अम्मा ने सिखाई संवेदनशीलता
रास थमाई कल्पनाओं की
पापा ने कहा,
जीवन में कमल बनना...
इस सीख के आगे कठिन परीक्षा हुई
अनगिनत हतप्रभ करते व्यवधान आए,
साथ चलते लोगों के बदलते व्यवहार दिखे,
अबोध मन ने प्रश्न उठाया !
यह सब क्यों ?
और कब तक ?
अम्मा ने कहा,
जाने दो,
पापा ने कहा,
उसमें और हममें फ़र्क है ।
हर उम्र,
हर रास्ते पर मैंने इनके शिक्षा मंत्र को
सुवासित रखना चाहा
पर, इस फ़र्क ने,
इस जाने दो ने
मन को एक लंबे समय तक रेगिस्तान बना दिया ।
उसी मरु हुए मन ने
उनको भी गुरु ही मान लिया
जो इसके विपरीत थे ।
मैंने राक्षसी प्रवृत्ति नहीं अपनाई
पर राक्षसों को जाने नहीं दिया !
अपने और उनके फ़र्क को बरक़रार रखा,
और समय आने पर हुंकार किया ।
मेरे हुंकार की बड़ी चर्चा हुई
क्योंकि वह सामयिक था,
तब मैंने मौन धारण किया
और शुष्क दिखाई देने लगी ।
अपनी शुष्कता से मेरे अंदर ही हाहाकार उठा,
बाकी सब तो आलोचक बने ।
मैंने आलोचनाओं के आगे महसूस किया
कि आज भी मेरी शिक्षा में अम्मा,पापा का आरंभ अमिट है ।
पर मैंने आंधियों से भी ज्ञान लिया,
सूखती गंगा,
धराशायी वृक्षों,
पहाड़ों के खत्म होते वजूद से सीखा,
गाली के बदले गाली नहीं दी,
लेकिन सुनी गई गालियों को याद रखा,
.... सबकुछ कृष्ण के न्याय पर छोड़ दिया ।
आज मैं जहां हूं,
उनके रथ से ही आई हूं
और उतना ही किया है,
कहा है,
जितना आदेश उन्होंने दिया है ।
वे कहते हैं,
जाने दो, लेकिन तभी तक
जब तक तुम्हारा धैर्य है ।
कमल बने रहो,
लेकिन यह भी याद रखना
कि समय के कमल की नियति जल है
ना कि कीचड़ ।
रश्मि प्रभा