उठती हूँ ,
बिखरे बालों को समेट लेती हूँ
दिनचर्या तिरछी नज़रों से देखती है,
लम्बी साँसें भरकर,
शरीर को जगाती हूँ,
मन को झकझोरती हूँ
"अरे उठो न"
झाड़-पोछ,
कुछ बनाना,
गीत गाना,
कुछ कहना-सुनना,
...
कई बार
बस यंत्रवत
सुनती हूँ, कहती हूँ,
पढ़ती हूँ, लिखती हूँ,
पर, कुछ याद नहीं रहता ...
एक ही धुरी पर घूमती हूँ,
बातों को दुहराती हूँ ।
समय को हटाओ,
तारीखें भी देखकर याद आती हैं !
तारीख कोई भी हो,
एक सवाल उठता है
"आज कुछ है क्या"
ओह, कुछ नहीं है,
सोचकर पेट और दिमाग के गुब्बारे
फूटकर शांत हो जाते हैं ।
बेवजह का खौफ़
कुछ भी खाओ,
न स्वाद लगता है,
न पेट भरता है ।
बहुत सवेरे,
या नौ बजे के बाद रात में
मोबाइल के बजते
आंखें मिटमिटाने लगती हैं,
किसी बुरी खबर कीआशंका ...
किसी दुख में,
किसी के ना रहने पर,
आसपास कोई फुरसत वाला कंधा भी नहीं,
जिस पर सर रखकर रो लें,
...इंतज़ार रहता है,
फ़ोन आएगा,
टिकट कटाकर,
स्टेशन,एयरपोर्ट की दूरी तय करके,
बेचैनी को जब्त करके ,
कोई अपना पहुँचेगा ...
तब तक मन
सत्य-असत्य के बाणों से बिंध चुका होता है ।
"आपका समय शुरू होता है अब" से रोना,
संभव नहीं ।
अब क्या हम साधारण लोग भी रुदाली ढूंढेंगे ?
अजीब सी तरक्की है यह,
अजीब सी समानता !
आत्मीयता के आँसू सूख गए हैं,
क्या यह गंगा का शाप है ?
उन बुज़ुर्गों का शाप है,
जिनके फोन की घण्टी भी नहीं बजी,
या शाप है उन देवताओं का,
जिनके आगे कीमती वस्त्र,
भोग रखकर,
आडम्बरयुक्त नृत्य करके,
हम सर्वोच्च भक्त बन गए !
... कुछ तो हुआ है,
क्योंकि कोई एक नहीं,
सबकेसब अकेले हो गए हैं
...
तस्वीरों पर मत जाना,
वह तो एक और सबसे बड़ा झूठ है !!!