13 जनवरी, 2019

मैं लिखूँगी उनका नाम




नहीं लिखूँगी मैं उनका नाम
स्वर्णाक्षरों में,
जिन्होंने तार तार होकर भी
विनम्रता का पाठ पढ़ाया
सम्मान खोकर
झुकना सिखाया
और रात भर देखते रहे छत
और अचानक
 बन्द कर ली आँखें !!!
इस स्वभाव ने जो भी सुकून दिया हो
उनके घाव हरे रहे।
...
मैं उनका नाम कत्तई नहीं लिखूँगी,
जो हर सही ग़लत पर
अपने हठ की मुहर लगाते हैं,
लेकिन सहनशीलता का पाठ पढ़ाते हैं,
और बड़ी सख़्ती से !!!
...
कुछ नाम बड़े ज़िद्दी होते हैं,
हाथ झटककर आगे बढ़ जाते हैं
ख़ुद को ऐसा दिखाते हैं
कि उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
लेकिन किसी मोहक सम्बन्ध से
यादों से
वे नहीं उबरते,
आवेश में भी उनका अनिष्ट नहीं चाहते,
ना ही उनकी प्रतीक्षा से निर्विकार होते हैं
मैं लिखूँगी उनका नाम
हर जगह की मिट्टी पर
एक बीज की तरह
ताकि उनकी जड़ें मजबूत रहें !
कभी जब सारे रास्ते बंद मिलें
तब उनके नाम की सरसराहट
शीतल,मंद हवा की तरह
कई अनोखे पल याद दिलाये
सच का सामना कराते हुए
ये पौधे,
ये वृक्ष
आपको अपने पास जी भरकर रोने का मौका दें
आपके घाव सूख जायें ... !
झूठे अहम के कीचड़ से
आप मुक्ति पायें
स्वर्ण और मिट्टी का अंतर
आपके रोम रोम में स्थापित हो
समय ऐतिहासिक गवाह बन जाए ।

03 जनवरी, 2019

यह जादू, चलता रहे चलता रहे चलता रहे ...



चाहती हूँ, फिर से अपने बच्चों के लिए परी बन जाऊँ,
उनकी आंखों के आगे जादू की छड़ी घुमाउँ,
उनकी टिमटिमाती आंखों में निश्चिंतता की मुस्कान भर दूँ ।
मुझे पता है,
मैं आज भी उनके लिए परी हूँ,
उनको मेरी अदृश्य जादुई छड़ी पर विश्वास है,
और वे हो जाते हैं निश्चिंत ।
लेकिन,
बुद्धि !!!
अचानक प्रश्न उठाती है,
क्या सच मे माँ जादू कर पाएगी !
यह भय दूर रहे,
मेरी माँ सी ईश्वरीय छड़ी,
उनके सारे सपनों को पूरा करे,
खुल जा सिम सिम कहते,
सारे बन्द दरवाज़े खुल जाएं
और उनकी मासूम हँसी से,
मेरे थके मन को स्फूर्ति मिल जाए
...हाँ,
यह दोतरफा जादू,
चलता रहे चलता रहे चलता रहे ...

01 जनवरी, 2019

नए वर्ष की पहचान लौटाएं ...





कैलेंडर के पन्ने बदल देने से
31 दिसम्बर से 1 जनवरी हो जाने में
वर्ष ना पुराना होता है
ना नया ।
दोनों लम्हें
किसी मुंडेर पर
साथ बैठ जाते हैं।
बीते लम्हों का किस्सा
नए लम्हों को
नई सोच देने की कोशिश करता है !
पूछता है वो बीता लम्हा संजीदगी से,
"लिया था जो संकल्प पहले,
उसे निभाया क्या ईमानदारी से,
जो नए संकल्प आज उठा रहे ?"
सुबह तो रोज होती है,
तारीखें भी रोज बदलती हैं,
उसी बदलने के क्रम में
वर्ष बदल जाता है,
और शुरू होती है 365 दिनों की दौड़ ,
जो सदियों से जारी है
जारी रहेगी।
साल, युग तो तब बदलेगा
जब तुम्हारी सोच में सूर्योदय हो
...
आओ हम आह्वान करें
मन की दहलीज पर
सूर्योदय की प्रतीक्षा करें
जो परम्पराएं हमें जोड़ती थीं,
उनका सम्मान करें,
बड़ों का आशीष ले,
छोटों को आशीष देकर
नए वर्ष की पहचान लौटाएं  ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...