28 अगस्त, 2013

अपने जन्मदिन पर मुझे एक उपहार चाहिए



फिर आया वह दिन 
जब मैं निमित्त बन 
माँ के गर्भ से निकल 
काली रात की मुसलाधार बारिश में 
गोकुल पहुंचा 
यशोदा के आँचल से 
अपने ब्रह्माण्ड को तेजस्वी बनाने  ……. 
माँ देवकी के मौन अश्रु 
द्वारपालों का मौन पलायन कंस के आसुरी निर्णय से 
पिता वासुदेव के थरथराते कदम 
यमुना का साथ 
बारिश से शेषनाग की सुरक्षा 
मेरा बाल मन कभी नहीं भुला  …
मैंने सारे दृश्य आत्मसात किये 
बाल सुलभ क्रीड़ायें कर 
सबको सहज बनाया 
पर हर पल असहजता की रस्सी पर 
संतुलन साधता रहा  …. 
मातृत्व का क़र्ज़ 
नन्द बाबा के कन्धों का क़र्ज़ 
राधा की धुन का क़र्ज़ (जो मेरी बांसुरी के प्राण बने)
ग्वाल-बालों की मित्रता का क़र्ज़ 
कदम्ब की छाया का क़र्ज़ 
मैं कृष्ण  …… भला क्या चुकाऊंगा !!!
तुम राधा के लिए सवाल करो 
या माँ यशोदा के लिए 
मैं निरुत्तर था 
निरुत्तर हूँ 
निरुत्तर ही रहूँगा  …… 
तुम्हारे अनुमानों में मेरा जो भी रूप उभरे 
तुम्हारे ह्रदय से जो भी सज़ा निकले 
मुझे स्वीकार है 
क्योंकि मेरे जन्म के लिए तुम हर साल 
एक खीरे में मेरी प्रतीक्षा करते हो 
इस प्यार,प्रतीक्षा के आगे 
मुझे सबकुछ स्वीकार है  …। 
पर अपने जन्मदिन पर 
मुझे एक उपहार सबके हाथों चाहिए 
……………… 
अपनी अंतरात्मा की सुनो 
मेरी तरह संतुलन साधो 
कंस का संहार करो 
फिर जानो मुझसे किये प्रश्नों का उत्तर !!!

26 अगस्त, 2013

मुझे पंख चाहिए




मुझे पंख चाहिए 
वैसे पंख - 
जो मन के पास होते हैं 
और वह अपनी जगह से हमेशा कहीं और होता है  … 
मैं भी घूमना चाहती हूँ 
कहाँ ? इस पर क्या सोचना,
सीमित ही है सबकुछ 
फिर भी,
सुबह से रात तक की परिक्रमा कर लूँ 
तो मन के पंखों को कुछ आराम मिल जायेगा !
मन की आँखों को 
या उसके आने को 
हर कोई नहीं देख पाता 
न समझ पाता है 
और अगर देख लिया 
समझ लिया 
तो निःसंदेह मानसिकता की बात हो जाएगी !
आना-जाना सत्य के आधार पर प्रमाणित होता है 
यूँ महीनों,सालों मन से कहीं रह लो,
जी लो 
- कोई नहीं मानता 
प्रमाण चाहिए 
और प्रमाण के लिए मुझे असली पंखों की ज़रूरत है 
हाँ,हाँ - परियों वाले पंख !
…………………। 
अब प्रश्न उठेगा कि मिलते कहाँ हैं 
तो इस बात से तो सभी भिज्ञ हैं 
कि दुनिया आश्चर्यों की मिसाल है -
कहीं किसी अनोखे झरने के पास परियां रहती होंगी 
पंखों का अद्भुत मेला सजाये 
हमें बस कोलम्बस,वास्कोडिगामा होना है 
फिर मन से शरीर की उड़ान आसान हो जाएगी 
पर !!!  ………. 
इसमें प्रत्यक्ष गवाह की कठिनाइयां पैदा होंगी !!!
परियों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी  …
समझ में नहीं आता कि अपनी चाह को क्या नसीहत दूँ !
पंख तो मुझे चाहिए 
तो एक तथ्य उभरा है दिमाग में 
कि पाप हो या पुण्य 
तर्क से दोनों को तब्दील किया जा सकता है 
वचनं किं दरिद्रतम !
तर्क से पुण्य पाप 
पाप पुण्य 
होता है न ?!
तो परियों पर आफ़त आ जाने पर कह देना है 
"होनी काहू बिधि ना टरै"
और गवाह की ऐसी की तैसी 
वह तो यूँ भी बिकाऊ ही होता है 
………। 
तो सम्पूर्ण कहे का सार है - मुझे पंख चाहिए 

08 अगस्त, 2013

चाँद और सीढ़ी



एड़ी उचकाकर चाँद को छूना चाहा 
चाँद ने कहा - ' एक सीढ़ी लगा लो' 
एक सीढ़ी लगाकर नीचे देखा 
बचपन के मोहक मन को बड़ा मज़ा आया …
 
फिर चाँद को देखा, हाथ बढ़ाया 
चाँद के इर्द गिर्द तारे टिमटिमाये 
'एक सीढ़ी और'
दूसरी सीढ़ी पर पाँव रखते  
अल्हड़ हवा का झोंका 
मेरे कानों में सोलहवें बसंत की कहानी कहने लगा 
नीचे देखूँ या ऊपर 
हर सू गुलमोहर से भरा …. 

लहराती लटों को संभाल 
फिर चाँद को देखा 
चाँदनी ने मुझे आगोश में भर लिया 
हौले से कहा - 'एक सीढ़ी और …'
……
तीसरी सीढ़ी दुनियादारी के घात-प्रतिघातों से भरी थी 
हर प्यादे वजीर बने 
शह-मात की बाज़ी खेल रहे थे 
घबराकर चाँद को देखा 
फिर से एड़ी उचकाने की चेष्टा की 
चाँद ने प्यार से छुआ 
कहा - 'एक सीढ़ी और  …'

गीता सार अर्थवान हुआ -
"जो हुआ अच्छा हुआ जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा वो भी अच्छा होगा, 
तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे जो तुमने खो दिया? 
तुमने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया? तुमने जो लिया यही से लिया, 
जो दिया यही पर दिया, जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, कल किसी और का होगा ... "

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...