
और आत्मा हूँ राधा की
कृष्ण हैं मेरे रोम रोम में 
तो कृष्ण में लय राधा भी है
तुमसबको किस बात का विस्मय है ?!
तुम नहीं हो सकते कृष्ण कभी
ना मिल सकती कोई राधा
जिस रास का अर्थ तुम समझ ना सके
वहाँ कैसा रिश्ता
 कौन सा त्याग
और कैसी बाधा !
सोचो खुद में
और कहो जरा
इस रास को समझ सका है कोई !?
०००
हमारा एकांत
हमारा आध्यात्म था
हमारा रास
जीवन का सार था
अतिरिक्त कल्पना तो
मानव मन की उत्पत्ति है !
विवाह में
सिर्फ सात वचन नहीं होते
जीवन के समस्त मंत्र इसकी समिधा होते हैं
जहाँ सिर्फ दो व्यक्ति नहीं मिलते 
पूरा संसार एक होता है
राधेकृष्ण संसार की एकता का प्रतीक हैं   ...
वसुधैवकुटुंबकम "रास" है
गहरे उतरो ज्ञान और प्रेम के
फिर जानो
राधेकृष्ण का अर्थ क्या है
कृष्ण क्या हैं
राधा क्या है !!!

18 जून, 2018

ज़िन्दगी जीने के लिए खुद को खर्चना होता है !




पैसे से
तुम घर खरीद सकते हो
महंगी चीजें खरीद सकते हो,
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो घर को घर का रूप नहीं दे सकते !
पैसे से
तुम महंगे, अनगिनत
कपड़े खरीद सकते हो,
प्रसाधनों की भरमार लगा सकते हो,
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो उन्हें सम्भालकर नहीं रख सकते,
कमरा, आलमीरा कबाड़ बन जाएगा !
पैसे से
बच्चे के लिए तुम आया रख सकते हो
उसे महंगे खिलौने दे सकते हो
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो बच्चे के जीवन मे माँ और पिता की
सार्थक परिभाषा नहीं होगी,
एक खालीपन उसके अव्यक्त पलों में होगा ।
कम पैसे में
यदि तुम स्वयं को खर्च करते हो,
तो बासी रोटी ताजी रोटी से अधिक स्वादिष्ट होती है,
नमक-रोटी के आगे पकवान फीके हो जाते हैं ।
घर के हर कोने से जब तुम्हारी खुशबू उठती है,
बच्चा खुद को विशेष नहीं
स्वाभाविक प्राकृतिक महसूस करता है !
पैसा ज़रूरी है,
लेकिन ज़िन्दगी को जीने के लिए
खुद को खर्चना होता है !

15 जून, 2018

खुद तय करो, तुम क्या हो ।




मान लिया,
सामने रावण और शूर्पणखा हैं
तो उनके विनाश के लिए तुम्हें
रावण और शूर्पणखा नहीं बनना है
राम और लक्ष्मण बनना है ।
अपशब्दों से तुम सामनेवाले को नहीं,
स्वयं को खत्म कर रहे हो,
शब्दों के स्तर
तुम्हारे स्तर की गवाही देते हैं ।
युद्ध ज़रूरी है,
साम,दाम,दंड,भेद भी
लेकिन अश्लील शब्द
!!!
अगर श्री कृष्ण ने भी यही अपनाया होता
तो आज गीता का आध्यात्मिक,
सांसारिक आधार न होता ,
सत्य की कटुताएँ हैं गीता में
"तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो",
परंतु, कहीं भी ऐसे शब्द नहीं,
जिनको पढ़ने के बाद
वितृष्णा हो,
एक लिजलिजेपन का जन्म हो भीतर।
जो कर्तव्यहीन है,
वही अपशब्दों पर उतरता है
अश्लीलता की सारी सीमाएँ लांघ जाता है !
ऐसे में,
तुम खुद तय करो,
तुम क्या हो ।

22 मई, 2018

एक हस्ताक्षर की तरह !!




एक कमज़ोर लड़की
जो किसी के दर्द को
डूबकर समझती है
डूबकर भी बाहर भागती हो
बनाती हो खुद को मजबूत
तब तुम रो क्यूँ नहीं लेते इस बात पर
कि हालातों ने उसे कितना मजबूर किया !

अपने आँसुओं की खलबली से वह टकरा जाती है
रोकती है खुद को बहने से...
टहनी सी वह लड़की, जो बरगद हो जाना चाहती थी
हुई भी थी, फिर कट गई थी  ....
उस बरगद को कटते देखकर
तुम्हें रोना नहीं आया ?

ज़मीन पर पड़ी उसकी डालियों से उम्मीद रखते हो
कि जब हवा चले
तो पत्तियों में हलचल हो
और तुम्हें राहत मिले !

मुझे उस पर
गुस्सा भी आता है,
और प्यार भी
कि वक़्त ने उसे बहुत बदलना चाहा,
लेकिन वह,
बदलकर भी वही है
एक हस्ताक्षर की तरह !!
       

19 मई, 2018

नख से शिख तक ज़िंदा रहूँगी




मैंने कब कहा ?
कि,
खुद के हिस्से
थोड़ी स्वतंत्रता माँगते हुए
मैं अपने सपनों को ऊँचे छींके पर रख दूँगी ?
भूल जाऊँगी गुनगुनाना,
चूड़ी पहनना,
पायल को ललचाई आँखों से देखना।
चुनरी मुझे आज भी खींचती है अपनी ओर,
पुरवईया - जब मेरे बालों से ठिठोली करती है
तो सोलहवें साल के ख्याल
पूरे शरीर में दौड़ जाते हैं !
स्वतंत्रता माँगी है,
राँझा बन जाने की बात नहीं की है।
मैं हीर थी,
हूँ
और रहूँगी !
मुझे भी जीने का हक़ है,
कुछ कहने का हक़ है
....
सूरज को अपने भाल पर
बिंदी की तरह सजाकर
मैं श्रृंगार रस की चर्चा आज भी करुँगी
स्वतंत्रता माँगी है,
पतझड़ नहीं।
बसंत के गीत,
जो तुम मेरे होठों से छीन लेना चाहते हो,
वह मैं होने नहीं दूँगी !
6 मीटर की साड़ी पहनकर,
मैं वीर रस की गाथा लिख चुकी हूँ,
तो आज भी यही होगा,
भोर और गोधूलि की लालिमा लिए
मैं धरती का चप्पा चप्पा नापूँगी,
सारे व्रत-त्यौहार जियूँगी,
अपने भाई के हाथों अपनी रक्षा का अधिकार बांधूंगी,
पूरी माँग भरकर,
अनुगामिनी बनूँगी  ...
साथ ही,
भाई की रक्षा का वचन भी लूँगी,
पति राह से भटका
तो, निःसंकोच -
उसके सारे रास्ते बंद कर दूँगी
स्त्री हूँ
स्त्रीत्व को सम्मान से जीऊंगी,
माँ के अस्तित्व को,
उसके आँचल से गिरने नहीं दूँगी,
मैं नख से शिख तक खुद को संवारूँगी
रोम रोम से ज़िंदा रहूँगी ,
स्वतंत्रता के सही मायने बताऊँगी  ...

06 मई, 2018

"जाने कहाँ गए वो दिन" !




छोटे थे तो
अपने गाँव
अपने शहर से बाहर
सब अद्भुत था
और अपनी पहुँच से कोसों कोसों दूर !
मुजफ्फरपुर,पटना,राँची जाना ही शान थी
पटना के हॉल में सिनेमा देखना
कुछ अलग सी बात थी .
तब चर्चा होती थी गोलघर की,
पहलेजा से महेंद्रू घाट जाने की
स्टीमर पर जो हवा बालों से अठखेलियाँ करती थी
वह परियों के देश जैसी ही थी !
राँची का फिरायालाल
रईसी की बात थी,
वहाँ सॉफ्टी खाना
आधुनिकता की बात थी !
वहाँ के रिफ़्यूजी मार्केट के मेले में
क्या नहीं मिलता था !
मिलता तो आज भी है,
लेकिन  ... पहले जैसी बात नहीं रही।
अस्सी के दशक में
शहीद चौक पर वह चाट का ठेला
हर कोई रुक ही जाता था।

रिक्शा से ऑटो,
ऑटो से कार,
सेकेंड स्लीपर से एसी 3
फिर एसी 2
... अपने शहर से जब निकले
तो निकल ही गए,
अपना शहर,
यूँ कहें, अपना घर अजनबी हो गया
कभी गए वहाँ
तो विस्फारित आँखों से यूँ देखा,
जैसे म्यूजियम घूमने आए हों !
जिन शहरों की कोई कल्पना नहीं थी
वहाँ रहने लगे !
विमान से जब पहली बार उड़े
तब लगा,
हम भी अमीर हो गए !

मुम्बई ! हमारे लिए एक फिल्मी दुनिया थी
लेकिन विद्युत गति से भागती मुम्बई
हमारा ठिकाना बन गई
दौड़ने लगे हम यहाँ की सड़कों पर
समंदर हमारा दोस्त बन गया
खुद से हम अपरिचित हो गए  !

इन बड़े शहरों में
गोल्ड क्लास में बैठकर
अब हम सिनेमा नहीं देखते
फ़िल्म देखते हैं !
छोटे छोटे किरानों से अब हम
किराने का सामान नहीं लेते,
बड़े बड़े मॉल से अनोखे पैकेट उठाते हैं
ऑर्गेनिक फ्रूट्स,वेजिटेबल्स लेते हैं
हज़ार की जगह
हज़ारों का सामान खरीदते हैं
घर में लाकर भूल जाते हैं
कुछ चीजें खाते हुए बुरा सा मुँह बनाते हैं
अरे ! यह क्या है !
....
लेकिन,
हम गाँव की  बातें करते हैं !
छूट गए शहरों को याद भी करते हैं !
बुद्धिजीवी हो गए हैं हम महानगरों में
हर विषय पर बोलते हैं,
चुप होते ही नहीं,
इतने ज्ञानी हो गए हैं
थोड़ी थोड़ी राजनीति सबने सीख ली है !

इंटरनेट का ज़माना है
और हम रोबोट
कुछ करें या न करें
बोलते जाते हैं।
हमारे सपनों की माँग भी बदल गई है
पहले हम राजा,रानी,
तोता,मैना को सुनते थे
अलादीन का चिराग चाहते थे,
अब आईपैड है,
और हर बटन में एक कहानी !
इक्के दुक्के घर में रखे टेलीफोन के नंबर घुमाने के लिए
इज़ाज़त लेनी पड़ती थी,
जिसका मिलना लॉटरी निकलने जैसा था !
अब तो बच्चों से इज़ाज़त लेनी पड़ती है
... स्वाभाविक है,
हमने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है,
बच्चों ने बड़ों का सम्मान !!

प्रश्न झकझोरता है,
क्या हम पीछे छोड़ आए,
छूट गए वक़्त को,
रिश्तों को,
गीतों को,
बचपन को
आगे ला पाएँगे ?
बच्चों के साथ कागज़ की नाव बनाने का
समय निकाल पाएँगे ?
बच्चों में पंचतंत्र की कहानियों की
उत्सुकता जगा पाएँगे  !!!!!!

मरीन ड्राइव पर बैठे लोग
अब रोमांचित कम,
थके हुए अधिक मिलते हैं
जिनके चेहरे पर एक ही गीत होता है,
"जाने कहाँ गए वो दिन" !



29 अप्रैल, 2018

कुछ यूँ महसूस होता है ...



खींचता है मुझे अपनी तरफ
वो ब्लैक एंड व्हाइट का ज़माना
गीत, तस्वीरें
वो अल्हड़पन  ...
जाने कब तक सुनती जाती हूँ कोई खोया खोया
अधजगा सा गीत
प्यास,उदासी,मिट्टी, इंतज़ार के !
रंगीन तस्वीरों को
ब्लैक एंड व्हाइट करती जाती हूँ
और  ... बात ही बदल जाती है !

कविता सुनते हुए
शायद कविता से भी अधिक खूबसूरत, मोहक
मुझे  ब्लैक एंड व्हाइट में उभरते पात्र लगते हैं
उनकी घूमती नज़रें
उनका बेफ़िक्र सा अंदाज़
लगता है,
कुछ यूँ महसूस होता है,
जैसे किसी ने मुझे बाँधकर बैठा दिया है !
सपनों के ब्लैक एंड व्हाइट बादल उमड़ते हैं
और,
एक प्याली चाय के संग मैं गुनगुनाने लगती हूँ
"ऐसे में कहीं कोई मिल जाए"
एक तितली मेरे कंधों पर आकर बैठ जाती है
काले मेघ रिमझिम बरसने लगते हैं,
चेहरे पर समेटने लगती हूँ मैं
-बारिश की बूँदों को,
वक़्त प्यानो बजाने लगता है
मैं धीरे से कहती हूँ,
"मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं"(अमृता प्रीतम)
सुनाई देती है उसकी चिर परिचित आवाज़
....
"बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से!
तुमने चिर अनजान प्राणों से!
यह विदेह प्राणों का बंधन,
अंतर्ज्वाला में तपता तन,
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को,
दग्ध कामना करता अर्पण,
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से! "
( सुमित्रानंदन पंत)







24 अप्रैल, 2018

काश ! मान लिया होता




बुरा लगता है
जब कोई सिखाने लगता है अपने अनुभवों से
लेकिन, फिर एकांत हो या भीड़
ज़िन्दगी भर
हथौड़े की तरह यह बात पीछा करती है
"काश ! मान लिया होता"
...
धैर्य ज़रूरी है,
समझना होगा - कोई यूँ ही नहीं बोलता
विशेषकर, "माँ" !
उसकी आँखों में
उसकी बेचैन करवटों में
उसके भयभीत लम्हों में
ऐसी न जाने कितनी बातें होती हैं,
जो वह कहती नहीं,
पर रोकती है,
हिदायतें देती है,
....
झल्लाना एकदिन पछतावा बन जाता है
और फिर शुरू होता है वही सिलसिला
जब तुम्हारे अनुभवी विचार
अपने से छोटे का हाथ पकड़कर कहते हैं,
इतना ज़रूरी तो नहीं...
विशेषकर उनको,
जिनको तुमने गोद में उठाया हो
जिनके रोने पर तुम्हें नींद न आई हो
सोचो,
जब वे नहीं सुनेंगे,तो कैसा लगेगा !
कितने सारे दृश्य तुम्हें मथेंगे
और  ....

बता पाना मुश्किल होता है
बहुत मुश्किल !
इसलिए,
मान लेना चाहिए,
मान लेना कुछ दिन की उदासी हो सकती है
लेकिन नहीं मानना,
.... !

22 अप्रैल, 2018

बाकी से तो सुरक्षित रहेंगे !




रुक जाओ
रुक भी जाओ
पीछे लौटो
जहाँ हो,
एक बड़ा मिट्टी या सीमेंट का आँगन
लाल पोचाड़े से रंगा घर
बारामदे का पाया
जिससे छुप्पाछुप्पी खेलने की सुविधा हो
मिट्टी से लीपा बर्तन
दो कसी चोटी
हिदायतों की फेहरिस्त
घर से स्कूल
स्कूल से घर लौटने की ताक़ीद 
...
बहुत बने हम लड़कों के समान
बक्शो हमें
देखने दो हमें  सिर्फ सपने
रखो यह हकीकत अपने पास !
नहीं जाना हमें आगे,
क्या मिला है आगे जाकर ?
दिया है बस पैसों का हिसाब
नहीं दिया
तो हो गया है तलाक !
बच्चों की जिम्मेदारी आज भी हम पर ही है
नौकरी तो सिर्फ तुम करते हो
हम तो तफ़रीह करती हैं  !
किसी के साथ हँस लिया
तो चरित्रहीन !
फ़ोटो खिंचवा लिया
तो तौबा तौबा !
और हो गया कोई हादसा
तब तो  ...

आओ, वहीं चलें
बाबा के पीछे से बहुत कहने पर झांकें
भईया की किताब छुपकर पढ़ें
मईया से सीखें चुप रहना
दादी की झिड़कियाँ सुनें
"लड़कीजात हो,
ज्यादा खी खी खी खी मत करो,
दुपट्टा लेने का शऊर नहीं  ... "
घर के अंदर जो भेदभाव था
उसे ही सह लेंगे
आँगन के पेड़ में रस्सी बाँधकर
सावन का झूला झूल लेंगे
जिससे ब्याह दिया जाएगा
उसके पीछे पीछे
लम्बा घूँघट किए चल देंगे
बाकी से तो सुरक्षित रहेंगे !

18 अप्रैल, 2018

यह अँधेरा तुम्हारे घर से कभी नहीं जाएगा ...



मैं हूँ,
पर शायद कहीं नहीं हूँ !
कहीं नहीं होने का तात्पर्य बस इतना है
कि तुमसब मुझे देखकर अनदेखा कर रहे
लेकिन  ... मैं हूँ न !
मैं वही कन्या हूँ
जिसे तुमने पूजने के बहाने बुलाया था
और मंदिर के सारे दीये बुझा डाले थे
...
तुम्हें लगा, अन्धेरा हो गया
तुम्हारा विकृत चेहरा किसी को नहीं दिखा
... और न्याय की ऐसी की तैसी
हमेशा की तरह लोग चीखेंगे
नारे लगाएंगे
फिर सब खत्म !
मुर्ख हो तुम
और ऐसा सोचनेवाले !
मंदिर और प्रकृति की दीवारों ने देखा है तुम्हें
मुमकिन है,
कोई आदमी तुम्हें भूल जाए,
कोई इंसान तुम्हें एक बार में ही मार डाले
लेकिन मैं ऐसा नहीं करुँगी !
तुमने पूजने के लिए बुलाया था न
मैं लहूलुहान बैठी हूँ
तुम्हारे आँगन में
अपनी सहस्रों भुजाओं से
मैं तुम्हें धीरे धीरे खत्म करुँगी
वह सारे दृश्य तुम्हारे आगे लाऊँगी
जो तुमने अँधेरे में दफना दिया !
हैवानियत कभी दफ़न नहीं होती,
यह और कोई जान पाए या नहीं
तुम जानोगे
तुम्हारी सुरक्षा में खड़े लोग जानेंगे
कि अँधेरा कैसे बोलता है !
और यह अँधेरा तुम्हारे घर से कभी नहीं जाएगा  ...

14 अप्रैल, 2018

सब सही है




हर मृत्यु के बाद
रोज़मर्रा की साँसे
ले ही लेता है इंसान !
खाते हुए,
सोते हुए देखकर
लगता तो यही है
पर,
!!!
साँसें
किसी संकरे नाले से
गुजरती हुई सी लगती है !
पूछने से तो यही जवाब मिलेगा
कि
सब ठीक है
....
क्या सचमुच सब ठीक होता है ?!

चिड़िया भी रोज चहक लेती है
लेकिन चहक में वो बात नहीं होती
वह गा रही है
या रो रही है
कौन समझता है चिड़िया की भाषा
उसे तो दिखता है
उसका फुदकना
चोंच खोलना
और सुनाई देती है चीं चीं
गीत है या रुदन
किसे पता !

वह बच्चा रो रहा है
उसे चुप कराना है
वह भूखा है
उसे खाना देना है
एक तरफ
ज़रूरतें मुँह बाये खड़ी हैं
दूसरी तरफ दिनचर्या
समझ से परे है
अपनेआप को भी समझ पाना
साँसों का क्या है
जब तक चलना है
चलेंगी ही  ...
कैसे का कोई जवाब नहीं
हम - आप जो समझ लें
सब सही है
!!!

13 अप्रैल, 2018

सशक्त कदम उठाओ !!!




सती की तरह
मेरे शरीर के कई टुकड़े हो गए है
ज्ञात, अज्ञात
शहर,गांव
जंगलों में तड़प रहे हैं !
जान बाकी है
अर्थात अब भी उम्मीद बाकी है !
उम्मीद के नाम पर
कोई दीप मत जलाओ
कुछ बोलो मत,
मुझे ढूंढो
अपने अपने भीतर। 
समेटो,
जोड़ो,
खींच लाओ उस स्त्री को
जो अपने ऐसे बेटे के लिए व्रत रखती है
जो किसी स्त्री का सम्मान नहीं करता
उस स्त्री को
जो रात दिन जलील होकर भी
पूरी माँग सिंदूर भरती है
दीर्घायु का व्रत रखती है उस पति के लिए
जो अन्य स्त्रियों के आसपास
गिद्ध की तरह मंडराता है
उस स्त्री को
जो रक्षा का बन्धन
उसकी कलाई में बांधती है
जिसकी कलाइयाँ
ज़िन्दगानियाँ तहस नहस करती हैं !
शुरुआत यहाँ से होगी
तभी सुबह होगी
जितने हक़ से तुमने पुरुषों की बराबरी में
जाम से जाम टकराये हैं
धुँए के छल्ले बनाये हैं
उतने ही हक़ से
सड़क पर उस सुबह को लेकर उतरो
जिसके आह्वान में चीखें उभर रही हैं !!
.....
वहशी आंखों की पहचान
तुमसे अधिक कौन रखता है ?
निकाल दो उन आंखों को !
जो व्यवस्था
तुम्हें रौंद रही - एक वोट के लिए
एक घृणित जीत के लिए
वहाँ से किनारा कर लो ...
सिर्फ वोट देना ही तुम्हारी पहचान नहीं
एक एक वोट को रोक देना भी
तुम्हारी पहचान है
गहराई से चिंतन करो
सशक्त कदम उठाओ !!!

08 अप्रैल, 2018

शैतान की कोई आत्मा नहीं होती




तुम्हारी मृत्यु सोचकर
मेरे अंदर कोई वेदना नहीं होती
जब तब एक घायल पंछी सिहर जाता है
यह सोचकर,
कि अब क्या उड़ना ?
ज़िन्दगी बीत गई कांपते हुए !
कुछ दिन पहले तक लगता रहा
कि अपमान का क्रम भी रुक जाए
टूट जाए
तो एक खालीपन उभरता है
लेकिन,
तुम्हारी शर्तों की हुकूमत
मेरे भीतर अट्टाहास करती है
ऐसे,
जैसे
भूत आ गया हो शरीर पर !
सच,
कई बार मन होता है
भूत खेलवाने जैसी हरकत करूँ
तुम्हारे सिरहाने से तकिया खींचकर फेंक दूँ
आग्नेय नेत्रों से तुम्हें देखूँ
और पूछूँ  ...
अपने किये का
कोई हिसाब किताब है तुम्हारे पास ?
झूठमूठ टेसुए बहाते
आत्मा नहीं कोसती ?
क्या कोसेगी,
शैतान की कोई आत्मा नहीं होती न !

04 अप्रैल, 2018

क्या इतना काफी नहीं है ?




जिन प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हों,
उन प्रश्नों को दुहराने से क्या होगा ?
क्या कोई और उत्तर चाहिए ?
या ज्ञात उत्तर को ही सुनना है ?
फिर उसके बाद ?
एक चुप्पी ही होगी न ?
कोई हल जब पहले नहीं निकाला गया
तो अब क्या ?
....
सच को झूठ कह देने से
क्या सच में वह झूठ हो जाएगा ?
और तुम सच की तरफ मुड़कर सवाल करोगे ?
क्या कहेगा सच ?
सारे चश्मदीद गवाह ही थे
हैं  ...
न्याय जो समय रहते नहीं हुआ
उसका अब औचित्य क्या !
मन के कितने मौसम बदल गए
... अब तो किसी सच के लिए
कुछ कहने का भी मन नहीं होता
हम साथ चल रहे हैं
स्पष्टता गहरी हो गई है
क्या इतना काफी नहीं है ?

हाँ, इतना स्पष्ट कह दूँ
कि,
आत्मा की सुनना
जिस बात में सुकून मिले
वही करना
और वह जो भी हो
उसकी सफाई मत देना
!!!


  

27 मार्च, 2018

कहो यशोधरा




कहो यशोधरा
सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण के बाद
वह सुबह
तुम्हारे अंदर कैसे उतरी थी ?
क्या वह गौरैया उस दिन तुम्हें दिखी थी
जो हर दिन नियम से
तुम्हारी खिड़की पे आ बैठती थी
चीं चीं पुकार कर तुम्हें
तुम्हारी नर्म हथेलियों पर दाना चुगती थी
सुनाई पड़ी थी उसकी मीठी चीं चीं ?
या लोगों के सवालों के शोर में
उस शोर की तंग गलियों में
तुम स्तब्ध राहुल को देखे जा रही थी
और शिव जटा सी तुम्हारी आँखों से
बह रही थी गंगा !
कहाँ है तुम्हारी वह निजी डायरी ?
जिसमें कुछ तो लिखा ही होगा तुमने
या खींचती गई होगी बेतरतीब लकीरें !!!
उन लकीरों में
भीड़ की नसीहतें होंगी
होंगे कुछ उलाहने
और जले पर नमक छिड़कते ये वाक्य
अब ऐश करो पैसे से ...
उन लकीरों में
दीवारों पर सर पटकती
होगी तुम्हारी चुप्पियों की ज्वालामुखी !
कुछ अनुमान तुम्हारे भी तो होंगे उन लकीरों में ?
राहुल के सवालों पर
कभी हुई होगी झुंझलाहट
फिर कोसा होगा खुद को
घुट्टी में पिलाई गई स्त्री की परिभाषा को
उकेरा होगा लकीरों में
विरोध किया होगा रात के सन्नाटे में !
राहुल के सो जाने के बाद
खड़ी हो गई होगी आईने के आगे
कितने अल्हड़ प्रश्न उठे होंगे आंखों में
समय से पहले,
बहुत पहले
एक समाप्ति की अघोषित घोषणा को
स्वीकार करते हुए
कितनी लकीरें काँप गई होंगी !
ऊंघते हुए
चौंककर उठते हुए
तकिये पर बेखबर सोया
सिद्धार्थ नज़र आया होगा
आश्वस्त होने के लिए
आंखें विस्फारित हुई होंगी
और सत्य ने कई बार निर्मम हत्या की होगी !
कहो यशोधरा
क्या एक बार भी
भागने का ख्याल नहीं आया ?
आया तो होगा ही !!!
लेकिन नियति ने
राहुल को जिजीविषा बनाया था
और तुम लकीरों के बाद
लिखने लगी होगी क्षत्रिय धर्म
परम्परा की बाती को
निष्ठा के घृत से सराबोर किया होगा
दिल दिमाग के शोर से
खुद को बाहर निकाला होगा
और मातृत्व धर्म में
ध्यानावस्थित हो गई होगी
डायरी को पूजा के स्थान पर रख दिया होगा
...
कहो यशोधरा,
मैंने पढ़ लिया है न बखूबी
उन लकीरों को ?



14 मार्च, 2018

फिर मत कहना, समय रहते ... मैंने कहा नहीं !




एक मंच चाहिए मुझे
बिल्कुल श्वेत !
श्वेत पोशाकों में पाठक ... कुछेक ही सही !
एक सुई गिरने की आवाज़ भी
कुछ कह जाए
वैसा शांत माहौल
और स्थिर श्रोता !
मैं अपने होने का एहसास पाना चाहती हूँ
मैं शरीर नहीं
एक रूहानी लकीर हूँ
यह बताना चाहती हूँ !
बन्द कर दो सारे दरवाज़े
हवा को सर पटकने दो
उसे समझने दो
कि जब रास्ते बंद कर दिए जाते हैं
तो कैसा लगता है
कितनी चोट लगती है सर पटकते हुए
किस तरह एक पवित्र शीतल हवा
आँधी बन जाती है
और तोड़ देना चाहती है
दरवाज़े और घर
तिनके की तरह उड़ा देना चाहती है
भयभीत मनुष्यों को !!!
चाहती हूँ,
वह अपनी आँखों से देखे
कि जब खुद पर बन आती है
तब भयभीत मनुष्य
अपनी रक्षा में
सौ सौ जुगत लगाता है
सूक्तियों से अलग
हवा भी अपना वजूद समझ ले !

मैं हृदयविदारक स्वर में पूछना चाहती हूँ
तथाकथित अपनों से
समाज से
आसपास रोबोट हो गए चेहरों से
कि क्या सच में तुम इतने व्यस्त हो गए हो
कि किसी सामान्य जीव की असामान्यता के समक्ष
खड़े होने का समय नहीं तुम्हारे पास !
या,
तुन अपनी जरूरतों में
अपनी आधुनिकता में
अपनी तरक्की में
पाई पाई जोड़
सबसे आगे निकलने की होड़ में
इतने स्वार्थी हो चुके हो
कि एहसासों की कीमत नहीं रही !
तुमने प्रतिस्पर्धा का
दाग धब्बोंवाला जामा पहन लिया है
बड़ी तेजी से
अपने बच्चों को पहनाते जा रहे हो !
तुम उन्हें सुरक्षा नहीं दे रहे
तुम उन्हें मशीन बनाते जा रहे हो
...
कभी गौर किया है
कि उनके खड़े होने का
हँसने का
बड़ों से मिलने का अंदाज़ बदल गया है !
तुमने उनके आगे
कोई वर्जना रखी ही नहीं
सबकुछ परोस दिया है
!!!
नशे की हालत में
या मोबाइल में डूबे हुए
तुम उन्हें कौन सी दुनिया दे रहे हो ?
क्या सच में उन्हें कोई और गुमराह कर रहा है ?
और यदि कर ही रहा
तो क्या तुम इतने लाचार हो !

घर !
तूम्हारे लिए अब घर नहीं रहा
!!!
तुम सिर्फ विवशता की बात करते हो !
जबकि तुम
ज़िन्दगी के सारे रंग भोग लेना चाहते हो
भले ही घर बदरंग हो जाए !

मैं रूहानी लकीर
सबके पास से गुजरती हूँ
जानना चाहती हूँ
वे किस वक़्त की तलाश में
सड़कों पर भटक रहे हैं
क्या सच में वक़्त साथ देगा ?

कड़वा सच तो यह है
कि वक़्त अब तुम्हें तलाश रहा है ...
हाँ मेरी धमनियों में वह बह रहा है
मुझे बनाकर माध्यम
कह रहा है - बहुत कुछ
कहना चाहता है,
बहुत कुछ !!
फिर मत कहना,
समय रहते ... मैंने कहा नहीं !

...

05 मार्च, 2018

फिर डर नहीं लगता !




रेखाएँ खींचते हुए
एक नहीं
हर बार सोचा है
फिर तो मिट ही जाना है ...!

मन के आकाश में
उम्मीदों का कंदील लगाते हुए
एक नहीं
हर बार सोचा है
फिर तो बुझ ही जाना है ...!

जब जब घुप्प अंधेरा हुआ है
दूर दूर तक कुछ नज़र नहीं आया है
हर बार
हर बार सोचा है
सुबह को कौन रोकेगा !

निराशा के बादल गरजते हैं
एक नहीं
कई बार
लेकिन हर बार एक छोटी सी आशा
थाम लेती है उँगली
और ...
फिर डर नहीं लगता !

03 मार्च, 2018

उन दिनों का स्वाद !


वह जो वक़्त था
उसकी बात ही कुछ और थी
भरी दुपहरी में
चिलचिलाती धूप में
डाकिये की खाकी वर्दी
आंखों को ठंडक पहुँचाती थी
मुढ़ीवाले की पुकार
गोइठावाली का आना
पानीवाला आइसक्रीम
कुछ अलग सा था
उन दिनों का स्वाद !

लिफाफा
अंतर्देशीय
पोस्टकार्ड देखकर
चिट्ठी लिखने का मन हो आता था
बैरंग चिट्ठियों का भी एक अपना मज़ा था !
शेरो शायरी समझ आए न आए
लिखते ज़रूर थे
...
एक शायरी तो जबरदस्त थी
सबकी ज़ुबान पर
नहीं नहीं कलम में थी
"लिखता हूँ खत खून से
स्याही न समझना
मरता/मरती हूँ तेरी याद में
ज़िन्दा न समझना'
....
पर्व,त्योहार,मौसम,प्यार
खत में होते थे
नियम से होली का अबीर जाता था
दूर रहनेवालों को रंग दिया जाता था
गुलाब के फूल भेजकर
प्यार का इज़हार होता था
गीतों की किताब से ,
कविताओं से
उपन्यास से
पंक्तियाँ चुराकर
अपना बनाकर
भेजा जाता था
क्या कहूँ
वो जो वक़्त था
बस कम्माल का था !

इंतज़ार में एक स्नेह था
किसी के आने की खुशियाँ बेशुमार थीं
उस वक़्त पड़ोसी का रिश्तेदार भी
अपना हुआ करता था
नेग, दस्तूर
सब आत्मीयता से निभाए जाते थे
हर घर के खिड़की दरवाज़े खुले मिलते थे
कोई किसी के लिए अजनबी नहीं था
वह जो वक़्त था
बहुत अपना था  ... !

19 फ़रवरी, 2018

चिड़िया




सुबह सुबह
चिड़िया दिखे
ना दिखे
सूरज के घोंसले की
प्रथम रश्मि के तिनके से
वही जागरण गीत गाती है
अलसाई खुली पलकें
उसीसे सुगबुगाती हैं
शुरू होती है दिनचर्या ...

क्या बनाऊँ
क्या बनाऊँ
का खुशनुमा ख्याल तभी उभरता है
जब बच्चों से घर भरा होता है
होती हैं बेवजह की लड़ाइयां
भले ही नहीं दिखती चिड़िया
पर अदृश्य मन के आंगन में फुदकती रहती है
कभी फुर्र से उड़ती है
कभी कोयल बन कूकती है
सुबह से दोपहर
दोपहर से शाम
शाम से रात
दिन तेजी से भागता है
...
बच्चों के बच्चे
सोने पे सुहागा
ओह ! अरे नहीं !
रुको रुको! कहते
चिड़िया बन जाती है
कुनू अमु
टिश्यू पेपर से कमरा भर रहता है
जैसे बिखरे होते हैं चिड़िया के दाने
कहीं शेर औंधा गिरा होता है
 ठहरी होती है गेंद कमरे के बीचोबीच
अगर पांव पड़ा तो लड़खड़ा जाओ
....
हर थोड़ी देर पर चीजों को खोजना
सहेजना
हाय तौबा मचाना
ज़िन्दगी का खूबसूरत फलसफा होता है
कलम जाने कितने दृश्यों को
अपनी पैनी नोक पर उठा लेती है
नशा बढ़ जाए
तो गीत लिख देती है
कहानीकार बन जाती है
समंदर के मध्य चिड़िया
उड़ती है, बैठती है
कुछ दूर तैरती है
सपने धीरू भाई अम्बानी
दशरथ माझी से होते हैं
.....
सूरज के घोंसले से जो चिड़िया आती है
कभी माँ बुलाती है
कभी नानी
कभी दादी
तभी तो
रसोई से आती है कच्ची घानी की खुशबू
गुनगुनाता है घी से लगा तड़का
भूख जगाता है
गरम गरम चावल दाल
नरम नरम रोटियों में होता है अनोखा स्वाद
खिलखिलाती खुशी में
कभी गोलगप्पे मचलते हैं
कभी पाव भाजी
मुँह में भरा होता है पॉपकॉर्न
चिड़िया खिड़की के शीशे पर
टुक टुक चोंच मारती है
उसे देखते हुए
मैं जीती हूँ
बचपन
सोलहवां साल
60 साल से आगे बढ़ते वक़्त को  ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...