10 अक्तूबर, 2019

सात समन्दर पार 




सात समंदर पार ... मेरी अम्मा स्व सरस्वती प्रसाद जी की कलम का जादू है । बचपन के खेल, परतंत्र राष्ट्र के प्रति उनके वक्तव्य उनकी कल्पना को उजागर करते हैं ।

यह कहानी मैंने कितनी बार पढ़ी, कितनों को सुनाई ... मुझे ख़ुद याद नहीं... लेकिन जितनी बार इस कथा-यात्रा से गुज़री , बचपन, देश, प्रेम और आँसुओं की बाढ़ मुझे बहा ले गई!

इस निरन्तर यात्रा के बाद मुझे एहसास हुआ कि क्यों उन्हें कविवर पन्त ने अपनी मानस पुत्री के रूप में स्वीकार किया! क्यों उन्होंने अपनी पुस्तक लोकायतन की पहली प्रति की पहली हक़दार समझा.

मेरा कुछ भी कहना एक पुत्री के शब्द हो सकते हैं, किन्तु मेरी बात की प्रामाणिकता 'सात समन्दर पार" को पढ़े बिना नहीं सिद्ध होने वाली. तो मेरे अनुरोध पर....... सात समंदर पार को पढ़िए, और कुछ देर के लिए सुमी-सुधाकर बन जाइये ।

एक बहुमूल्य हस्ताक्षर के लिए आज ही ऑर्डर कीजिये





02 अक्तूबर, 2019

हीर सी लड़की के ख्वाब






टिकोले में नमक मिर्च मिलाती
वह लड़की
सोलह वर्ष के किनारे खड़ी
अल्हड़ लहरों के गीत गाती थी !
भोर की पहली किरण के संग
जागी आँखों में,
उसके सपने उतरते थे
एक राजकुमार
कभी किसान सा,
कभी कुम्हार सा,
कभी समोसे लिए,
कभी मूंगफली,
कभी चेतक घोड़े पर,
कभी वर्षों से सोई अवस्था में,
कभी राक्षस को मारते हुए
उसके सामने आता,
और वह सावन का झूला बन जाती थी ।
समर्पित सी वह लड़की,
कहानियों वाले राजकुमार के शरीर से
सुइयां निकालती ...
शर्माती पारो बनी बोलती,
श्री देवदास ।
आधी रात को निकल पड़ती पूछने,
"मुझसे ब्याह करोगे"
...
बंगाली सुहागन बनकर
बड़ी सी कोठी में,
चाभियों का गुच्छा लिए घूमती ।
साहेब बीबी और गुलाम की छोटी बहू बन
एक इंतज़ार लिए सजती सँवरती ...
सोलहवां साल पागल था
या खुद वह !
जो भी हो,
उसकी आँखों से जो ख्वाब टपकते थे,
उसमें सारे रंग
सारे रस हुआ करते थे ।
वह ढेर सारी कहानियाँ पढ़ती
और क्रमशः सभी पात्रों को जीती ।
हाँ, उसमें जोड़-घटाव करना
कभी नहीं भूलती थी ।
जैसे,
यशोधरा बन वह करती थी बुद्ध से सवाल
सिद्धार्थ बनकर रहने और जीने में,
क्या भय था ?
वह कौन सा ज्ञान था,
जो मेरे बनाये भोजन में नहीं था ?
वह मानती थी,
कि प्रेम समर्पण से पहले
एक विश्वास है,
और जहाँ विश्वास है,
वहाँ समर्पण लक्ष्य नहीं होता ।
वह लड़की खोई नहीं है,
आज भी ख्यालों में टिकोले तोड़ती है,
नमक मिर्च लगाकर
खट्टी खट्टी,तीखी तीखी सी हो जाती है,
कभी चन्दर की सुधा बन जाती है,
कभी कोई पहाड़ी लड़की,
सोलहवें साल की गुनगुनाहट
आज भी उसके गले में तैरती है ।
हीर सी उस लड़की के ख्वाब
आज तलक,
रांझा रांझा ही हैं ।



दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...