कल रात कुछ यादें सुगबुगायीं
पूछा - खैरियत तो है ?
मैं मुस्कुराई ....
यादों को हौसला मिला
बोलीं -
"मैं व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप नहीं करती
पर तुम्हारी लम्बी खामोशी
व्यक्तिगत तो नहीं लगती ! ....
तुम शोर के सैलाब में बह गई हो तिनके के सामान
.....
तुम्हारा यह बहना तुम्हारे लिए नहीं
उनके लिए है - जो तिनके की तलाश में
बदहवास हाथ-पाँव मारते हैं !!
तुम उन्हें एक पल का किनारा देना चाहती हो
अविश्वास की आँधियों के बीच
एक पल भी कितना मुश्किल है
पर तुम उसे देने के लिए
सुनामियों में बह रही हो .....
....
तुम्हें याद भी है
मेरे दरवाज़े .... अरसे से तुम नहीं गुजरी
कितने द्वार प्रतीक्षित हैं
और तुम्हारी आहट ..... कितनी चुप है
यह चुप्पी -
घुमावदार
अनगिनत सोच की लकीरें न खींचती जाए
बेवजह कोई सोच पहाड़ हो जाए
फिर ? .... फिर क्या करोगी ?
तिनके की तरह तैरना गलत नहीं
पर !!! कुछ दूर चलो तो सही
थके मन की मुस्कान बनो
कुछ कहो तो सही ...
बहुत हुआ - अब ये ख़ामोशी तोड़ो
शब्दों के अर्घ्य से
भावनाओं की तिलस्मी गुत्थियाँ खोलो
शब्दों के रिश्तों में प्राणप्रतिष्ठा करो ..........."