26 फ़रवरी, 2008

शब्द.........



आँधियाँ जब सर से होकर गुज़रती हैं,
दूसरे का दर्द...
समझ में आने लगता है।
पर,जो आँधियों में
दूसरे के दर्द से रास्ता निकालते हैं
उन्हें ज़िंदगी मज़ाक लगती है!
वे नहीं समझते उनकी तकलीफ
जो रात के घने अँधेरे में उठकर शब्द टटोलते हैं,
'शब्द' जो उनके दर्द का गवाह बन सकें,'
शब्द' जो दूर से किसी को ले आए
शब्द' जो रातों का मरहम बन जाए ......
आँधियाँ जब सर से होकर गुज़रती हैं
भीड़ में भी आदमी अकेला होता है
लोगों की बजाय ख़ुद से बातें करता है...........
जोड़-घटाव की परिक्रमा करता है!
आँधियों के रास्ते पार करते-करते
उनके सारे कार्य-कलाप
'मानसिक' हो जाते हैं....
बहुत मुश्किल होता है उन्हें समझना
क्योंकि ,उनका पूरा शरीर 'शब्द' बन जाता है
और ,
शब्दों के बीच आम इंसान बहुत घबराता है!
शब्दों का जोड़-घटाव उनके सर के ऊपर से गुजरता है
वे भला कैसे जानेंगे उनको-
जिनके सर से होकर आँधियाँ गुज़रती हैं......................

25 फ़रवरी, 2008

बोलो माँ,बोलो!!!!!!!!!!!

माँ,अब क्या करोगी?
कैसे लौटाओगी मुझे
उन रास्तों पर,
जो मेरे नहीं थे........
तुम भ्रम का विश्वास देती रही,
जिसे मैं सच्चाई से जीती गई...
जब भी ठेस लगी,
तुमने कहा-'जाने दो,
जो हुआ -यूँ ही हुआ'
ये 'यूँ ही' मेरे साथ क्यों होता है!
तुमने जिन रिश्तों की अहमियत बताई,
उन्होंने मुझे कुछ नहीं माना......
मैं तो एक साधन- मात्र थी माँ
कर्तव्यों की रास से छूटकर
जब भी अधिकार चाहा
खाली हाथ रह गई....
फिर भी,
तुम सपने सजाती गई,
और मैं खुश होती गई..........
पर झूठे सपने नहीं ठहरते
चीख बनकर गले में अवरुद्ध हो जाते हें
और कभी बूँद-बूँद आंखों से बह जाते हें!
इतनी चीखें अन्दर दबकर रह गईं
कि, दिल भर गया
इतने आंसू -कि,
उसका मूल्य अर्थहीन हो गया........
माँ,
ज़माना बदल गया है,
जो हँसते थे तुम्हारे सपनों पर
वे उन्हीं सपनों को लेकर चलने लगे हें
पर कुछ इस तरह,
मानों सपने सिर्फ़ उनके लिए बने थे.........
माँ,
मैंने तुमसे बहुत प्यार किया है,
और माँ,
मैं इस प्यार में जीती हूँ
पर माँ,
मैं तुम्हारे झूठे भ्रम को
अब अपनी पलकों में नहीं सजा पाउंगी,
तुम जो जोड़ने का सूत्र उठाती हो
उसे छूने का दिल नहीं होता........
लोग जीत गए माँ,
मेरा मिसरीवाला घर तोड़ गए
मैं ख़ुद नहीं जानती,
मैं कहाँ खो गई......
माँ,
अब तुम क्या करोगी?
कैसे लौटाकर लाओगी मुझे?
बोलो माँ, बोलो!!!!!!!!!!!!!!!!!!

20 फ़रवरी, 2008

आशीष...



माँ के गर्भ मे
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह मे जाना सीखा
निकलने की कला जाने
उससे पहले , निद्रा ने माँ को आगोश मे लिया
भविष्य निर्धारित किया
चक्रव्यूह उसका काल बना !
मेरी आंखें, मेरा मन , मेरा शरीर
मंत्रों की प्रत्यंचा पर जागा है
तुम्हारे चक्रव्यूह को अर्जुन की तरह भेदा है
मेरी आशाओं की ऊँगली थाम कर सो जाओ
विश्वास रखो -
ईश्वर मार्ग प्रशस्त करेंगे


19 फ़रवरी, 2008

कल का सूरज......


शान्त नदी,
घनघोर अँधेरा,
एक पतवार और खामोशी-
यात्रा बड़ी लम्बी थी!
ईश्वर की करुणा
एक-एक करके पतवारों की संख्या बढ़ी ,
कल-कल का स्वर गूंजा
खामोशी टूटी
अँधेरा छंटने लगा
यात्रा रोचक बनी
प्यार की ताकत ने
किनारा दिखाया
उगते सूर्य को अर्घ्य चढाया .................

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...