27 जनवरी, 2018

दुर्भाग्य - सौभाग्य




दुर्भाग्य प्रबल था
जब काली अंधेरी रात में
 कृष्ण को लेकर
वसुदेव गोकुल चले थे
.... मूसलाधार बारिश का कहर
जिसके आगे
अनोखा सौभाग्य खड़ा था
माँ यशोदा के आंगन में
यमुना किनारे
गोपियों के जीवन में
राधा की आंखों में ..

दुर्भाग्य प्रबल था
जब 14 वर्ष बिताकर
गोकुल को छोड़कर
कृष्ण मथुरा चले
पर अद्भुत सौभाग्य खड़ा था
माँ देवकी के आगे
सात बच्चों को अपने आगे गंवाकर
आठवें को दूर भेजकर
उन्होंने जो पीड़ा सही थी
वह  युवा खुशी बन उनकी आंखों से बह रहा था
मथुरा का उद्धार निकट था
कंस का विनाश
....

दुर्भाग्य प्रबल था
जब दुर्योधन ने भरी सभा में सबके आगे
कृष्ण का अपमान किया
बाँध लेने की धृष्टता दिखाई
और बुज़ुर्गों से सुसज्जित सभा चुप रही
मन ही मन क्षुब्ध होती रही
लेकिन सौभाग्य
न्याय का सुदर्शन चक्र लिए
कुरुक्षेत्र में खड़ा था
प्रत्येक छल,झूठ का उचित जवाब लिए
....
दुर्भाग्य प्रबल था जब राम वनवास हुआ
लेकिन सौभाग्य खड़ा था
केवट के आगे
अहिल्या के आगे
शबरी के आगे
...
दुर्भाग्य प्रबल था सीता हरण में
सौभाग्य खड़ा था
हनुमान के आगे
सुग्रीव के आगे  ...
अर्थात
 जब भी  दुर्भाग्य प्रबल हुआ है
प्रभु की लीला सौभाग्य बनकर आगे रही है 


10 जनवरी, 2018

शून्य से बेहतर कुछ भी नहीं




जब मैं पहली बार गिरी
तो सुना
कोई बात नहीं ...
होता है,
गिरकर उठकर फिर से चलना होता है !
मैंने बड़ी बड़ी आंखों से
अपने अबोध मन में
इसे स्वीकार किया
गिरी,
 उठी ...
और बढ़ती गई !
एक दिन मेरे आगे पहाड़ आ गया
अब ?!?!
तब भी पांव बढ़ाया
डगमगाई
एक नहीं
कई बार गिरी
चोट नहीं
बहुत चोट आई
लेकिन नहीं घबराई
पार कर गई पहाड़ !
जब उतरी
तो पाँव के नीचे धधकते अंगारे थे
चीख निकली
पार करने को हाथ बढ़ाया
... ओह !
जिसने पकड़ा
उसकी पकड़ रावण से भी मजबूत थी
क्योंकि मंदोदरी भी साथ थी
तृण मेरा मन था
मैंने सारे सच सामने रख दिये
और देखनेवाले
सुननेवाले कानून की देवी बन गए
साथ ही ज़ुबान पर भी पट्टी बांध ली
अंततः मैं ही
सामाजिक,पारिवारिक कोर्ट से भाग गई
कैक्टस से भरे रास्तों को
नन्हें नन्हें हाथों की सहायता से साफ किया
तुलसी का पौधा लगाया
साई विभूति से कोना कोना सुवासित किया
रक्षा हेतु त्रिशूल रखा
वक़्त को स्फटिक में देखते हुए
उसे रक्षा मन्त्र से भर दिया
....
इससे परे -
तोड़ने की
आग लगाने की
शह और मात चलती रही
अपशब्दों के कचरे से
मन के सुवासित कमरों में
दुर्गंध भरने लगी
और साफ करते करते
सच बोलते बोलते
अकस्मात बिलखकर रोते हुए
मैंने अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली
होठों को सख्ती से सी दिया
..
 करने लगी मनन
नींद की दवा को भी बेअसर बनाकर
जागने लगी
और जाना
तर्क, कुतर्क से
सत्य,असत्य से
तप से ... जो भी निष्कर्ष निकला है
वह है शून्य
!!!
यदि शून्य में तुमने जीना सीख लिया
तो शून्य से बेहतर
कोई सहयात्री नहीं
कोई सच नहीं
कोई धर्म नहीं
कोई न्याय नहीं
कोई सुकून नहीं
...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...