24 दिसंबर, 2021

एक स्त्री


 


एक स्त्री हर रोज बिछावन ठीक करते हुए किसी दिन आलस में आती है, सोचती है - आज रहने देती हूँ सबकुछ बिखरा बिखरा ही, पर उसे ही लगने लगता है कि कोई आया या नहीं भी आया तो बेतरतीब कमरे में मन भी बेतरतीब हो जाएगा और सोचते हुए वह तह कर देती है रजाई,कम्बल,इत्यादि चादर पर पड़ी सिलवटों को सीधा कर देती है तकिये को हिला डुलाकर ज़िंदा कर देती है फिर रसोई में जाती है । रसोई में नज़रें दौड़ाते हुए अपनी थकान महसूस करते हुए वह सोचती है ऐसा क्या बनाऊं, जो जल्दी हो जाये, स्वाद भी हो, टिफ़िन नाश्ता सब हो जाये ! एक ख्याल गले लिपटता है, आज रहने देती हूँ... और तभी दूसरा ख्याल झकझोरता है बाहर से कुछ ढंग का मिलता नहीं, और और और के बीच कुकर की सीटी बज उठती है सब्जी,पराठे,पूरी,टोस्ट . . . खिलखिलाने,इतराने लगते हैं और एक स्त्री की थकान कम हो जाती है । ऐसी जाने कितनी दिनचर्या वह निभाती है इस निभाने में चुटकी भर खुद को भी जी लेती है कुछ लिख लेती है, पढ़ लेती है, टीवी देख लेती है, अपनों के संग ठहाके लगा लेती है ... ऐसी स्त्री किसी दिन कमरे की बेतरतीबी में चुप बैठी मिले, रसोई से कोई खुशबू न आये, चूल्हा ठंडा रहे, धूप के लिए पर्दा न हटे, ..... तब समझना, समझने की कोशिश करना कि वह थकी नहीं है, बीमार है - शरीर या मन से ! ऐसे में यह मत कहना, "क्या ? आज कुछ बनेगा नहीं ? सब बिखरा बिखरा है, समय देखा ?" बल्कि कंधे पर हाथ रखकर स्नेह से पूछना, "क्या बात है क्या हुआ?" मुमकिन है, वह उमड़ पड़े या एक स्पर्श से स्वस्थ हो जाये, खुद में खिली खिली धूप बन जाये ... स्त्री जिस रिश्ते में हो, उसकी पहचान को पहचानो, अर्थ दो, उसे मशीन मत मान लो या उसके करते जाने की क्षमता के आगे मुँह बिचकाकर यह मत कहो, "कह देती तो हम कर लेते . . ." ... तुम्हें तो कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती न ?

17 नवंबर, 2021

भगवान थे !


 



भगवान थे जब उसकी आँखों में मोहक सपने थे,
कभी राधा,मीरा
तो कभी किसी अल्हड़ सी बारिश को देखकर
उसके मन में बिजली कौंधती,
ठंडी,शोख़ हवायें बहतीं ...
जिस दिन सपने टूटे,बिखरे
बिजली गिरी,
हवायें दावानल हुईं,
भगवान तब भी थे ।
वह रोई,
फूट फूटकर रोई,
मन के सारे दरवाज़े बंद कर दिए,
भगवान को बेरुख़ी से देखा,
कागज़ पर दर्द उकेरने लगी ...
उस दिन भगवान ने धीरे से
दबे पांव एक सुराख़ बनाया
... एक महीन सी किरण,
उसके कमरे में चहलकदमी करने लगी,
धीमी हवा ने सर सहलाया,
हर उतार-चढ़ाव को शब्द दिया,
जो जिजीविषा बन उसकी हक़ीक़त बने
अहा,
भगवान उस वक़्त भी मौजूद थे
और प्रयोजन,परिणाम का ताना बाना बुन रहे थे ।
जिस दिन मंच पर उपमाओं से सुशोभित वह खड़ी हुई,
उसने महसूस किया सोलहवां साल...
उस दिन वह हीर बन गई,
अदृश्य पर मनचाहे रांझे को
रावी के किनारे
खुद की राह देखते खड़ा देख
उसने प्रेम को जाना
भगवान को माना
वह राधा से कृष्ण हुई और
कृष्ण से कृष्णा हो गई।
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12 नवंबर, 2021

आओ, मिलकर बढ़ें ...


 

रुको, रुको
मिलने पर,
मोबाइल पर,
अर्थहीन मुद्दों को दफ़न करो,
चेहरे की उदासी
आवाज़ के खालीपन में
एक छोटी सी मुस्कुराहट लेकर
एक दूसरे को महसूस करो ।

सूक्तियों को विराम दो,
अपनी अच्छाइयों,
अपनी सहनशीलता से ऊपर उठकर
अपने रिश्तों की गुम हो गई अच्छाइयों पर गौर करो,
अपने अहम को,
अपनी शिकायत को त्यागकर
बिना कुछ कहे
सर पर हाथ रखो
गले मिल जाओ
... शिकायतों के तीखे पकवान रखो ही मत !...

उम्र और समय का तकाज़ा है,
कि वे सारी शिकायतें
जो अपने बड़ों के लिए
मन के कमरों में रो रही हैं,
उन्हें तुम मत दोहराओ
इस क्रम को भंग करो !
रिश्तों का मान चाहिए
तो मान देने की पहल तो करो !

प्रश्न उठाने से क्या होगा ?
प्रश्न और उत्तरों की लड़ाई
महाभारत से कम नहीं ...
बड़ा रक्तपात होता है
इस लड़ाई में कुछ नहीं मिलेगा
दिन व्यर्थ बीत जाएंगे,
इन्हें व्यर्थ क्यों बीत जाने दें
हर पल अमोल है...
दिन बीत जाने से
मन में काई जमती जाती है
उसकी फिसलन,चोट
और थकान के अर्थ
गहराते जाते हैं !

जो दूसरों से ढूंढते हो,
वह करके देखो,
बंजर हो गए हैं जो अपने
उन सब पर
समय के कुएं के जल का
रोज़ थोड़ा छिड़काव करो
मोबाइल है हाथ में
एक प्यार भरा मैसेज रोज करके देखो
जवाब आएगा
वह अपना कॉल बेल नहीं
दरवाज़े की सांकल खटखटाएगा
ड्राइंग रूम की गद्देदार कुर्सियों को परे करके
ठंडी ज़मीन पर औंधे होकर
दुनियाभर की बातें करेगा ।

शिकायतों के भय से
खुद तो उबरो ही,
औरों को भी उबारो
चाहते हो फिर से जीना
तो वे दीवारें
जो तुमने उठाई हैं
और हमने भी,
उन्हें गिराना है ...
रिश्तों की मज़बूत लौह सलाखें
कब से यों ही अनाथ सी पड़ी
जंग खा रही हैं
साथ आकर उसे हटाओ
एक ईंट हम निकालें
एक ईंट तुम निकालो
ऐसा करो
यदि प्यार है,
मिलने की शेष चाह है,
रिश्तों की अहमियत के चूल्हे में
आँच बाकी है तो...
...
समय समाप्ति का पर्दा गिरे
उससे पहले,
गलतफहमियों के बेरंग पर्दे
उतार कर फेंक दें !
आओ,
मिलकर बढ़ें ...
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06 अक्तूबर, 2021

हम आज भी वहीं खड़े हैं


 

हम आज तक वहीं खड़े हैं
जहां जला दी जाती थी बहुएं
घर का सारा काम 
उनके सर पर डाल दिया जाता था
 नहीं मिलता था उन्हें समय पर खाना
नहीं इजाज़त थी उनको
बिना नहाए रसोई में जाने की
मायके से किसी के आने पर
उल्लास से दौड़ने की . . .

हममें से ही कुछ स्त्रियों ने 
अपनी आंखों की गंगा को लुप्तप्रायः कर दिया
समाज हिकारत से कहने लगा,
पागल हो गई है औरत,
जिसके व्यवहार में पानी नहीं
वह घर के पानी का अर्थ क्या समझेगी
जब पति की भूख प्यास का ख्याल नहीं
तब इससे कोई और क्या उम्मीद रखेगा !
भीड़ से निकलकर किसी एक ने
जब आंखों की गंगा का आह्वान किया
सम्मान के दीये जलाए
तब उस स्त्री की आंखों से 
बमुश्किल निकली कुछ बूंदों ने
चेहरे पर उभरी सुकून की एक रेखा ने
उसे चरित्रहीन' सिद्ध किया ।

गंगा और गाय बनी स्त्री ने 
स्वयं में स्थित दुर्गा का आह्वान किया
और करने लगी संहार ...
जग जानता है,
जब भी कोई शक्ति उभरी है
तो उसके साथ विकृत
बुरी शक्तियां भी उभरी हैं
... वही हुआ ...
चतुर स्त्रियों ने उन स्त्रियों को जलाना शुरू किया,जो हित में खड़ी हुई थीं,
सही पुरुषों से जवाब मांगने लगीं
यह काम हम ही क्यों ?
की जगह
सारे काम तुम करो की गर्जना करने लगीं ।
दुर्गा ने रक्त पान किया था
इन स्त्रियों ने सारी वर्जनाएं तोड़ डालीं
रक्त के साथ मदिरा का सेवन किया
पुरुष सिर्फ क्यों" के हाहाकारी प्रश्नों के साथ
वह किया
कि पीड़ित स्त्रियों ने अपना दरवाज़ा बन्द कर दिया ।
सही गलत के मंथन में
विष निकला
और मनुष्य ने विष ले लिया
पूरे परिवार को पिला दिया
और अब वह अपने निर्मित दम्भ भरे महल में
पत्थर होता जा रहा है ।

इस धू धू जलते चक्रव्यूह में
एक प्रश्न है,
जब एक पुरुष स्त्री वेश धरकर
बिंदी,सिंदूर,चूड़ी,साड़ी पहनकर 
बाहर निकलता है
तो कोई उसे पुरुष नहीं कहता
फिर पुरुष के वेश में घूमनेवाली स्त्रियों को
स्त्री क्यों मान लिया जाए !!! 
शायद यही वजह है,
कि कुछ अपवादों को छोड़कर
हम आज भी वहीं खड़े हैं
जहां स्त्रियों को अपने अस्तित्व के लिए
अपनी सहनशीलता,विनम्रता से युद्धरत होना पड़ता है,
आगत की जमीन पर 
कुछ संदेशों के बीज डालने होते हैं
और शब्दों की अग्नि में
शब्दों का घी डालना पड़ता है ...

23 सितंबर, 2021

उसी की अदृश्य शक्ति


 


जब कभी' मंदिर गई हूं
और अगर भीड़ न हुई
तो ईश्वर को अपलक देखकर
मन ही मन बहुत कुछ कहकर
लौटी हूं ।
सिद्धि विनायक में
गणपति के मूषक के कान में
अपनी चाह बोलते हुए
ऐसा लगा है
कि गणपति तक बात चली गई
और जब बात चली गई
तो देर कितनी भी हो जाए
अंधेर की गुंजाइश नहीं रह जाती !
शिरडी की भीड़ में
जब अचानक साईं दिखे थे
तो आंखों से आंसू बह निकले थे
...
यूँ मैं मंदिर कम ही जाती हूं
विश्वास है
कि ईश्वर मेरे पास,मेरे साथ हैं
और ऐसे में जाना 
लगता है कि उनकी ही इच्छा होगी ...

दरगाह में धागा बांधते हुए
मैं धागा बन जाती हूं
धागे में दुआ मतलब
मुझमें दुआ ...
तो धागे संग दुआ बांधती हूं
और दुआओं के साथ 
खुद बंधती चली जाती हूं ।

स्वर्ण मंदिर गई
तो उसके निकट
अपने आप में एक अरदास बन गई हूं
कड़ा लेकर ऐसा लगा
जैसे मेरा मन ही स्वर्णिम हो गया हो ।

महालया के दिन
पूरी प्रकृति माँ दुर्गा बन जाती है
कलश स्थापना करते हुए
मिट्टी में जौ मिलाते हुए
यूँ महसूस होता है कि
मैं मिट्टी से एकाकार हो रही हूं
और चतुर्थी से हरीतिमा लिए
 नौ रूप का शुद्ध मंत्र बन जाती हूं ।
अखंड दीये का घृत बन
स्वयं में एक शक्ति बन जाती हूं ।

सुनकर आप विश्वास करें
ना करें
मुझे कवच,कील,अर्गला, तेरह अध्याय
और क्षमा प्रार्थना में 
जीवन का सार मिल जाता है
और हवन के साथ
मैं मंदिर मंदिर गूंज जाती हूं
यज्ञ की अग्नि में
रुद्राभिषेक के जल में
मैं खुद कहाँ नहीं होती हूं !

मैं मंदिर
मैं गिरजा
मैं गुरुद्वारा ...
कैलाश से गुजरती हवाओं में मैं हूं
जहां जहां से मुझे पुकारा है
वहां वहां मैं रही हूं
और रहूंगी ... 
उसकी ही तरह
उसकी शक्ति - सी
अदृश्य पर सर्वदा !!!

19 सितंबर, 2021

स्त्री लिपि


 

मनुस्मृति के पन्नों पर
एक श्रद्धा थी स्त्री लिपि
जो मनु की ताकत बन पहुंची थी
उसके उद्विग्न मन के आगे,
 थमाई थी उसे अपनी जीवनदायिनी उंगली
और प्रकृति के कण कण में मातृरूप लिए
 हवाओं की छुवन को आत्मसात किया था ।

विश्वास था उसे,
अब कोई प्रलय नहीं आएगा
तभी उसने युगों का आह्वान किया
यज्ञ कुंड बनी
वृंदा बन हर आंगन पहुंची ... 
पर नियति निर्धारित झंझावात में
वह प्रश्न बनकर प्रवाहित होने लगी,
एक नहीं,दो नहीं
जाने कितने कटघरे बन गए
और स्त्री लिपि वर्जित हो गई ।

उसे विध्वंस का कारण बना दिया गया
उसके शुभ कदमों को रोकने,जलाने के उपाय होने लगे,
कन्या पूजन के नाम पर
माँ दुर्गा को छला जाने लगा
कन्या के जन्म से पूर्व ही
उसे मृत्युदंड दिया जाने लगा ...

अनगिनत घरों से दुर्गंध आने लगी
तब पुनः स्त्रियों ने अपने अस्तित्व को संवारा
खुद को मशाल बना 
खुद को खुद में लिपिबद्ध करने लगी
स्पष्ट शब्दों में लिखा,
नारी तुम केवल श्रद्धा नहीं हो
मनु को जीवन देनेवाली
उसे अर्थ देनेवाली संजीवनी हो ।

परोक्ष का मौन,
तुम्हें कमज़ोर बनाता गया है
उस मौन की कारा से बाहर निकलो,
अपना पूजन स्वयं करो
अपनी शक्ति से अपना अभिषेक करो
और चण्डमुण्ड,रक्तबीज,महिषासुर का
वध करो,
किसी भी युग के आह्वान से पहले
खुद का आह्वान करो ...



14 सितंबर, 2021

नज़रिए का मोड़


 

बात सिर्फ नज़रिए की है
कौन किस नज़रिए से क्या कहता है ,करता है
कौन किस नज़रिए से उसे सुनता,और देखता है
और इन सबके बीच 
एक तीसरा नज़रिया
उसे क्या से क्या प्रस्तुत कर देता है,
जाने क्या मायने रखता है सबके लिए !!!

ईमानदारी बहुत कम है दोस्तों,
कुतर्कों की अमर बेल तेजी से फैल रही है...
आलीशान घर हो या फुटपाथ
सबके पास एक मोबाइल है
और मोबाइल पर - क्या नहीं है !

गली गली, हर मोड़ पर
अजीब अजीब विचार और व्यवहार तैर रहे हैं,
जो नहीं तैर पाया उनके साथ
वह डूब गया ।
कोई डूबना नहीं चाहता
ऊपर रहने के लिए बगैर कपड़ों के भी आना पड़े
तो यह उनका नज़रिया है,
व्यक्तिगत मामला है ।

... मैं सोचती रहती हूं
डुबो या तैरो
आखिर कब तक !!!
एक दिन वही शमशान होगा
वही चिता होगी
या कोई अनजान जगह ...
जहां खोकर पता भी नहीं चलेगा !

कभी कभार चर्चा होगी,
जब तक कोई जाननेवाला है
उसके बाद कहानी 
कब, कैसे कैसे मोड़ लेगी
अनुमानों की चपेट में आएगी

कौन जाने !!!

13 सितंबर, 2021

जर्जर परंपरा तोड़ दो


 



स्त्रियां निर्जला व्रत प्यार का प्रतीक मानती हैं
पति,बच्चों के लिए ...
ऐसा करके वे खुद को मान लेती हैं सावित्री
और दृढ़ माँ !
अनादि काल से ऐसा देखते देखते 
पुरुषों ने,बच्चों ने मान लिया
कि उनकी पत्नी
उनकी माँ - सबसे जुदा हैं ।
गर्व से कहते हैं सब,
"बिल्कुल कुछ नहीं लगा ...!"

न लगने की यूँ कोई उम्र नहीं होती,
पर वह उम्र -
जब दवा के सहारे जीने लगता है आदमी,
तब खुद को सबसे जुदा रखने के लिए
खुद के लिए सोचना चाहिए,
सोचना चाहिए पति और बच्चों को
कि पानी बगैर रहना
सारी व्यवस्था करके पूजा पर बैठना
सर्कस का सबसे बड़ा खतरनाक खेल है
उंगली थमाते थमाते अचानक
ईश्वर भी हतप्रभ हो उठते हैं 
और कहने को रह जाता है एक ही वाक्य,
"नहीं करती तो कुछ हो जाता, "
...... 
ईश्वर कहें या आप,
पर रो रोकर 
दबी आवाज़ में 
बार बार यह कहने से अच्छा है
इन प्रश्नों और
व्यर्थ टिप्पणियों के चक्रव्यूह से 
बाहर निकलें
मन को गंगाजल कर लें
और मानसहित कहें -
"बहुत हुआ, अब रहने दो
हमारे लिए है ना 
तो हम कहते हैं, 
आज हमें कहने दो -
तुम स्वयं दुआओं का कलश हो 
जिसके जल से हम रोज़ नहाते हैं
तुम्हारी आंखों के गोमुख से 
जिस जाह्नवी की धारा बहती है
उसमें प्रतिपल भीग जाते हैं 
तुम्हारे अंतर का पूजागृह 
जिसके कपाट
कभी बंद ही नहीं होते हैं
तुम्हारी बातें हैं हर की पौड़ी 
जहां सुबह शाम उतर कर 
हम अपने सारे कष्ट धोते हैं 
तुममें सांस लेता है हर व्रत,
हर मंदिर, हर तीर्थस्थल 
तुमसे पावन नहीं हो सकता 
कोई पुरी या रामेश्वरम
या गंगासागर,
कोई कैलाश मानसरोवर
या मुक्तिदायिनी
भागीरथी का जल... 
तुम्हारा है हमारे भीतर वास
जर्जर हो रही इस परंपरा को
तोड़ दो
अब छोड़ भी दो 
ये निर्जला व्रत
यह उपवास।"

03 सितंबर, 2021

बरसाने की राधिका


 


साठ की कुछ सीढ़ियां चढ़ तो गई है वह स्त्री,

लेकिन वह उम्र और कर्तव्यों का
एक ढांचा भर है !
प्रेम उसका सपना था
प्रेम उसकी ख्वाहिश थी
अपनी पुरवा सी आंखों में
उसने प्रेम के बीज लगाए थे
 प्रेम की सावनी घटा बनकर
धरती के कोने कोने में 
थिरक थिरक कर बरसी थी।
इंद्रधनुष के सातों रंग
उसके साथ चलते थे,
गति की तो पूछो मत
हिरणी भी हतप्रभ हो दांतों तले उंगली दबाती थी  ।
ख्यालों में उसके कोई देवदार सा होता
और वह अल्हड़ लता सी
उससे लिपट जाती थी,
प्रेम का अद्भुत नशा था
अद्भुत उड़ान थी
कब वह कैक्टस से उलझी
कब उसके पंख टूटे
जब तक वह समझे
संभले 
वह दो उम्र में विभक्त हो चुकी थी,
एक प्रेम
एक मौन कर्तव्य !
मौन कर्तव्यों की यात्रा में
उसके चेहरे पर 
कब थकान की पगडंडियां उगीं
कब बालों का रंग मटमैला हुआ
कब पैरों के घुटने समाधिस्थ हुए
उसे खुद भी पता नहीं चला ।
तस्वीरों में
आईने में कई बार
खुद को ही नहीं पहचान पाई है
क्योंकि ख्वाबों में आज भी वह 
विद्युत गति से नृत्य करती है
अनिंद्य सुंदरी बन
अपनी पलकों को झपकाते हुए
प्रेम के शोखी भरे गीत गाती है 
सुनती है -
रावी और चनाब के किनारे
उसके नाम की तरंगें उछालते हैं 
एक उसे हीर कहता है 
एक अपनी सोहणी बताता है 
और दोनों किनारों के 
दरमियान खड़ा 
एक जवां अधीर साया 
उसके कानों में गुनगुनाता है 
"जलते हैं जिसके लिए
तेरी आँखों के दीये .."
इसे सुनकर, रोमांचित होकर 
वह ज़िंदगी के दरवाज़े पे लगे 
खामोशी के ताले खोलती है 
मुस्कुराते  हुए 
पड़ोसी दिल से बोलती है  ... 
"वह गोकुल का छोरा 
नटखट ग्वाला 
नंदलाला  ... 
युग बदले 
पर वह 
कण भर भी नहीं बदला  ... 
तो मैं आज भी 
बरसाने की 
राधिका ही हूं ना !


30 अगस्त, 2021

मैंने देवकी और यशोदा को ही जिया है


 



कृष्ण को सोचते हुए, 
मैं कभी राधा नहीं हुई,
न सुदामा, न सूरदास,न ऊधो ...
मैंने देवकी और यशोदा को ही जिया है,
लल्ला को गले लगाकर दुलारा है
बरसों का रुदन दबाए बिलखी हूँ ।
मैं बस माँ रही ...
क्या करती अपने ही कान्हा से गीता सुनकर
उसके मुख में ब्रह्माण्ड देख
उसे याद क्या रखना था,
मुझे तो बस भोली माँ बन
उसकी बाल लीलाओं से आनन्दित होना था
अन्यथा सच तो यही है
कि मुझ देवकी के 
सांवरे सलोने लाल ने
गीता का ज्ञान
मेरे गर्भ में लिया 
मेरे आंचल की छांव तले ब्रह्माण्ड को आत्मसात किया
उसे जगत कल्याण के निमित्त
ज्ञान का आगार बनना था,
मुझे अज्ञान के हिंडोले में
पेंग मारते हुए,
उसे अपलक देखते
विदा करना था
और सूने कक्ष में बैठ
उसकी मोहिनी सूरत को
स्मरण करना था
मगर ...
उस जैसा ज्ञानेंद्र
अज्ञानी जननी की
कोख से जन्मे
क्या कभी संभव है !
सात पुत्रों की नृशंस हत्या के आगे भी
मैं आठवें के विश्वास से परे नहीं हुई
ऐसे में,
प्रकृति के सारे सामान्य नियम बदलने ही थे !
कारा की कठोर धरती
और लौह बेड़ियों ने
मुझे स्वयं से
कई गुना कठोरतर बनाया
और चौदह वर्षों के लिए
मेरी आत्मा को यशोदा की आत्मा से बदल दिया ।
यशोमति का तन
देवकी का मन 
कान्हा का भरण पोषण
मैंने अपने लाल को 
यशोदा के हाथों से
माखन सा निर्मल,कोमल,और स्वाद से भरा बनाया
माथे मोरपंख लगा 
पैरों में मोर के नृत्य की गति दी
काठ की बांसुरी देकर शिक्षा दी
कि चाह लेने भर की देर होती है
पत्थर को भी सजीव किया जा सकता है
मनोबल हो तो 
गोवर्धन को उंगली पर उठाया जा सकता है !

एक सत्य और बताऊं,
लल्ला का सुदर्शन चक्र
हमदोनों मायें थीं
हमने उसे कभी भी
कहीं भी
अकेला और निहत्था नहीं किया
अभिमन्यु और कर्ण की मृत्यु पर
जब वह बिलखा था
उसके सारे आंसू हमने आँचल में बटोर लिए थे
 
... आज कृष्णा का जन्मदिन है
मुझ देवकी को पीड़ा सहनी है
बाबा वासुदेव को यमुना पार करना है
नन्द बाबा को उनकी गोद से कान्हा को लेकर
यशोदा का लाल बनाना है
फिर से गोकुल,वृंदावन,मथुरा,द्वारका को दोहराना है
आततायियों का नाश करना है
...
उससे पहले हमारे लाल को
जरा जरा माखन खिला दो
और जमकर उसका जन्मोत्सव मनाओ ...

23 अगस्त, 2021

रिश्तों का हवाला नहीं होता




जब हर तरफ से उंगली उठती है
तो बड़ी घबराहट
अकबकाहट होती है
लेकिन उस बेचैन स्थिति में भी
सारथी बने हरि साथ होते हैं
मन के रूप में ।
मन कहता है,
लौट यहां से
अभी इसी वक्त
स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं
पता तो है तुझे
कि बात जब स्पष्टीकरण पर आ जाए
तो मानो,तुम गलत हो चुके हो
कुछ भी कहना जब समय की मांग नहीं,
तो बेहतर है एक लंबी ख़ामोशी
और ख़ामोशी की प्रतिध्वनि में
अपने 'अति' का मूल्यांकन !
. . .
मूल्यांकन करो,
तीव्रता से महसूस करो उन पलों को,
जहां से तुम्हें नियत समय पर हट जाना चाहिए था
न कि उसकी अवधि बढ़ाकर
रिश्तों का हवाला देना था ।
रिश्तों का कोई हवाला नहीं होता
गर हो तो बेहतर है 
इस हाले की घूंट से दूर
उस मधुशाला में जाओ
जहां तुम खुद को मिल सको
खुद को पा सको ।

19 मई, 2021

सुना तुमने ?


 

सुना तुमने ?
गणपति ने महीनों से मोदक को हाथ नहीं लगाया है
माँ सरस्वती ने वीणा के तार झंकृत नहीं किये
भोग से विमुख हर देवी देवता
शिव का त्रिनेत्र बन
माँ दुर्गा की हुंकार बन
दसों दिशाओं में विचर रहे ...
फिर नीलकंठ बनने को तत्पर शिव
देव दानव के मध्य
एक मंथन देख रहे
विष निकलता जा रहा है
शिव नीले पड़ते जा रहे हैं
माँ पार्वती ने अपनी हथेलियों से
विष का प्रकोप रोक रखा है
मनुष्य की गलती की सज़ा
मनुष्य भोग रहा है
अभिभावक की तरह अश्रुओं को रोक
देवी देवता अपने कर्तव्य को पूरा कर रहे
रात के सन्नाटे में
शमशान के निकट
उनकी सिसकियां ...
सुनी तुमने ???

28 अप्रैल, 2021

हमारा देश जहाँ पत्थर भी पूजे गए !


 


 


 हमारा देश
जहाँ पत्थर भी पूजे गए !

 
जाने किस पत्थर में अहिल्या हो
कहीं तो जेहन में होगा
जो हमीं ने पत्थरों में प्राणप्रतिष्ठा की
फूल अच्छत चढ़ाए
और सुरक्षित हो गए ।


बड़ों के चरण हम झुककर
श्रद्धा से छूते थे
कि उनका आशीर्वचन
रोम रोम से निकले
और ऐसा हुआ भी
और हम सुरक्षित हो गए ।


स्त्री के लिए हमने एक आँगन बनाया
जहाँ वह खुलकर सांस ले सके
अपने बाल खोल
धूप में सुखाए
आकाश से अपना सरोकार रखे
चाँद को रात भर देखे
स्त्री खुश थी
संतुष्ट थी
बाधाओं में भी उसके आगे एक हल था
जिसे संजोकर
हम सुरक्षित हो गए ।


फिर एक दिन हमने अपनी आज़ादी का प्रयोग किया
बोलने की स्वतंत्रता को
स्वच्छंदता में तब्दील किया ...
हमने पत्थर को उखाड़ फेंका
अपशब्द बोले
और उदण्डता से कहा,
"अब देखें यह क्या करता है !"


बड़ों के आगे झुकने में हमारी हेठी होने लगी
चरण स्पर्श की बजाय
हम हवा में घुटने तक हाथ बढ़ाने लगे
प्रणाम करने का ढोंग करने लगे
बड़ों ने देखा,
महसूस किया
उनके आशीर्वचनों में उनकी क्षुब्धता घर कर गई
. .. सिखाने पर हमने भृकुटी चढ़ाई
उपेक्षित अंदाज में आगे बढ़ गए
घने पेड़ की तरह वे भी धराशायी हुए
हम फिर भी नहीं सचेत हुए !


आँगन को हमने लगभग जड़ से मिटा दिया
जिस जगह पुरुष द्वारपाल की तरह डटे थे
वहाँ स्त्रियाँ खड़ी हो गईं
उनकी सुरक्षा में खींची गई
हर लकीर मिटा दी गई
हम भूल गए कि कराटे सीखकर भी
एक स्त्री
वहशियों की शारीरिक संरचना से नहीं जूझ सकती !!!
दहेज हत्या,कन्या भ्रूण हत्या,...
हमने स्त्रियों का शमशान बना दिया
और असुरों की तरह अट्टहास करने लगे
माँ के नवरूप स्तब्ध हुए
जब उनके आगे कन्या पूजन के नाम पर
कन्याओं की मासूमियत दम तोड़ गई
कंदराओं में सुरक्षा कवच बनी माँ
प्रस्थान कर गईं !
गंगा,यमुना,सरस्वती ... कोई नहीं रुकी !


उसका घर मेरे घर से बड़ा क्यों?
उसकी गाड़ी मेरी गाड़ी से कीमती क्यों?
और बनने लगा करोड़ों का आशियाना
आने लगी करोड़ों की गाड़ियां
ज़रूरतों को हमने
इतना विस्तार दे दिया
जहाँ तक हमारी बांहों की
पहुँच नहीं बनी
पर हमने
उसे समेटने की कोशिश नहीं की
उस नशे ने हमें आत्मघाती बना दिया
फिर हम ताबड़तोड़
आत्महत्या करने लगे ।


अति सर्वत्र वर्जयेत"
 इसीके आगे आज हम असहाय,
निरुपाय ईश्वर को पुकार रहे ।
पुकारो,
वह आएगा
लेकिन मन के अंदर झांक के पुकारो
लालसाओं से बाहर आकर पुकारो
पुकारो,पुकारो
ईश्वर ने सज़ा दी है
कठोर नहीं हुआ है"
इस विश्वास के साथ अपने संस्कारों को जगाओ
फिर देखो - वह प्रकाश पुंज क्या करता है ।


08 मार्च, 2021

महिला दिवस


 


इतिहास गवाह है,
विरोध हुआ 
बाल विवाह प्रथा का 
सती प्रथा का 
दहेज प्रथा का
कन्या भ्रूण हत्या का
लड़कियों को बेचने का
उनके साथ हो रहे अत्याचार का ...
पुनर्विवाह के रास्ते बने
लड़का-लड़की एक समान का नारा गूंजा
सम्मान के नाम पर 
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस निर्धारित हुआ
लेकिन,
कुछ अपवादों को छोड़कर
हर क्षेत्र में उठ खड़ी होने पर भी
महिलाओं के प्रति
न सोच बदली
न स्थिति
शिक्षित होने पर भी
नसीहतों की ज्वाला में
उसे जलना पड़ता है ।
स्वेच्छा से विवाह - 
तो स्वच्छन्द !
आत्मनिर्भरता के परिणामस्वरूप
परिवार के लिए देर से लौटी
तो कलंकिनी !
व विवाह नहीं किया
तो लानत,
विवाह नहीं टिका
तो मलामत ।
पति अत्याचारी
तो भी उलाहना
अकेली किसी के साथ हँस बोल लिया
तो मिथ्यानुमानों के संदेह  !
बच्चों के लिए
सम्पूर्णतः उसकी जिम्मेदारी 
एक कप सुबह की चाय पति ने दे दी
तो कटाक्ष करने से 
अधिकांश लोग पीछे नहीं हटते !
'दिवस' मनाना
और हृदय से सम्मान देना
दो अलग स्थितियाँ हैं !
नवरात्रि हो
या महिला दिवस
स्थिति जो कल थी
वही लगभग आज भी है
और कल भी होगी ।

03 मार्च, 2021

चाहा तो ऐसा ही था !


 














"पुष्प की अभिलाषा" से मेरा क्या वास्ता था अपनी तो बस एक चाह थी छोटी सी पर बहुत बड़ी ... कि मैं बनूं, अल्हड, अगराती पुरवा का बेफिकर, बेखौफ, बिंदास झोंका दरवाज़ा चाहे जिसका भी हो, उसकी सांकल खटखटा दूं और दरवाज़े के खुलते ही जब तक कोई संभले, शैतान बच्चे की तरह - करीने से रखी सारी चीज़ें बिखेर दूं, मेरी धमाचौकड़ी से जो मचे अफरातफरी...सामान सहेजने की तो मैं शोखी का जामा पहनकर ज़ोर से खिलखिलाऊं ! बन जाऊं --- केदार की बसंती बंजारन जायसी की कलम से निकला वो भ्रमर, वो काग कालिदास का मेघ प्रियतम का संदेश सुनाता, गाता मेघराग पहाड़ों के कौमार्य में पली वादियों के यौवन में ढली शिवानी की अनिंद्य सुंदरी नायिका ! ......... बारिश ठहरने के बाद आहिस्ता आहिस्ता टपकती बूंदों की नशीली आवाज़ की तरह, मिल जाए कोई इश्क - सा ! पकड़ ले मेरा हाथ और कहे, ' थम भी जा बावरी ! थक जाएगी, आ, थोड़ा बैठ जा चल मेरे संग एक प्याली चाय आधी- आधी पी लें ... पर ज़रा रुक, मैं बंद कर लूं खिड़कियां वरना निकल जाएगी तू ! ...... बता तो सही, नदी, नालों, पहाड़ों को पार करते सुदीर्घ यात्रा तय कर हंसिनी सी, मानसरोवर के तीर जा पहुंचती है ..... क्या तलाश रही है ? खुद को ? मिल जाएगी क्या ऐसे ? खुद से ? अकेली ही ? ' और मैं ! पुरवा का परिधान उतार कर उस माहिया, उस रांझणा के पन्नों पर स्याही सी बिखर जाऊं ..... मेरे अंदर की पुरवाई ने चाहा तो ऐसा ही था !

01 मार्च, 2021

अटकन चटकन


 

विरासत में पिता से मिली कलम, वंदना अवस्थी ने उसे सम्मान से संजोया ही नहीं, ज़िन्दगी के कई सकरी गलियों में घुमाया, कहीं रुदन भरा,कहीं हास्य,कहीं घुटन,कहीं विरोध और अपनी खास दिनचर्या में इसकी खासियत को बड़े जतन से शामिल किया । "बातों वाली गली" से गुजरकर, आज अटकन चटकन की गलियां हैं, जिसमें सिर्फ सुमित्रा,कुंती ही नहीं, किशोर,छोटू,रमा,जानकी,छाया, ... जैसे विशेष पात्र भी हैं, और लेखिका ने किसी को अपनी कलम से अछूता नहीं रखा है ।

अछूता तो लेखिका ने कुंती के दूसरे पक्ष को भी नहीं रहने दिया, वरना अक्सर लोग सिर्फ बुराइयों में लगे रहते हैं । हाँ तो कुंती सुमित्रा के बच्चों को बहुत प्यार करती थी और स्वयं सुमित्रा की जो इज़्ज़त उतार दे, पर मज़ाल थी किसी की जो उसके आगे सुमित्रा के बारे में कटु शब्द बोलकर निकल जाए । 

ख़ैर, उम्र की सांझ के करीब आते आते जीवन की गहरी सच्चाइयां कुंती के आगे अकेलापन बनकर आई । सबसे इतना बुरा व्यवहार किया कि सब उससे दूर हो गए, जुड़ाव दिखाया भी तो मतलब से ! एक बच्चा भी उसके निकट खेलने से कतराता था । और ऐसे सन्नाटे में, समय से लगे तमाचे की आवाज़ में कुंती को अपना हर गलत किया दिखने लगा । परिचित तो वह पहले भी थी, पर तब उम्र की धौंस थी । उसने सुमित्रा के साथ जो किया, उसके पछतावे में वह सुमित्रा के पास ही गई, क्षमा नहीं मांगा, पर अपना दिल उसके आगे ही उड़ेलकर रखा । 
सुमित्रा ने ही मन लगाने का रास्ता दिखाया ... शिक्षा तो उनके घर की नींव थी, सो बच्चों को शिक्षा देना और इसीसे ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने का सिलसिला शुरू हुआ और जीवन की समाप्ति से पूर्व कुंती ने प्रायश्चित भी कर लिया, "सुमित्रा शिक्षा निकेतन" खोलकर ।


.....समाप्त ।

26 फ़रवरी, 2021

अटकन चटकन


सब दिन न होत न एक समान"... कुंती के कर्मों से शर्मिंदा होकर समय ने बहुत कुछ बदल दिया और इसी बदलाव ने कुंती को बहुत कुछ सोचने पर बाध्य किया । 

केंद्र में सुमित्रा को रखकर कुंती ने न सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा, बल्कि बदजुबान होती गई । बच्चों के साथ भी वह जीतने की कोशिश में लगी रही, जीत भी मिली, पर जब मात होने का मंजर शुरू हुआ तब कुंती अकेली पड़ गई । बड़ी बहु जानकी का आना, उसके द्वारा ग़लत का विरोध करना, समस्याओं से जूझने के लिए पीपल वाले बाबा को ढाल बना लेना एक बहुत स्वाभाविक घटना है । खुद लेखिका ने भी माना है कि ऐसा होता है, होने के पीछे की मनःस्थिति गौर करने की है । सुमित्रा के आगे जानकी स्वीकार भी करती है, और सुमित्रा मानती है कि कुंती के साथ यह सही उपाय है । 
क्योंकि यह एक सच्ची कहानी है तो यह तो सिद्ध होता है कि खुद लेखिका ने इसे रूबरू देखा या सुना है (मेरी समझ से) । और देखने-सुनने में हमसब एक अनुमान, आगे पीछे की शत प्रतिशत सच्ची,झूठी विवेचना से गुजरते ही हैं - सबसे अहम होता है, प्रत्यक्ष में घटित घटनाएं और उसका दिलोदिमाग पर प्रभाव । यह प्रभाव का ही असर है कि लेखिका ने उस मीठे बुंदेली भाषा को भी उकेरा है, जो सुमित्रा-कुंती-रमा-जानकी वगैरह  के मध्य हुआ, जो सहजता से पाठकों को छूता है, एक रोचकता का एहसास देता है । 

क्रमशः
 

 

24 फ़रवरी, 2021

अटकन चटकन


 


कुंती सुमित्रा की बहन रह ही नहीं सकी । उसके जीवन का एक ही उद्देश्य रह गया था, सुमित्रा का अपमान, उसको सबके आगे ग़लत साबित करना । सुमित्रा की अच्छाइयों की अति ने सुमित्रा को हर बार रुलाया,उसे रुलाने का माध्यम बनी कुंती, क्योंकि सुमित्रा की ऐसी स्थिति से उसे असीम सुख मिलता था । 
कहते हैं,एकांत का एक लम्हा भी आईना बनता है, मन मंथन से गुजरता है, स्व आकलन करता है ... ऐसी कहावत से कुंती का कोई सम्बन्ध नहीं था, पर अगर गम्भीरता से इस पर विचार किया जाए तो उसकी स्वभाव की उग्रता में घी का काम किया सुमित्रा की सहनशीलता ने । 
दिनकर की पंक्तियां मनमस्तिष्क में गूंजती हैं,

"क्षमा शोभती उस भुजंग को,जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन,विषहीन,विनीत,सरल हो"

शायद, (दावे से तो कुछ नहीं कह सकते) सुमित्रा ने उसका सच समय रहते उसके सामने कहा होता तो कुंती के मन में ग्लानि भले न होती, पर एक भय होता कि सुमित्रा चुप नहीं रहेगी । घर के बाकी सदस्य भी समझते थे, लेकिन पीछे में बोलकर या स्वभाव का पहलू स्वीकार करके कुंती को ज़िद्दी और असभ्य बना दिया । 
क्या कारण सिर्फ़ कुंती थी ?! ... ख़ैर, जो भी हो - अब तो धधकती अग्नि सबकुछ स्वाहा करने का दुःसाहस कर ही रही थी, जिसे अपनी जेठानी बनाकर सुमित्रा ने ख़ुद अपने घर को तबाह कर लिया ।


क्रमशः


19 फ़रवरी, 2021

अटकन चटकन


 



पहली बार जब यह नाम "अटकन चटकन" मेरी आंखों से गुजरा, लगा कोई नाज़ुक सी लड़की अपने दोस्तों के साथ चकवा चकइया खेल रही होगी ... सोचा,बचपन की खास सन्दूक सी होगी कहानी । शब्दों को, गज़लों को,किसी वृतांत को ज़िन्दगी देनेवाली वन्दना अवस्थी दूबे ने कोई जादू ही किया होगा, इसके लिए निश्चिंत थी । फिर भी आनन-फानन मंगवाने का विचार नहीं आया । 

फिर आने लगे प्रतिष्ठित लोगों के विचार और उन विचारों ने कौतूहल पैदा किया, इस कहानी की मुख्य पात्रों से मिलने की उत्कंठा ने बेटी से कहा, "जरा ऑर्डर दे दो तो" ... ।
और, किताब मुझ तक आ गई, आवरण चित्र ने कहा - शनैः शनैः पढ़ना तभी समझ सकोगी दो विपरीत स्वभाव की बहनों को, जो दो छोर पर नज़र आती क्षितिज बनी रहीं ।
शुरुआत के पन्नों को एक नहीं कई बार पढ़ा ... बचपन से जो हुआ उस पर गौर किया । क्या कुंती ईर्ष्यालु थी ? या लोगों के द्वारा किये गए फ़र्क ने उसे उच्श्रृंखल बनाया ! सुमित्रा का स्वभाव भी लोगों की देन रहा । उसका खुद में सिमट जाना, परिस्थिति से अनजान होने का उपक्रम करती कुंती को स्नेह देने का उसके मन का वह दर्द था, जो कुंती की उदासी को बर्दाश्त नहीं कर पाता था । लोगों द्वारा तुलना किये जाने का भय, यदि कुंती को आक्रोशित करता था तो सुमित्रा को सोने नहीं देता था । 
कुंती के स्वभाव की चर्चा आसान है, परन्तु लोगों के गलत व्यवहार ने उसे बचपन से चिढ़ने का कारण दिया, बड़ी बहन के विरुद्ध खड़ा किया - इसे हंसकर टाला नहीं जा सकता । एक चेहरे के प्रति यह रवैया कितना खतरनाक होता है, इस कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है, समझने की ज़रूरत है ।
रंग रूप में भेद करते हुए घर के,आसपास के लोगों ने कुंती के मन को खतरनाक बना दिया, उसका उद्देश्य ही रहा - सुमित्रा का अपमान ! जबकि सुमित्रा की सारी सोच कुंती के प्रति थी, कुंती की पसंद,कुंती का सुख ... लेकिन कुंती का मन मंथरा हो चुका था, यूँ कहें कैकेई !


क्रमशः


17 फ़रवरी, 2021

अटकन चटकन और लेखिका वंदना अवस्थी









 




कहानी या कविता या और किसी विधा में लिखित दस्तावेज़, हैं क्या ? सब सामान हैं, पड़ाव हैं, हमसफ़र हैं - कलम की यात्रा में और इस यात्रा में राहगीरों की कमी नहीं है, हज़ारों आए, आते हैं और अपने शब्दों में अपनी नजर छोड़ जाते हैं... जहां से पाठक उसे उठाते हैं, उसमें झांकते हैं...फिर उनका मन हर राहगीर के साथ सहयात्री बन चलने लगता है, उसकी नजर और नज़रिये को पूरी शिद्दत से पढ़ने और समझने लगता है। इसी समझ की चाक पर राहगीर यानी रचनाकार की पहचान गढ़ी जाती है, उसकी छवि बनने लगती है, उसके ख्यालों की बारीकियां बिंब से प्रतिबिंब बनती हैं और उसकी कलम की बेल परवान चढ़कर आबोहवा को जीवन का दान देती है।

अटकन-चटकन की कथाकार वंदना अवस्थी की जीवनदायिनी कलम के सौजन्य से चटकी रचना है अटकन-चटकन, जिसको मैं एकबारगी नहीं पढ़ सकी क्योंकि मुमकिन  नहीं था। इसके हर पात्र के सम्मोहन से बंध जाती थी मैं और उस मोहपाश को काटकर  आगे बढ़ना मुश्किल होता था क्योंकि हरेक मुझे अलग - अलग सोच की गहरी नदी में गोते लगाने के लिए छोड़ देता था।

कथाकार कुछ नहीं होता जब तक कथा की गलियों से पढ़ने वाले नहीं गुजरते, पर गुजरने के बाद कथा दूसरे सोपान पर जाती है और प्रथम सोपान पर कथाकार का राज्य बनता है। अपनी साकेत नगरी की बड़ी कुशल और गंभीर महिषी हैं वंदना अवस्थी जी जिनकी कलम ने कथा के हर दृश्य को यों जीवंत कर दिया है कि घटना और घटनास्थल भी सांस लेते महसूस होते हैं। जीवन के मंच पर जहां हर पल कलाकार आते हैं और अगले पल ही बदल जाते हैं, दिल दुआ मांगता है कि यहीं कहीं, आस पास, किसी ऐसे कलमजीवी से मुलाकात हो जाए जो ज़िन्दगी के हाथ आए उस पल की बेहतरीन सौगात बन जाए ... 

बेशक वंदना अवस्थी से मिलना कुछ ऐसा ही एहसास है।










दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...