29 दिसंबर, 2013

कितने दोहरे मापदंड !





व्यक्ति व्यक्ति से बने समाज के 
कितने दोहरे मापदंड हैं !
पत्नी की मृत्यु होते 
उम्र से परे,बच्चों से परे 
पति के एकाकी जीवन की चिंता करता है 
खाना-बच्चे तो बहाना होते हैं 
.... 
पत्नी पर जब हाथ उठाता है पति 
तो समवेत स्वर में प्रायः सभी कहते हैं 
"ज़िद्दी औरत है 
…………"
किसी अन्य स्त्री से जुड़ जाए पति 
तो पत्नी में खोट !
पत्नी को बच्चा न हो 
तो बाँझ' बनी वह तिरस्कृत बोल सुनती है 
दासी बनी दूसरी औरत को स्वीकार करती है 
वंश" के नाम पर !

वंश' भी पुत्र से !!!

निःसंदेह, पुरुष एक ताकत है 
शरीर से सक्षम 
पर स्त्री के मन की ताकत को अनदेखा कैसे कर सकते हैं !
या फिर कैसे उस अबला (!!!) के साथ 
न्याय को बदल देते हैं ?

जिस वंश को 9 महीने खुद की शक्ति देती है स्त्री 
और मृत्यु समकक्ष दर्द से जूझकर 
जिसे धरती पर लाती है 
जिसके रुदन को अपने सीने में जब्त करती है 
और प्राणों में ममता का सामर्थ्य भरती है 
उसके साथ सोच की हर कड़ी दूसरा रूप लेती है  .... 

पति की मृत्यु - स्त्री अभागी 
किसी का बेटा खा गई !
विवाह कर लिया तो कलंकिनी !
खुद की रक्षा में हाथ उठा दिया 
तब तो राक्षसी !
पति बच्चा नहीं दे सकता 
तो उसकी इज्जत पत्नी की ख़ामोशी में 
!!!!!!!!!!!!!
परिवार स्त्री-पुरुष से 
समाज स्त्री-पुरुष से 
संतान स्त्री-पुरुष से 
तो कुछ गलत होने का कारण सिर्फ स्त्री क्यूँ ?

पुरुष रक्षक है स्त्री का 
पर जब भक्षक बन जाए 
तो स्त्री के प्रति नज़रिया क्यूँ बदल जाता है ?
कम उम्र में स्त्री विधवा हो जाए 
या तलाकशुदा 
तो उसके विवाह पर आपत्ति क्यूँ ?
उसकी जिंदगी में तो गिद्ध मँडराने लगते हैं 
ऊँगली उठाते लोग 
उसे खा जाने का मौका ढूँढ़ते हैं 
दूर की हटाओ 
घर बैठे रिश्तों की नियत बदल जाती है 
फिर यह दोहरा मापदंड क्यूँ ???

22 दिसंबर, 2013

प्राकृतिक उद्देश्य




मैं जमीन पर ही कल्पना करती हूँ 
जमीन पर ही जीती हूँ 
यूँ कई बार 
हौसलों की खातिर 
क्षितिज से मिल आती हूँ :) … 
ले आती हूँ थोड़ी चिंगारी 
जंगल में फैली आग से 
समेट लाती हूँ कुछ कतरे 
जमीन पर खड़े रहने के लिए 
जल,वायु,अग्नि,धरती - आकाश से  
सूरज से वाष्पित कर अपने को 
मैं आकाश से जमीन पर उतरती हूँ 
और गंगा बनने का हर सम्भव प्रयास करती हूँ  … 
क्षितिज खुले आकाश में 
धरती के सीने से दिखता है 
सूरज को मुट्ठी में भरने की ख्वाहिश 
धरती से होती है 
तो जमीनी कल्पना में ही 
मुझे जमीनी हकीकत मिलती है 
जमीनी ख़ुशी जमीनी दुःख 
जमीन से जुड़ा ज़मीर 
जमीन से उगती तक़दीर 
यही मेरी सम्पत्ति है 
इसी सम्पत्ति से मैं स्वयं का निर्माण करती हूँ 
और शिव की जटाओं से निःसृत होती हूँ 
……… धरती के गर्भ में पावन गंगा सी बहती हूँ 
जमीनी हकीकत जब पवित्र नहीं रह जाती 
तब काल्पनिक पाताल में अदृश्य हो 
शिव तांडव में प्रगट होती हूँ 
न स्वयं को खोती हूँ 
न स्वयं में खोती हूँ 
मैं जमीनी कल्पना और हकीकत के बीच 
निरंतर जागती हूँ 
भयाक्रांत करती लपटों से घिरकर 
अविचल 
कल्पनाओं का जाप 
हकीकत के तपिश में करती हूँ 
हकीकत का जीर्णोद्धार 
कल्पनाओं के रंगों से करते हुए 
सृष्टि के गर्भ में अदृश्य कारीगरों का आह्वान करती हूँ 
कल्पना और हकीकत को एकसार करने में 
मैं पल पल जीती हूँ 
पल पल अपने जन्म को एक काल्पनिक सार्थकता देते हुए 
मैं हकीकत के ऐतिहासिक पन्नों में उतरती हूँ 
कल्पना को हकीकत 
हकीकत को कल्पना 
- जमीन से जुड़ा मेरा प्राकृतिक उद्देश्य है 

15 दिसंबर, 2013

मौसम ....! और आदमी !!







मौसम  ....!
और आदमी  !
हर साल गर्मी,बारिश और ठण्ड का कहर होता है
टूटी झोपड़ियाँ,
फुटपाथ पर ठिठुरती ज़िन्दगी
हर साल की खबर है
मरनेवाला यूँ ही बेनाम मर जाता है  …
म्युंसिपैलिटी वाले ले जाते हैं लाश को
कई चेहरों की कोई शिनाख्त नहीं होती
ना ही होती है कोई फ़ाइल
जिसमें कोई पहचान हो

किसी गटर में होता है रोता हुआ बच्चा हर साल
लोग भीड़ लगाकर देखते हैं
बुद्धिजीवी बने कहते हैं
- लावारिस, होगा किसी का नाजायज पाप !
क्या सच में ?
बच्चे नाजायज होते हैं क्या ?
ओह ! यह प्रश्न मैं किसी से भी नहीं उठा रही
कर रही हूँ प्रलाप
क्योंकि हर साल जो घटित होता है
उसपर चर्चा कैसी !

बात तो इतनी है
कि गरीब न हो तो अमीर की पहचान कैसी
फुटपाथ पर कोई बेसहारा न हो
तो विषय क्या
बच्चे को नाजायज न कहें
तो नाजायज पिता की शादी कैसे होगी
जायज बच्चों की परवरिश कैसे होगी
और नाजायज माँ का जनाजा कैसे निकलेगा
या फिर वह नई नवेली अल्हड दुल्हन कैसे बनेगी !

घोटाले मौसम और आदमी के
हर साल होते हैं
बस आकड़े बढ़ते-बढ़ते हैं
घटने के आसार न कभी थे,न होंगे !!!

06 दिसंबर, 2013

कुछ झूठ कुछ लीपापोती सबसे बड़ी पूजा होती है






अम्मा का लिखा हर दिन टाइप करती हूँ  … 

जितनी बार किसी किताब को पढ़ो 
अर्थ उतने ही स्पष्ट होते हैं !
एक क्षण में हम निर्णयात्मक धारणा नहीं बना सकते 
यूँ वह तो वर्षों तक नहीं बनाया जा सकता 
क्योंकि हमारी किसी भी सोच में 
कई सोच का छौंक लगा होता है 
.... !!! पर, जब पूरी पुस्तक खत्म हो जाती है 
तो एक सार जो रह जाता है 
वह सिर्फ अपना होता है 
और वही सार उस व्यक्ति,उसके व्यक्तित्व की 
असलियत होती है - हमारे लिए !
हाँ तो रोज एक याद को टाइप करते 
मैं स्वतः अम्मा बन जाती हूँ (अगर तुम टाइप करो तो तुम भी बन जाओगे)
और साल 64 से 
एक विक्षिप्त माँ की सोच को 
जिसका 4 साल का बेटा 
कहकर गया -'ठहरो माँ,मैं अभी आया'
और  … 
हर सुबह,हर दिन 
हर शाम,हर रात महसूस करती हूँ !
.... 
ज़िन्दगी में जब हम किसी गहरे आघात से गुजरते हैं 
तो उसके छींटे 
ख़ुशी,दुःख सबमें नज़र आते हैं 
नहीं चाहते हुए भी कई बार मुँह से निकल जाता है !
इसमें सही-गलत की परिभाषा नहीं लागू हो सकती 
 क्योंकि थोडा-बहुत हर कोई इस रास्ते पर होता है 
.... 
पापा कहते थे -
किसी गहराई को मापने के लिए 
उस जगह खुद को रखो 
रखते रखते उम्र निकल गई 
और हम वहीँ अडिग नहीं खड़े रह सके 
जहाँ होना चाहिए था 
उल्टे हम उन लोगों की तरफ से बोलने लगे 
जिनकी नियत थी - हम उलझ जाएँ !
आह - 
हम उलझते गए 
और अपना मूल्यवान वक़्त खोते गए 
और सबकुछ होते हुए भी 
अम्मा की तरह खोने के गम जैसे धागे से 
कुछ बुनते गए 
यह कुछ - कितना खोखला है 
इससे न ठण्ड जाती है 
न ओढ़कर मीठे सपने आते हैं 
.... 
अब जाना, 
तुम भी जानो 
(सम्भवतः जानते भी होगे)
कि लीपापोती एक ज़रूरी पूजा है 
झूठ के अर्घ्य से यदि हम खुलकर हंस लेते हैं 
तो हर्ज ही क्या है मान लेने में 
!
ज़िन्दगी की चाल बड़ी तेज और रहस्यात्मक है 
कहीं जगमगाती धरती मिलती है 
तो कभी - एक क्षण में पैरों के नीचे से धरती हट जाती है 
किस उहापोह में हम अपने ही आगे मकड़ जाल बुन रहे हैं 
कौन फँसेगा ? 
फंस भी गया तो न हर्ष मना सकोगे 
न दुःख  … 
क्योंकि फिर हम तुम 
किसी और धारा में बह जायेंगे !!!!!!!!!!!!!!!!!!

श्रेष्ठता की चाभियों का गुच्छा 
कमर से लगाकर क्या होगा 
यदि एक झूठ को झूठ जानते हुए भी 
सच मानकर 
हम गले लगकर रो नहीं सके 
तो - सबकुछ व्यर्थ है 
रिश्तों की मजबूती धैर्य देती है 
और इसके लिए कुछ झूठ 
कुछ लीपापोती सबसे बड़ी पूजा होती है 
 

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...