मेरी भावनायें...
शोर से अधिक एकांत का असर होता है, शोर में एकांत नहीं सुनाई देता -पर एकांत मे काल,शोर,रिश्ते,प्रेम, दुश्मनी,मित्रता, लोभ,क्रोध, बेईमानी,चालाकी … सबके अस्तित्व मुखर हो सत्य कहते हैं ! शोर में मन जिन तत्वों को अस्वीकार करता है - एकांत में स्वीकार करना ही होता है
08 मार्च, 2021
महिला दिवस
03 मार्च, 2021
चाहा तो ऐसा ही था !
01 मार्च, 2021
अटकन चटकन
विरासत में पिता से मिली कलम, वंदना अवस्थी ने उसे सम्मान से संजोया ही नहीं, ज़िन्दगी के कई सकरी गलियों में घुमाया, कहीं रुदन भरा,कहीं हास्य,कहीं घुटन,कहीं विरोध और अपनी खास दिनचर्या में इसकी खासियत को बड़े जतन से शामिल किया । "बातों वाली गली" से गुजरकर, आज अटकन चटकन की गलियां हैं, जिसमें सिर्फ सुमित्रा,कुंती ही नहीं, किशोर,छोटू,रमा,जानकी,छाया, ... जैसे विशेष पात्र भी हैं, और लेखिका ने किसी को अपनी कलम से अछूता नहीं रखा है ।
26 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
24 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
19 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
पहली बार जब यह नाम "अटकन चटकन" मेरी आंखों से गुजरा, लगा कोई नाज़ुक सी लड़की अपने दोस्तों के साथ चकवा चकइया खेल रही होगी ... सोचा,बचपन की खास सन्दूक सी होगी कहानी । शब्दों को, गज़लों को,किसी वृतांत को ज़िन्दगी देनेवाली वन्दना अवस्थी दूबे ने कोई जादू ही किया होगा, इसके लिए निश्चिंत थी । फिर भी आनन-फानन मंगवाने का विचार नहीं आया ।
17 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन और लेखिका वंदना अवस्थी
कहानी या कविता या और किसी विधा में लिखित दस्तावेज़, हैं क्या ? सब सामान हैं, पड़ाव हैं, हमसफ़र हैं - कलम की यात्रा में और इस यात्रा में राहगीरों की कमी नहीं है, हज़ारों आए, आते हैं और अपने शब्दों में अपनी नजर छोड़ जाते हैं... जहां से पाठक उसे उठाते हैं, उसमें झांकते हैं...फिर उनका मन हर राहगीर के साथ सहयात्री बन चलने लगता है, उसकी नजर और नज़रिये को पूरी शिद्दत से पढ़ने और समझने लगता है। इसी समझ की चाक पर राहगीर यानी रचनाकार की पहचान गढ़ी जाती है, उसकी छवि बनने लगती है, उसके ख्यालों की बारीकियां बिंब से प्रतिबिंब बनती हैं और उसकी कलम की बेल परवान चढ़कर आबोहवा को जीवन का दान देती है।
अटकन-चटकन की कथाकार वंदना अवस्थी की जीवनदायिनी कलम के सौजन्य से चटकी रचना है अटकन-चटकन, जिसको मैं एकबारगी नहीं पढ़ सकी क्योंकि मुमकिन नहीं था। इसके हर पात्र के सम्मोहन से बंध जाती थी मैं और उस मोहपाश को काटकर आगे बढ़ना मुश्किल होता था क्योंकि हरेक मुझे अलग - अलग सोच की गहरी नदी में गोते लगाने के लिए छोड़ देता था।
कथाकार कुछ नहीं होता जब तक कथा की गलियों से पढ़ने वाले नहीं गुजरते, पर गुजरने के बाद कथा दूसरे सोपान पर जाती है और प्रथम सोपान पर कथाकार का राज्य बनता है। अपनी साकेत नगरी की बड़ी कुशल और गंभीर महिषी हैं वंदना अवस्थी जी जिनकी कलम ने कथा के हर दृश्य को यों जीवंत कर दिया है कि घटना और घटनास्थल भी सांस लेते महसूस होते हैं। जीवन के मंच पर जहां हर पल कलाकार आते हैं और अगले पल ही बदल जाते हैं, दिल दुआ मांगता है कि यहीं कहीं, आस पास, किसी ऐसे कलमजीवी से मुलाकात हो जाए जो ज़िन्दगी के हाथ आए उस पल की बेहतरीन सौगात बन जाए ...
बेशक वंदना अवस्थी से मिलना कुछ ऐसा ही एहसास है।
04 सितंबर, 2020
#कुछचेहरे




02 सितंबर, 2020
#कुछचेहरे
27 अगस्त, 2020
राधा
11 अगस्त, 2020
क्या खोया,क्या पाया !
(लिखती तो मैं ही गई हूँ, पर लिखवाया सम्भवतः श्री कृष्ण ने है )
भूख लगी थी,
मगर रोऊं ...
उससे पहले बाबा ने टोकरी उठा ली !
घनघोर अंधेरा,
मूसलाधार बारिश,
तूफान,
और उफनती यमुना ...
मैं शिशु से नारायण बन गया
घूंट घूंट पीता गया बारिश की बूंदों को,
और कृष्णावतार का दूसरा चमत्कार हुआ
अपनी तरंगों से बादलों को छूती यमुना
सहसा शांत हो गईं
मुझे देखा,
श्यामा हुई,
गोकुल को जाने की राह बन गई
मैं जा लगा
मइया यशोदा के उर से,
मेरी भूख क्या मिटी
मैं गोपाल, कन्हैया, कान्हा ...
जाने कितने नामों से सज गया
उत्सव का नाद मेरे कानों में गूंजा
झूल रहे थे वंदनवार,
नंद बाबा के द्वार
मां की गोद क्या मिली
मुझे मेरा खोया वह ब्रह्मांड मिल गया
जिसे छोड़ आया था मैं
या यों कहूं
जो मुझसे छूट गया था
मथुरा के कारागृह में ...
गोकुल में मिला तभी,
हां, हां तभी
मैं सुरक्षित रहा
पूतना के आगे
कर सका कालिया मर्दन
उठा सका गोवर्धन ......
तो ईश्वर कौन था ?
मैं ?
या सात नवजात बच्चों की हत्या देखकर भी
मुझे जन्म देनेवाली मां ?
संतान को जीवित रखने का साहस जुटाकर
मुझे गोकुल ले जानेवाले पिता वासुदेव ?
पुत्री का दान देकर मुझे स्वीकार करनेवाले
नंद बाबा ?
या अपने पयपान से
मेरी बुभुक्षा को तृप्त कर
मुझे संजीवित करनेवाली
मां यशोदा ?
यह कौन तय करेगा
क्योंकि मैं स्वयं अनभिज्ञ हूँ ...
इस गहन ज्ञानागार में मैंने जाना ...
तुम क्या लेकर आए जिसे खो दोगे ?
तुम्हारा जब कुछ था ही नहीं
तो किसके न होने के दुख से रोते हो ?
मिट्टी से भरे मेरे मुख में
मां ने ब्रह्मांड देखा था
या कर्तव्यों का ऋण चुकाते हुए,
तिल तिलकर मेरे मरने का सत्य ...
किसी ग्रंथकार या लेखाकार को नहीं मालूम
यह सारा कुछ तो
मेरे और मेरी जीवनदायिनी के मध्य घटित
हर छोटे - बड़े संदर्भों की कथा है
जिसे वह जानती है
या फिर मुझे पता है.....
मेरे मथुरा प्रस्थान पर
विस्मृति का स्वांग ओढ़ना
उसकी वैसी ही विवशता थी
जैसे गोकुल का चोर,
ब्रज का किशोर
और फिर,
द्वारकाधीश बनना मेरी विवशता रही ...
मैं !
जिसे सबने अवतार माना,
अबतक नहीं जान पाया
कि मैंने क्या खोया, क्या पाया !
पर एक सत्य है
जो मुझे प्रिय है ...
गोकुल, यमुना, वृंदावन की तरह
मां की फटकार और
मुंह से लगे चुगलखोर माखन की तरह
पीताम्बर, मोरपंख और गोधन की तरह
बरसाने, राधा, बंसी और मधुबन की तरह
जिसके दर्शन
हर बरस होते हैं मुझे
भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र में पड़ी
अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि को
चहुंओर बिखरे
अपने जन्मोत्सव के उल्लास में,
ममता से भरी खीर में,
प्रेम की दहीहांडी में,
गलियों के बीच मचे हुड़दंग में...
उस रात के हर प्रहर में
मैं याद रखकर भी भूल जाता हूं
कि सदियों पूर्व क्या हुआ था
इस रात को ...
और सुनता हूं
मुग्ध होकर,
तुम्हारे घर में गूंजते
अपने लिए गाए जा रहे
क्षीरसागर में डूबे
सोहर के मीठे, सरल शब्दों को
और अपने जन्म की खुशी को जीता हूं।
और अपने जन्म की खुशी को जी भर के पीता हूं,
जी भर के जीता हूं
...कि यह रात!फिर आएगी
मगरपूरे एक बरस के बाद।
महिला दिवस
इतिहास गवाह है, विरोध हुआ बाल विवाह प्रथा का सती प्रथा का दहेज प्रथा का कन्या भ्रूण हत्या का लड़कियों को बेचने का उनके साथ हो रहे अत्याच...

