18 मई, 2023

हवाओं के रुख़ का सामना


 

दौर का कमाल है,
बड़े बुजुर्गो की कौन कहे
जिनके दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं
वे भी बुद्धिजीवी हैं,
वे सोच समझकर भले न बोलें,
आपका मान हो न हो 
आपको उसके मान का ख्याल रखना है,
अन्यथा बुरा असर पड़ेगा !

पहले तो छोटी सी बात पर कान उमेठे जाते थे
बड़ों के बीच से भगा दिया जाता था
घड़ी देखकर पढ़ने बैठा दिया जाता था
बात असर,बेअसर की करें
तो अति किसी बात की अच्छी नहीं
- वह प्यार हो या गुस्सा हो !

नि:संदेह, जन्मगत गुण अवगुण होते हैं,
पर वस्तु हो, फसल हो या मनुष्य
समय पर सिंचाई,
काट छांट... उसके लिए जरूरी है
उत्तम, श्रेष्ठ,बुद्धिजीवी घोषित करने से पहले 
उसे मौसम को सहने का ढंग सिखाइए
कीड़ों से बचाइए,
सही -गलत का फर्क बताइए
...
भले ही जमीन आपकी है,
पर हवाओं के रुख़ का सामना तो करना ही होगा !!!

24 मार्च, 2023

मैं राम







पिताश्री,
मैं आपका राम
ठुमक ठुमक चलते हुए कब समय बदला
और हम चारों भाई गुरुकुल में
गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेने लगे
गुरुमां के मातृत्व में सोने की कोशिश करने लगे
-पता ही नहीं चला !
गुरु विश्वामित्र के संग फिर आगे बढ़ा
बढ़ते बढ़ते जीवन के विभिन्न रसों से मिलता गया
लेकिन जिस दिन आपको हारा हुआ देखा
मेरी आंखों के आगे से वह दृश्य गुजरा ...,
जहां मेरे नन्हें पैरों की गति से आप
जानबूझकर हार रहे थे
और खुश थे !
लेकिन यह हार मृत्यु सी थी
और वचन सुनकर
मेरे क्षत्रिय मन ने कहा
एक सिंहासन क्या
मैं दुनिया छोड़ सकता हूँ !!
पर, मैं स्तब्ध बहुत था यह सोचकर
कि मां कैकेई ने ऐसा वचन क्यों मांगा !!!
जो प्यार,आशीष उन्होंने दिया था
वहां उनकी एक आज्ञा काफ़ी होती,
क्योंकि निष्प्रयोजन
पूरी दुनिया के आगे कलंक शिरोधार्य करके
विशेषकर अपने पुत्र भरत का सर नीचा करके
क्षत्राणी मां कैकेई यह क़दम उठाती ही नहीं !!! ...
चौदह वर्ष बहुत होते हैं मन बदलने के लिए !!!
टुकड़े भर जमीन के लिए
रिश्ते बिखर जाते हैं
लेकिन, - ‌
सामने अयोध्या का राज्य था
और हमारा भरत नि:स्वार्थ सरयू के किनारे
सारे सुखों से दूर अपना कर्तव्य निभाता गया ।
हाँ मैं राम,
यंत्रवत सबकुछ करता गया...
तीनों मांओं से दूर हुआ,
आपको खो दिया,
भाइयों की बैठकी,सहज बातों से दूर हुआ
क़दम क़दम पर होनी ने मुझे आंधी -तूफान में डाला ...
हाँ मैं राम,
बड़ों के निर्णय के आगे
मन की छोटी छोटी चाह को
पर्णकुटी में पिरोता रहा ।
प्रजा की खुशी, नाखुशी में
सामान्य से असामान्य हुआ
कहने को कुछ भी नहीं बदला
पर सच तो यही रहा !
रघुकुल रीत निभाते हुए
मैं सिर्फ और सिर्फ सूर्यवंशी राजा हुआ
मनुष्य से भगवान बनाया गया
सीता से दूर
लवकुश के जन्म से अनभिज्ञ
या तो पूजा जाने लगा
या फिर कटघरे में डाला गया ...
मैं सफाई क्या दूं !!! ...

12 मार्च, 2023

सिलसिला जारी ही रहेगा ...


 

तानसेन के अद्भुत संगीत से शिक्षा लेकर
दर्द ने ऐसे ऐसे राग बनाए
कि कांच से बना मेरा मन
चकनाचूर होता रहा !

मैंने भी कभी हार नहीं मानी, 
लहूलुहान होकर भी किरचों को समेटती गई
मन को जोड़ती रही ...

एक तरफ़ दर्द बहूरुपिया बनकर 
अपना असर दिखाने की कोशिश में लगा रहा
दूसरी तरफ़ मैंने मन को 
अनगिनत सूराखों के संग
एक रुप दे दिया ...

दर्द आज भी गरजता है
बरसता है
तिरछी नजरों से देखता है
फिर धीरे धीरे सब स्थिर हो जाता है
मन अपनी आंखें मूंद लेता है
कुछ थककर
कुछ नई उम्मीद लिए !

जब तक सांसें हैं
सिलसिला जारी ही रहेगा ... ।

रश्मि प्रभा

26 फ़रवरी, 2023

संभल नहीं पाओगे


 

पुरुष ने स्त्री को देवदासी बनाया,

अपनी संपत्ति मान ली
फिर घर में रहने वाले 
उसे उपेक्षित नज़रों से देखने लगे ... !!!

पुरुष ने स्त्री के पैरों में पाज़ेब की जगह
घुंघरू पहनाए,
उन घुंघरुओं की झंकार सुनने की खातिर,
थके मन की थकान दूर करने के लिए
उसके घर की सीढ़ियां चढ़ने लगे
और अपने घर की स्त्रियों से कहा 
- दूर रहना उनसे,
वे भले घर की स्त्रियां नहीं हैं  ...!!!

पुरुष ने अपने घर की स्त्रियों से कहा,
घर तुम्हारा है,
कर्तव्य तुम्हारे हैं
आंगन तुम्हारा है ...
दालान या दहलीज तक आने की जरूरत नहीं है !

स्त्रियों का दम घुटने लगा,
कुछ सवालों ने सर उठाया 
तब मासूम पुरुष ने झल्लाकर हाथ उठा दिया,
चीखने लगा - 
ज़ुबान चलाती स्त्रियां भली नहीं होतीं,
रोटी मिलती है,
महीने का खर्चा मिलता है 
मेरे नाम की पहचान मिली है
और क्या चाहिए भला ???!!!

स्त्रियों ने बेबसी से देवदासियों को देखा,
तमकती, गरजती विधवाओं को देखा,
घुंघरू झनकाती निर्लज्ज औरतों को देखा
और आरंभ हुआ - देवी का आना,
दालान से दहलीज तक उसका निकलना,
झंझावात में उलझी मानसिक स्थिति से जूझना
आर्थिक रूप से समर्थ होना
और अपनी पहचान की रेखा खींच कर
पुरुष को आगाह करना
कि दूर रहना अब अपनी चालाकियों से
और याद रखना 
- कि हम नासमझ नहीं रहे ! 
किसी रोज़ जो तुम्हारी चाल पर उतर आए
तो संभल नहीं पाओगे !!!

रश्मि प्रभा





28 जनवरी, 2023

लोग बदल गए हैं


 

चिड़िया ने चिड़े से कहा - 

सुना है, लोग बदल गए हैं

और उनकी कोशिश रही है हमें बदल देने की !!!

पहले सबकुछ कितना प्राकृतिक, 
और स्वाभाविक था,
है न ?
हम सहज रूप से मनुष्य के आंगन में उतरते थे,
उनकी खुली खिड़कियों पर 
अपना संतुलन बनाते थे ।
खाट पर फैले अनाज से 
हमारी भूख मिट जाती थी 
चांपाकल के आसपास जमा हुए पानी से
प्यास बुझ जाती थी...

बदलाव का नशा जो चढ़ा मनुष्यों पर
आंगन गुम हो गया,
बड़े कमरे छोटे हो गए,
मुख्य दरवाज़े के आगे
 भारी भरकम ग्रिल लग गए !
मन सिमटता गया,
भय  बढ़ता गया,
अड़ोसी पड़ोसी की कौन कहे,
अपने चाचा,मामा, मौसी,बुआ की पहचान खत्म हो गई !!

बड़ी अजीब दुनिया हो गई है
मनुष्यों की भांति हमारा बच्चा भी
अपनी अलग पहचान मांग रहा है
निजी घोंसले की हठ में है ...!!!
समझाऊं तो कैसे समझाऊं
परम्परा का अर्थ कितना विस्तृत था
सही मायनों में -
वसुधैव कुटुंबकम् था !" 

रश्मि प्रभा 

07 जनवरी, 2023

जीवन है


 


यह जीवन है,
आसान लगता है,
होता नहीं ...
रोज नए सिरे से बनाना पड़ता है ।

कभी झूठ नहीं बोलोगे
तो औंधे मुंह गिरोगे
या सत्यवादी हरिश्चंद्र की तरह
बिक जाओगे
... अब चयन तुम्हारा है
सत्य के लिए बिकना चाहते हो
या सत्य के लिए युद्ध करना चाहते हो !!!

युद्ध के लिए साम,दाम,दंड अपनाना होगा
सिर्फ समर्पण भाव से
किन-किन रास्तों से गुजरना पड़ेगा
- तय नहीं हो सकता ! 
हाँ -
आलोचना दोनों हाल में होगी ।

एक बात की गांठ बांध लो,
राजा हरिश्चंद्र की राह अपनाओगे,
तो कहानी बनोगे
स्व के लिए युद्धरत रहोगे
तो कहानी से अधिक उदाहरण बनोगे ...! 

जीवन है,
सिर्फ लहरों से काम नहीं चलता
कुछ स्थाई स्थिति बनाने की खातिर
सुनामी के कहर की भी जरूरत होती है !

... जीवन है,
बिना रोए, मुरझाए
न हंस सकते हो,
न खिल सकते हो ... ।

07 दिसंबर, 2022

स्वयं को आरंभ बना लो...

 






ओ प्रिय,

जीवन का हर निर्णय
एक युद्ध होता है
- वह जन्म हो,
मरण हो,
विवाह हो,
निभाना हो,
अलगाव हो
... और फिर सहजता की विभीषिका हो !!

युद्ध अठारह दिनों का हो
या बीस, पचास, सौ वर्षों का 
... परिणाम मृत्यु तक ही सीमित नहीं होते,
सारांश, निष्कर्ष शरीर, मन की शाखाओं पर भी
प्रभाव डालते हैं ।
कर्मकांड कोई भी हो,
मुक्ति नहीं मिलती !!!

तो हल क्या है ? 
खुद को मांजना,
तराशना,
शोर के आगे अपने मौन को सुनना
- वह दबी हुई सिसकियां ही क्यों न हो !

माना,
कोई कंधे पर, सर पर हाथ रखे,
गले से लगा ले
तो सुकून मिलता है
लेकिन क्षणिक ही न !
युद्ध में अभिमन्यु बनना पड़ता है
अपने हों, पराये हों
- सबके वार से अकेले जूझना होता है
निहत्था होकर भी
अपनी क्षमता पर विश्वास रखना होता है
कर्ण भी हिल जाए,
ऐसा रुप दिखाना पड़ता है ...

निःसंदेह,
धरती तब भी खून से लाल होती है
लेकिन अभिमन्यु युगों की प्रेरणा बनता है 
न मुक्त होता है,
न होने देता है !

तो अपनी जीजिविषा का हुंकार करो
शंखनाद करो
खुद को ब्रह्मास्त्र बना लो 
मृत्यु भी नतमस्तक होकर तुम्हें वरण करे,

स्वयं को ऐसा आरंभ बना लो...


22 नवंबर, 2022

मेरे तुम


 


मेरे तुम,
जाने अनजाने प्रेम परिधान में
मैंने तुमसे कहा _ 
मैं सीता की तरह 
तुम्हारी अनुगामिनी बनकर रहूंगी...
और तुम राम बन गए !!!
एक अग्नि परीक्षा की कौन कहे,
_ निरंतर अंगारों पर चली ।
कलयुग रहा,
तो वाल्मीकि का मिलना भी संभव नहीं हुआ !

मेरे तुम,
तुम्हारे शब्दों के माधुर्य में सुधबुध होकर
मैं बरसाने की राधा सी क्या हुई
तुम कृष्ण बन गए !!
अब कथा क्या कहूं ... 
मैं तो प्रतिक्षित ही रही !!! 
जनकपुर, अयोध्या, चित्रकूट,लंका,...
बरसाने, गोकुल, वृंदावन में भटकती रही !!!

इस भटकाव में तुम एक नाम रहे,
अनाम, बेनाम !
कभी उस 'तुम' से न मेरा मिलना हुआ,
न वह मिला...
मेरे तुम,
मैं जिम्मेदारी बनकर 
तुम्हारे हिस्से आई ही नहीं, है 
तो मुड़कर देखना भी क्या था ! 
हां मुझसे मिला जटायु,
मेरा हाल पूछा अशोक वाटिका ने
कदम्ब मेरे आंसुओं से सिंचित होता रहा,
वृंदावन एक छायाचित्र की तरह
मेरे साथ चलता रहा
ऊधो मिले,
सुदामा मिले ... 

तुम जो आज तक जीवित हो,
वह इसलिए _
क्योंकि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली
तुम्हारे लक्ष्य के आगे नहीं आई 

... चुंकि मैंने प्रेम को मरने नहीं दिया,
इसलिए तुम कहीं भी रहें,
तुम्हारे नाम से पहले मेरा नाम
मेरा वजूद रहा,
और मेरे वजूद ने तुम्हें अमर किया 
सीताराम
राधेकृष्ण ... 


28 अक्तूबर, 2022

गीता को खुद में आत्मसात करना है !!!


 


यदि तुम कुछ ठीक करना चाहते हो
तो सही-गलत के अन्तर को समझना होगा ! 
अहम की शिला को
ताक पर रखना होगा
खुलकर सच कहना 
और सुनना होगा ...
हर बात पर यदि अहम आड़े आए
तब कोई भी कोशिश बेकार है !!!
ना,ना
आप बेसिर पैर की वजहें नहीं खड़ी कर सकते 
जब तक चेहरे और व्यवहार में
शालीनता, मृदुता नहीं है
आपकी कोशिश सिर्फ और सिर्फ एक झूठ है . ‌. .

इससे परे _ 
यदि तुम अपनी जगह सही हो
पर बातों, चीजों को 
तुम ही सही करना चाहते हो 
_ तब तुम्हें कृष्ण से सीखना होगा
 पांच ग्राम जैसा प्रस्ताव ही सही होगा
अर्थात बीच का वह मार्ग,
जिसमें सम्मानित समझौता हो,
. ‌..
पर इसमें भी बाधा हो,
बड़ों की ग़लत ख़ामोशी उपस्थित हो
तब न्याय के लिए विराट रूप लेना होगा
सारथी बन जीवन रथ को घुमाना
और दौड़ाना होगा
... आवेश _ बिल्कुल नहीं
बल्कि सहजता से झूठ के बदले झूठ
साम दाम दण्ड भेद की तरह 
मन की प्रत्यंचा पर
बातों के शर को चढ़ाना होगा ...

प्रिय,
यहां किसी महाभारत की जरुरत नहीं
बल्कि उस समय को अनुभव की तरह लेना है
गीता को खुद में आत्मसात करना है !!!



05 सितंबर, 2022

अकेलापन !!!




कुछ भी कह लो
सफाई देने में
भले ही साम दाम दंड भेद अपना लो
पर्व, त्योहार,
एवं किसी के आने पर
खाने की जिस खुशबू से
घर मह मह करता था,
खुशियों की खिलखिलाती पायल बजती थी,
वह अब गुम है
_ बिल्कुल उस गौरेये की तरह
जो आंगन में उतरकर राग सुनाती थी !
घर-परिवार यानी सारे रिश्ते
साथ होते थे ...
तो हर लड़ाई, बहस के बावजूद
रिश्ता,
रिश्तों की जिम्मेदारी बनी रहती थी !
अब तो सबके अपने फ्लैट हैं,
अपनी लीक से हटकर पसंद है
एक दूसरे के लिए समय की कमी है
उपेक्षा है, अवहेलना है
चेहरे पर निगाह डालने से परहेज है !!
और इसमें कमाल की बात यह है
कि सबको अकेलेपन की शिकायत है
और इसलिए सबसे शिकायत है ।
अपनी अदालत है,
अपनी सुनवाई है
तो फैसला अपने हक में ही रहता है
साइड इफेक्ट में
कोई न कोई बीमारी है
खीझ है
सारे मसालों के बावजूद
कहीं कोई स्वाद नहीं है,
अगर कभी स्वाद मिल जाए
तो दंभ की अग्नि जलाने लगती है
...
सारांश _ !!!
निरर्थक घर,
तथाकथित सुख सुविधाओं के सामान
और ...... अकेलापन !!!

20 अगस्त, 2022

मैं अपना ही अर्थ ढूंढता हूँ ।


 


गोकुल की वह सुबह,

सोहर के बीच 
माँ यशोदा ने जब मुझे कसकर गले लगाया 
उनके बहते आँसुओं को 
अपनी नन्हीं हथेली पर महसूस करते हुए 
मेरा आँखें माँ देवकी को
वासुदेव बाबा को ढूंढ रही थीं ...

समय की मांग से परे
मैं उसी वक्त चाह रहा था विराट रूप लेना
अपने सात भाईयों की हत्या 
माँ देवकी के गर्भनाल की असह्य 
निःशब्द पीड़ा को अर्थ देना
कंस को उसी कारागृह की दीवार पर
उसी की तरह पटकना... !!!
लेकिन माँ यशोदा के हिस्से लिखी बाल लीला
सूरदास के अंधेरे में उजास भरने के लिए 
मुझे चौदह वर्षों का गोकुलवास मिला था !!

ईश्वरीय चमत्कार की चर्चा छोड़ दें
तो न मेरे आगे माँ देवकी की व्यथा थी
न उनकी गोद में मैं !!
मेरे आगे भी एक निर्धारित अवधि थी
जिसमें मुझे गोकुल का सुख बनना था,
प्रेम बनना था 
और फिर सबकुछ छोड़कर
मथुरा लौटना था
उलाहनों,आँसुओं की थाती लिए !

बिना भोगे,
बिना जिए,
कौन मेरे करवटों की व्याख्या करेगा ?
कैसे कोई जानेगा
कि जब मैं माँ देवकी के गले लगा
तो मेरा रोम रोम माँ यशोदा के स्पर्श से भरा था !
माँ देवकी भी सिहर उठी थीं ...
दो बूंद आंसू गिरे थे
लेकिन होनी के इस अन्याय को स्वीकार करते हुए 
उन्होंने मेरे सर पर हाथ रख दिया था
ताकि मैं मथुरा के साथ न्याय कर सकूँ ... !!!

मैंने क्या न्याय या अन्याय किया
_ नहीं जानता !
मेरे मुख में ब्रह्मांड था या नहीं
- मुझे ज्ञात नहीं 
पर जो अन्याय मेरे जीवन में होनी ने तय किया,
उसके आगे मेरा वजूद गीता बना ...
अगर ऐसा नहीं होता,
तो मैं जी नहीं पाता !

तुमसब भले ही मुझे द्वारकाधीश कहो
पर अपने एकांत में 
मैं अपना ही अर्थ ढूंढता हूँ । 


रश्मि प्रभा 


हवाओं के रुख़ का सामना

  दौर का कमाल है, बड़े बुजुर्गो की कौन कहे जिनके दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं वे भी बुद्धिजीवी हैं, वे सोच समझकर भले न बोलें, आपका मान हो न ...