28 नवंबर, 2019

फिर दोहराया जाए




पहले पूरे घर में
ढेर सारे कैलेंडर टँगे होते थे ।
भगवान जी के बड़े बड़े कैलेंडर,
हीरो हीरोइन के,
प्राकृतिक दृश्य वाले, ...
साइड टेबल पर छोटा सा कैलेंडर
रईसी रहन सहन की तरह
गिने चुने घरों में ही होते थे
फ्रिज और रेडियोग्राम की तरह !
तब कैलेंडर मांग भी लिए जाते थे,
नहीं मिलते तो ...चुरा भी लिए जाते थे
अब बहुत कम कैलेंडर देखने को मिलते हैं,
नहीं के बराबर ।
नए साल की डायरी का भी एक खास नशा था !
कुछ लिखते हुए
एक अलग सी दुनिया का एहसास होता,
दूसरे की डायरी चुराकर पढ़ने की
कोशिश होती,
फिर बिना कुछ सोचे समझे
उसकी व्याख्या होती
लिखनेवाले को आड़े हाथ लिया जाता ।
ऐसी स्थिति में,
लिखनेवाला भी लिखने से पहले
सौ बार नहीं,
तो दस बार जरूर सोचता
और छुपाने के लिए
ड्राइंग रूम के सोफे का गद्दा,
पलंग के गद्दे के बीच की जगह,
आलमारी के पीछे की जगह ढूंढी जाती
...चलो भाई, ज़रा रिवाइंड होकर टहलते हैं
कम से कम वहाँ तक
जहाँ हम जीभ दिखाकर
जीत जाते थे,
ठेंगा दिखाकर
भड़ास बची रही तो
दांत से हथेली या कलाई काट लेते थे
फिर भी दोस्त बने रहते थे
बीते शाम की कट्टिस
अगली शाम तक दोस्ती में बदल जाती थी तो क्यों न फिर से
कुछ कैलेंडर खरीदे जाएं
कुछ डायरियों को ज़िन्दगी दी जाए
बचपन के दिनों को
एक बार फिर
दोहराया जाए
खुशियों के घाट पर
छपक छइया खेला जाए
चलो ना !
ये जो ख्वाहिश जागी है
क्या पता,
कल फिर जगे ना जगे !

23 नवंबर, 2019

अंतिम विकल्प या दूसरा अध्याय 





मृत्यु अंतिम विकल्प है जीवन का
या जीवन का दूसरा अध्याय है ?
जहाँ हम सही मायनों में
आत्मा के साथ चलते हैं
या फिर अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति का
रहस्यात्मक खेल खेलते हैं ?!
औघड़,तांत्रिक शव घाट पर ही
खुद को साधते हैं
... आखिर क्यों !
जानवरों की तरह मांस भक्षण करते हैं
मदिरा का सेवन किसी खोपड़ी से करते हुए,
वे सामने से गुजरते व्यक्ति को कुछ भी कह देते हैं !!
यह क्या है ?
कितनी बार सोचा है,
बैठकर किसी औघड़ के पास
उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझाऊँ ...
क्या सच में कोई मृत्यु रहस्य उन्हें मालूम है,
या यह उनके भीतर के जीवन मृत्यु का द्वंद्व है !,
ध्यान समाधान है
अथवा नशे में धुत नृत्य !
खामोशी
स्वयं को निर्वाक कर लेने का
स्रोत है कोई
या किसी अंतहीन चीख की अनुगूंज !!
जो जीवित दिखाई दे रहे,
वे क्या सचमुच जीवित है
जिनके आगे हम राम नाम की सत्यता का जाप करते हैं
वे क्या सचमुच मूक बधिर हो चुके हैं ?
सत्य की प्रतिध्वनि मिल जाये
तो सम्भवतः जीवन का रहस्य खुले ...

12 नवंबर, 2019

मेरे सहयात्री




मन को बहलाने
और भरमाने के लिए
मैंने कुछ ताखों पर
तुम्हारे होने की बुनियाद रख दी ।
खुद में खुद से बातें करते हुए
मैंने उस होने में प्राण प्रतिष्ठा की,
फिर सहयात्री बन साथ चलने लगी,
चलाने लगी ...
लोगों ने कहा, पागल हो !
भ्रम में चलती हो,
बिना कोई नाम दिए,
कैसे कोई ख्याली बुत बना सकती हो !
लेकिन मैंने बनाया था तुम्हें
ईश्वर की मानिंद
तभी तो
कई बार तुम्हें तोड़ा,
और तुम जुड़े रहे,
किसी भी नाम से परे,
रहे मेरे सहयात्री,
मेरी हार-जीत का अर्थ बताते रहे,
शून्य की व्याख्या करते हुए
अपने साथ मुझे भी विराट
और सूक्ष्म बना दिया ।

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...