27 सितंबर, 2008

मोह !!!!!!!


खट खट खट खट.........
मोह दरवाज़े पर
दस्तक देता रहता है !
कान बंद कर लूँ
फिर भी ये दस्तकें
सुनाई देती हैं -
और आंखों में
कागज़ की नाव बनकर तैरती हैं !
आँधी,तूफ़ान,घनघोर बारिश में लगा,
अब ये नाव डूब चली,
पर आँधी थमते
दस्तकें सुनाई देती हैं........
मैं आखिरी कमरे में चली जाती हूँ
पर मोह की दस्तकों से
मुक्त नहीं हो पाती.......
बैठ जाती हूँ हार के
....... प्रभु तुम ही कहते हो,
तुम्हारा क्या गया ?
तुम क्या लाये थे ?
तो - यह मोह,
क्यूँ मेरे साथ चलता है !

21 सितंबर, 2008

शून्य !


एक विस्फोट फिर !
आह !
क्या हो गया है !
कौन है !
सरकार क्या कर रही है !.....................
दुःख और दहशतनुमा सन्नाटे में
फर्क होता है !
सन्नाटे की भाषा नहीं होती
भाषाहीन - एक शून्य !
..........
अखबार के पन्नों पर
अपना खून नहीं होता
तो, स्थिति उतनी भयावह नहीं लगती,
सरगर्मी भरी बातचीत हो जाती है !
अपना खून !
विस्फोट मस्तिष्क में होता है
फिर-
निस्तेज आँखें !
मौन दर्द !
शब्दहीन शून्य रह जाता है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

14 सितंबर, 2008

माँ माँ ...................


माँ,माँ
डर लगता है....................
माँ ने हाथ का घेरा बनाया
सीने से लगा लिया !
माँ,माँ,
बुरे सपने आते हैं...........
माँ ने तकिये के नीचे
हनुमान चालीसा रखा,
माथे पर ॐ लिखा
या फिर तकिये के नीचे
कैंची (लोहा)रख दी !
माँ,माँ ,
मेरी तबीयत ठीक नहीं.....................
माँ ने मिर्चा लेकर
नज़र उतारी !
.............................
अब हम बड़े हो गए हैं !
अब माँ को डर लगता है,
बुरे सपने आते हैं,
तबीयत ख़राब रहती है.......
बड़ी उकताहट होती है !
क्या माँ ,
दिमाग सठिया गया है !
झूठमूठ की घबराहट !
इस उम्र में ऐसा होता है !
....................
माँ बेचारगी से मुस्कुराती है,
ख़ुद अपने तकिये के नीचे हनुमान चालीसा रख लेती है
और करवट बदलकर
सोने का भ्रम देती
टुकुर-टुकुर समय को ताकती है..........................!!!

12 सितंबर, 2008

मानो तो.....


कविता तो पढ़ते हो ,
शब्दों की सुन्दरता का आकलन करते हो ,
'वाह' , 'वाह' भी करते हो...........
कभी लिखनेवाले के मर्म को जीया है?
समझा है उस घुटन को-
जो बेचैन से
किसी छोर से अकुलाते
अपनी मनःस्थिति को उजागर करते हैं !
.......
कभी जीकर देखो,
वहां तक-
कुछ ही हद तक पहुंचकर देखो........
तब कलम लो
और देखो,
वह क्या कहती है !
कवि की घुटन,
आंसू से शब्द,
अव्यवस्थित खांचे
गंगा की तरह होते हैं -
मानो तो पावन गंगा,
ना मानो तो -
बस एक नदी !

05 सितंबर, 2008

मेरी,तेरी,उसकी बात.........


(१)
मेरी तपस्या की अवधि लम्बी रही,
रहा घनघोर अँधेरा ,
सुबह - नए प्रश्न की शक्ल लिए
खड़ी रही..........
वो तो चाँद से दोस्ती रही
इसलिए सितारों का साथ मिला -
तपस्या पूरी हुई,
सितारे आँगन में उतर आए !

(२)
तुमने मुझे 'अच्छी'कहा
तो घटाएं मेरे पास आकर बैठ गयीं,
मेरी सिसकियों को अपने जेहन में भर लिया....
सारी रात घटाएं रोती रहीं,
लोग कहते हैं -
' अच्छी बारिश हुई '

(३)
घर तो यहाँ बहुत मिले
पर,
हर कमरे में कोई रोता है !
मेरे पास कोई कहानी नहीं,
कोई गीत नहीं,
मीठी गोली नहीं,
चाभीवाले सपने नहीं....
कैसे चुप कराऊँ ?
सपने कैसे दिखाऊं? -
कोई सोता भी तो नहीं.........

(४)
समुद्र मंथन से क्या होगा !
क्या होगा अमृत पाकर?
क्या मन की दीवारें गिर जायेंगी?
क्या जीने से उकताहट नहीं होगी?
क्या अमृत तुम्हारा स्वभाव बदल देगी?
............... इन प्रश्नों का मंथन करो
संभव हो - तो,
कोई उत्तर ढूंढ लाओ !

03 सितंबर, 2008

सार की खोज....


आकाश की ऊँचाई ,
धरती का आँचल ,
चाँद की स्निग्धता ,
तारों की आँख मिचौली ,
हवाओं की शोखी ,
शाम की लालिमा ,
पक्षियों का घर लौटना.....
क्रमवार मैं इसमें जीती हूँ !
पर्वतों का अटल स्वरुप ,
इंसानों का अविस्मरनीय परिवेश -
मैं बहुत कुछ सीखती हूँ....
मैं एकलव्य की तरह
इनसे शिक्षा लेती हूँ
फिर दक्षिणा में,
अपने स्वरुप का वह हिस्सा देती हूँ,
जो उनका प्रतिविम्ब लगे !
अपने अन्दर ,
मैं - धरती,आकाश,हवा,पक्षी,शाम,पर्वत.....
और इंसानियत लेकर चलती हूँ
क्योंकि मुझे सार की खोज है.........................

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...