21 जून, 2019

गौर कीजियेगा




प्रेम विवाह हो
या तय की गई शादी
या कोई भी रिश्ता,
अनबन की वजहें प्रायः वह नहीं होतीं,
जो उनकी लड़ाई में दिखाई देती हैं,
या शब्दों में सुनाई देती हैं !
विशेषकर तब ,
जब कोई एक पक्ष आत्महत्या कर ले !!
मुमकिन है वे वजहें उनके द्वारा नहीं उठाई गई हों,
बल्कि सौगात में मिली हो ।
जैसे,
मज़ाक करनेवाले
ठहाके लगाते,
लड़की या लड़के को कहते हैं
"तुमने उसको कैसे पसन्द किया,
वह तो तुम्हारे आगे कुछ नहीं "
यह एक मज़ाक,
हर बार आईने के आगे आता है ...
बुद्धिजीवी की तरह यह कहना आसान है,
कि मज़ाक को मज़ाक की तरह लेना चाहिए,
या-
अर्रे इसे दिल पर लेने की क्या ज़रूरत !"
आपकी समझदारी ने आपसे कभी कहा
कि ऐसा हल्का मज़ाक नहीं करना चाहिए !!
हमारा एक मज़ाक,
या हमारा शुभचिंतक होना,
किसी की ज़िन्दगी में ज़हर घोल सकता है,
आपसी रिश्तों को बिगाड़ने का सबब बन सकता है ...
कभी गौर कीजियेगा ।

20 जून, 2019

विरासत में मिली व्यथित खामोशी




एक माँ,
या एक पिता,
जब अपनी चुप्पियों का दौर पूरा करके,
अपने बच्चों की दूसरी ज़िन्दगी का
साक्ष्य बनते हैं,
और उनकी ज़िन्दगी में देखते हैं,
वही अनकहा तूफ़ान,
तब वे सही निर्णय नहीं ले पाते !
उनको कभी लगता है
-समय पर विरोध ज़रूरी है,
कभी लगता है,
विरोध से होगा क्या ?!
समाज में बदलाव नहीं आया,
हममें बदलाव नहीं आया
 - सिवाए एक चुप के,
तो यहाँ क्या बदलेगा !!
बच्चे का मन अकुलाता है
उनकी चुप व्यथा से,
वह गरजता है,
आग उगलता है,
आँसू बहाता है ...
फिर अपने बच्चे की ख़ातिर,
ओढ़ लेता है वही व्यथित खामोशी,
जो उसे विरासत में मिली होती है !

18 जून, 2019

कतरा कतरा जीना




माना,
मेरे पास गुलाबों की क्यारी नहीं,
लेकिन मेरे मन की एक पंक्ति
गुलाबों से भरी है ।
माना,
पंक्तिबद्ध रजनीगंधा नहीं,
लेकिन,
मेरा मन उसकी खुशबुओं से भरा है ।
माना,
किसी कोने में बोगनवेलिया नहीं,
लेकिन,
गज्जब की लालिमा छाई रहती है मन में ।
महानगर के छोटे से फ्लैट में,
कपड़े फैलाने के लिए भी भरपूर जगह नहीं,
लेकिन,
जब भी मेरे मन की बालकनी में देखोगे,
पाओगे बसन्त,
जो एक अक्षुण्ण विरासत है ।

माना,
मेरे सिरहाने के पास की छोटी सी मेज पर
एक बोतल,एक ग्लास, तेल,इत्यादि नहीं,
तकिए के नीचे,
कोई कलम डायरी नहीं,
लेकिन मेरे मन के दराज में सबकुछ है-
एक छोटी सी बोतल,
वो ठंडा तेल,
बड,
इयरफोन के ढेरों तार,
रबरबैंड,
डायरी में रोज का प्यार,
थोड़ा गुस्सा,
थोड़ा इंतज़ार,
थोड़ा डूबा डूबा मन,
और शून्य में खोई माँ की कलम से
आड़ी तिरछी खिंची रेखाएं !

मैं मन के घाट पर ही तर्पण अर्पण करती हूँ,
संभाले हुए संदूक में नेप्थलीन की खुशबू,
यह एहसास देती है
कि सबकुछ अपनी जगह पर है ।
मानती हूँ,
मैं मात्र दिखाने,बताने,जताने के लिए
कुछ नहीं करती,
बिना किसी उठापटक के
उसे कतरा कतरा जीती हूँ
हर दिन ।

08 जून, 2019

नहीं चाहिए कोई न्याय



हमें निष्कासित कर दो इस समाज से
हम वीभत्स शब्दों
और घटनाओं से बुरी तरह हिल जाते हैं,
बीमार हो जाते हैं !
नहीं चाहिए कोई न्याय,
उम्मीद ही शेष नहीं रही ।
मुद्दा, बहस और शून्य निष्कर्ष के अतिरिक्त,
कुछ भी नहीं रहा हमारे पास ।
हम नहीं कर सकते बड़ी बड़ी बातें,
सिर्फ कुछेक उदाहरणों के सहारे
नहीं जी सकते,
ज्ञान लेकर क्या होगा?
और कितनी सहनशीलता बढ़ानी होगी?
कैसे मन को एकाग्र करें,
ध्यान में लीन हो जायें,
जब किसी की चीख
हथौड़े की तरह
दिल और दिमाग पर पड़ती है !
नहीं है इतना सामर्थ्य,
कि कभी आदमी मौत के घाट उतारे
कभी प्रकृति
और हम भाषण दें
कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ का असर है,
मीडिया द्वारा परोसे गए दृश्यों का परिणाम है,
आधुनिकता की अंधी दौड़ का असर है !!!
जो भी हो,
हर कोई भुगत रहा है
लेकिन रोकने को कोई तत्त्पर नहीं,
सम्भवतः हिम्मत भी नहीं ।
कौन खुद को आग में डाले,
जब तक अपने नसीब में पानी है,
सब ठीक है ।
लेकिन हम ठीक नहीं,
बहुत बीमार हैं,
बीमार होते जा रहे
बहुत भयानक सपने आते हैं
डर डर के मुस्कुराना,
मुश्किल होता जा रहा है ।
क्या कहूँ,
अपने बच्चे का सर जब सहलाती हूँ
तब जाने किसका घायल बच्चा
मेरे कान में कहता है
- मुझे बचा लो !!!
मैं बेवजह निर्मम होती जा रही हूँ,
सबकुछ अनसुना कर दुआओं के बोल बुदबुदा रही हूँ,
तूफानों के बीच,
अपने पेट की भूख मिटा रही हूँ
...!!!
हमें  निष्कासित कर दो,
हम इस मूक,बहरे समाज में रहने योग्य नहीं रहे ।

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...