30 अक्तूबर, 2018

समय हर बार कहता है




जब कोई हमें neglect करता है तो हम अपने अपमान में सोचते हैं, हम हार   गए ।
वक़्त लगता है इस समझ के सुकून को पाने में कि हम हारे नहीं, हम बच गए असली जीत के लिए । और रही बात अपमान की, तो यह अपमान सही मायनों में उनका होता है, जो ग़लत करने से रोकते हैं, जो बेइन्तहां प्यार करते हैं ।
अम्मा (स्व सरस्वती प्रसाद) ने इसे सहज भाव से समझने के लिए "मन का रथ" ही लिख दिया है -

"मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
आंधी से तूफाँ से हाथ मिलाना होगा
अंगारों पे चलके मुझे दिखाना होगा
लोग तभी जानेंगे हस्ती क्या होती है
अंगूरी प्याले की मस्ती क्या होती है
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वह केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं.."

इस रथ के घोड़े अपने नशे में होते हैं, तो नशा उतरते असलियत सामने होती है ।
कोई भी व्यक्ति पूरी तरह सही नहीं होता है, इसलिए उसको समझाने से पहले समझना भी होता है । सच भयानक लगता है सुनने में, लेकिन सच कह देना ज़रूरी भी होता है । हाँ इकतरफा कभी नहीं ।
     रथ के पहिये जब अलग हो जाते हैं,और जहाँ से यह बात आती है कि सब मिलजुल अब साथ ही रहना, वहाँ से, बुद्धि-विवेक को अनदेखा करना ख़ुद से ख़ुद का अपमान है । फिर सामनेवाला दोषी नहीं होता, क्योंकि उसने अपने सत्य को उजागर कर दिया था ।
समय गवाह है, जब जब हमने देखे हुए,भोगे  गए सत्य को अनदेखा किया है, वर्तमान शूल बनकर चुभता है । रोओ, लेकिन इसलिए रोओ कि ईश्वर ने तुम्हें चेतावनी दी, बड़ों ने समझाया ... और तुमने सुनकर भी अनसुना किया ।
"मेरी ख़ुशी, मेरी इच्छा" ... यह सब क्षणिक उन्माद है ।
उन्माद को जीना चाहते हो तो जियो, और मजबूत बनो -क्योंकि उन्मादित लहरें दिशाहीन होती हैं ।
कभी मत कहो कि हमें पता नहीं चला" एक बार ऐसा हो सकता है, बार बार नहीं । समय हर बार कहता है, "रे मूरख, अब तू पछतायेगा,टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा" !
सार यही है, कि ईश्वर ने जो तुमको दिया है, उसे गंवाओ मत, और जो तुम्हारे लिए नहीं, उसके पीछे भागो मत । भागना है तो उसके जैसा बनने की क्षमता लाओ, एक ही मुखौटा सही - अपने लिए भी लाओ ।

26 अक्तूबर, 2018

इंतज़ार




वो जो सड़कों,शहरों,दो देशों की दूरियाँ है,
वह तुम्हारे लिए,मेरे आगे हैं
तो निःसंदेह, मेरे लिए तुम्हारे आगे भी हैं ।
बेचैनी बराबर भले न हो,
तुम समझदार हो,
मैं नासमझ ...
पर,
होंगी न !
कुछ बातें कह सुनाने को,
मेरे अंदर घुमड़ती हैं,
तो कुछ तो तुम्हारे भीतर भी सर उठाती होंगी ।
तुम्हें छूकर,
मेरे अंदर संगीत बजता है,
एक जलतरंग की चाह में,
तुम भी मेरे गले लग जाना चाहते होगे ।
रिश्तों के आगे,
उम्र की कैसी बाधा !
समय,लोग,संकोच के आगे रुक जाने से,
न समय समझेगा,
न लोग,
ना ही संकोच ...
सड़क,शहर,देश की दूरियां,
ज्यों ज्यों बढ़ेंगी,
बेचैनियां सर पटकेंगी,
और अगली बार तक
क्या पता मैं रहूँ ना रहूँ,
जिसके गले लग,
तुम अपने मन के धागे बांध सको !
यूँ यह यकीन रखना,
हर दूरी तय करके,
मैं तुम्हें सुनती हूँ,
सुनती रहूँगी,
और करूँगी इंतज़ार
- बिना कौमा,पूर्णविराम के,
तुम अपनी खामोशियाँ सुना जाओ ।

21 अक्तूबर, 2018

मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ




यज्ञ हो,
महायज्ञ हो ...
मौन हो, शोर हो,
खुशी हो,डूबा हुआ मन हो !
चलायमान मन ...
जाने कितनी अतीत की गलियों से घूम आता है ।
बचपन, रिश्ते,पुकार,शरारतें,हादसे,सपने, ख्याली इत्मीनान ...
सब ठहर से गए हैं !
पहले इनकी याद में,
बोलती थी,
तो बोलती चली जाती थी !
तब भी यह एहसास था
कि सामनेवाला सुनना नहीं चाहता,
उसे कोई दिलचस्पी नहीं है,
हो भी क्यूँ !!!
लेकिन मैं, जीती जागती टेपरिकॉर्डर -
बजना शुरू करती थी,
तो बस बजती ही जाती थी ।
देख लेती थी अपने भावों को,
सामनेवाले के चेहरे पर,
और एक सुकून से भर जाती थी,
कि चलो दर्द का रिश्ता बना लिया,
माँ कहती थी, दर्द के रिश्ते से बड़ा,
कोई रिश्ता नहीं !
ख़ुद नासमझ सी थी,
मुझे भी बना दिया ।
यूँ यह नासमझी,
बातों का सिरा थी,
लगता था - कह सुनाने को,
रो लेने को,
कुछ" है ... भ्रम ही सही ।
चहल पहल बनी रहती अपने व्यवहार से,
क्योंकि सामनेवाला सिर्फ़ द्रष्टा और श्रोता होता !
ईश्वर जाने,
कुछ सुनता भी था
या मन ही मन भुनभुनाता था,
मेरे गले पड़ जाने पर !
सच भी है,
"कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त"
और दूसरी ओर
दूसरों की ख़ुशी बर्दाश्त किसे होती है !
..
लेकिन, भिक्षाटन में मुझे दर्द मिला,
और उसे सहने की ताकत,
तो जिससे प्यार जैसा कुछ महसूस होता,
देना चाहती थी एक मुट्ठी,
पर झटक दिया द्रष्टा,श्रोता ने !
"आपकी बात और है,हम क्यूँ करेंगे भिक्षाटन!"
अचंभित, आहत होकर सोचती रही,
हमें कौन सी भिक्षा चाहिए थी
जो भी था, समय का हिसाब किताब था ।
ख़ैर,
सन्नाटा सांयें सांयें करे,
या किसी उम्मीद की हवा चले,
मैं उस घर की सारी खिड़कियाँ खोल देती हूँ,
जिसके बग़ैर मुझे रहने की आदत नहीं ।
बुहारती हूँ,
धूलकणों को साफ़ करती हूँ,
खिलौने वाले कमरे में प्राणप्रतिष्ठित खिलौनों से
बातें करती हूँ,
सबकी चुप्पी,
बेमानी व्यस्तता को,
अपनी सोच से सकारात्मक मान लेती हूँ,
एक दिन जब व्यस्तता नहीं रह जाएगी,
तब उस दिन इस घर,
इन कमरों की ज़रूरत तो होगी न,
जब -
गुनगुनाती,
सपने देखती,
मैं उन अपनों को दिखूंगी,
जिनके लिए,
मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ,
और ना ही कमरों में सीलन हुई !
सकारात्मक प्रतीक्षा बनी रहे,
अतीत,वर्तमान,भविष्य की गलियों में सपने बटोरती मैं
- यही प्रार्थना करती हूँ ।

15 अक्तूबर, 2018

एक कविता हूँ - अतुकांत !




मैं कोई कहानी नहीं,
एक कविता हूँ - अतुकांत !
पढ़ सकते हो इसे सिलसिले से
यदि तुमने कुछ काटने के दौरान
काट ली हो अपनी ऊँगली,
और उसका भय,
उसका दर्द याद रह गया हो !
तुम समझ सकोगे अर्थ,
यदि तुमने थोड़े बचे अन्न के दानों को देखकर सोचा हो,
कि लूँ या किसी और के लिए रहने दूँ ।
तुम्हारी ख़ास पसन्द की लाइब्रेरी में शामिल हो जाएगी,
यदि किसी भी चकाचौंध में तुम,
पैबन्द भरी जिंदगी के मायने न भूल पाओ तो !
यत्र तत्र बिखरे से शब्द,
तुम्हारी आँखों में पनाह पा लेंगे,
यदि आकस्मिक आँधियों में,
तुम्हारा बहुत कुछ सहेजा हुआ
बिखर गया हो,
गुम हो गया हो !
सर से पांव तक लिखी कविता,
जरा भी लम्बी नहीं,
बेतुकी भी उनके लिए है,
जो ज़िन्दगी के गहरे अंधे कुंए से नहीं गुजरे,
रास्तों को पुख़्ता नहीं किया,
बस पैसे की कोटपीस खेलते रहे ...

13 अक्तूबर, 2018

चीख भर जाए तो अपना आह्वान करो




#me too

दर्द कहने से दर्द दर्द नहीं रह जाता ।
उफ़नते आक्रोश,
बहते आँसुओं के आगे कोई हल नहीं ।
माँ कहती है, चुप रह जाओ,
झिड़क देती है,
उसके साथ नानी ने भी यही किया था,
क्योंकि, कहने के बाद -
जितने मुँह,
उतनी बातें होंगी !
भयानक हादसों के चश्मदीद,
क्या करते हैं ?
इतिहास गवाह है ...
बेहतर है,
आगे बढ़ो ।
गिद्ध अपनी आदत नहीं बदलेगा,
समाज ढिंढोरा पीटेगा,
नाते-रिश्तेदार कहानी सुनेंगे,
नौटंकी' कहकर,
उपहास करेंगे,
... इसलिए इन गन्दी नालियों को पार करो,
दुर्गंध उजबुजाहट भरे तो थूको,
आगे बढ़ो ...
एक चीख भर जाए भीतर,
तो अपने उस अस्तित्व का आह्वान करो,
जिसे माँ दुर्गा कहते हैं ,
अपनी पूजा ख़ुद करो ।

01 अक्तूबर, 2018

एक मौसम था




कट्टमकुट्टी का खेल,
बात बात पे लड़ने का आनन्द,
टिकोले चुनने का सुख,
लेमनचूस को,
जीभ के नीचे छुपाकर
ख़त्म हो जाने का नाटक,
कबड्डी में धीरे से सांस लेकर
नहीं मानने की तमतमाहट
... एक मौसम ही था,
जो ख़रगोश बनने की जुनून में,
ख़त्म ही हो गया ।
छत की खाट,
चार डंडे से लगी मसहरी,
सर्र से छूती हवा,
और गहरी नींद ...
जाने कहाँ रह गया वह सुकून ।
4 से 5
5 से 6 इंच,...
मोटे से मोटे होते गए गद्दे,
बीमारी का सबब बन गए ।
न रेस्तरां में वो बात है,
न कैफ़े में,
मिट्टी के चूल्हे पर बड़ी सी कड़ाही में
जो कचरी
और नमकीन सेव बनता था,
उसका स्वाद ही अनोखा था !
अपने घर के छोटे हरे मैदान में,
क्रिकेट का मैच,
सावधानी की हिदायतें,
बावजूद इसके,
खिड़की के शीशे का टूटना,
चेहरे पर बॉल का लगना,
फिर चीख-पुकार,
कोई तो लौटा लाओ ।
पेड़ से लटका रस्सी का झूला,
रईसी में लगा लकड़ी का पीढ़ा
ऊँची, और ऊँची पींगे,
हवा और बचपन की गलबहियां,
कुछ नहीं दिखाई देता,
धूल भरे पाँव को
साफ़ सुथरे घर में,
उधम मचाने की इजाज़त नहीं,
कीचड़ का तो सवाल ही नहीं ...
सबकुछ सबके हिसाब से
कीमती हो गया है,
साड़ी से पर्दे बनवाकर,
उसे छूकर,
 जो गुदगुदी लगती थी,
अब कहाँ !
मिट्टी के आँगन को,
गोबर से लीपकर,
जब पूजा की तैयारी चलती थी,
तो आस पड़ोस से आनेवालों से भी
अगर की खुशबू आती थी,
पूरा घर पवित्तर हो जाता था ...
कट्टमकुट्टी के खेल को,
हमने बड़ी संजीदगी से ले लिया,
छोटी छोटी खुशियों को,
व्यवहारिकता से काट दिया ।

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...