29 अक्तूबर, 2011

यदि संभव हो तो



कमज़ोर मन से रिसते
रक्त संबंध के ज़ख्म
लचर दलीलों
राहत भरी हँसी के मध्य
आँखों से मूक टपक रहे थे
हर करवट में कराहट ...
..........
शब्दों की पकड़
रिश्तों की भूख ..."
हमेशा तुमसे सुना , गुना
अपने मन को
बंदिशों से
स्वार्थ से परे रखा .......
पर कितनी सफाई से आज भी तुमने
अगर, मगर में बात कही !!!
ओह !
मुझे विषैले तीरों से बिंध दिया गया
और तुमने कहा -
'मारनेवाले की नियत गलत नहीं थी !'
मारने के बाद मारनेवाले का चेहरा बुझ गया
वह ख़त्म हो गया ...
ये सारे वाक्य
ज़ख्मों पर
मिर्च और नमक का कार्य कर रहे हैं !

मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
पर वे चीखें
जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
रेशा रेशा उधेड़ रही है
उनका क्या करूँ ?
.........
बिछावन पर गिर जाने से ही दर्द गहरा नहीं होता
उनकी सोचो
जिनके पाँव चलने से इन्कार करते हैं
पर उनको चलना होता है
........
क्यूँ हर बार
इसे सोचूं
उसे सोचूं
इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

43 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों की पकड़
    रिश्तों की भूख ..."
    हमेशा तुमसे सुना , गुना
    अपने मन को
    बंदिशों से
    स्वार्थ से परे रखा ....बहुत मार्मिक प्रस्तुति....

    जवाब देंहटाएं
  2. दर्द का सागर खड़ा कर देती रचना!!
    मार्मिक!!

    जवाब देंहटाएं
  3. अगर दूसरा सोचता तो आज येकहना ही ना पडता।

    जवाब देंहटाएं
  4. क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
    यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

    रिश्तों को बनाये रखने की एकतरफा कशमकश और फिर अंत में जब सब्र का बाँध टूटा तो एक आखिरी निर्णय ... जो आपकी आखिरी पक्तियों में नजर अता है ...!!! बहुत सुन्दर रचना ... !!!!

    जवाब देंहटाएं
  5. क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
    यदि संभव हो तो !!!!!
    risto aur man ki unsuljhi uljhan ko vaykt karti sarthak rachna.....

    जवाब देंहटाएं
  6. कमजोर मन से रिसते
    रक्त संबंध के ज़ख्म
    मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
    पर वे चीखें
    जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
    रेशा रेशा उधेड़ रही है
    उनका क्या करूँ ?
    इस बार सोचो
    - सिर्फ तुमसब सोचो
    असहनीय स्थिति से विद्रोह करने की मार्मिक प्रस्तुति.... !!!

    जवाब देंहटाएं
  7. जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
    रेशा रेशा उधेड़ रही है
    उनका क्या करूँ ?
    .......किसी गहरे दर्द की अभिव्यक्ति है

    जवाब देंहटाएं
  8. हरेक पंक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है। कविता अच्छी लगी ।

    जवाब देंहटाएं
  9. रक्त संबंध के ज़ख्म
    लचर दलीलों
    राहत भरी हँसी के मध्य
    आँखों से मूक टपक रहे थे
    हर करवट में कराहट ...

    खून के रिश्ते टूटते नहीं हैं ..यह सच ही एक लचर दलील है ..ज्यादातर रक्त सम्बन्ध ही टूटते देखे गए हैं ..

    बिछावन पर गिर जाने से ही दर्द गहरा नहीं होता
    उनकी सोचो
    जिनके पाँव चलने से इन्कार करते हैं
    पर उनको चलना होता है
    ........ और दर्द भी दिखा नहीं पाते ... बहुत मार्मिक अनुभूति

    सोचना संभव ही तो नहीं है ..तभी तो अंत में आपने कह दिया कि यदि संभव हो तो ..

    गहन भावों से भरी संवेदनशील रचना

    जवाब देंहटाएं
  10. क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
    यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
    सही कहा है हर बार मैं ही क्यों सोचूं इस बार तुम सोचो और सब सोचो, सोचकर देखो बिलकुल मेरी तरह... कशमकश रिश्तों की...

    जवाब देंहटाएं
  11. क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
    यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

    दर्द जहां हो वहां क्‍या कहा जाए ...इसे ही समझा इसे ही जाना जाए ...।

    जवाब देंहटाएं
  12. पीड़ा
    सह जाये,
    या
    बह जाये,
    बस देख लें,
    मन में वह,
    रह न जाये।

    जवाब देंहटाएं
  13. कसमकश के बीच खूबशुरती लिखी रचना अंतिम पन्तियाँ बहुत अच्छी लगी...सुंदर प्रस्तुती......

    जवाब देंहटाएं
  14. वाह क्या बात है ...बहुत भावपूर्ण रचना.
    कभी समय मिले तो http://akashsingh307.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .फोलोवर बनकर उत्सावर्धन करें .. धन्यवाद .

    जवाब देंहटाएं
  15. क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो

    गहन अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं
  16. मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
    पर वे चीखें
    जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
    रेशा रेशा उधेड़ रही है
    उनका क्या करूँ ?

    ...बहुत मार्मिक...अंतस के दर्द को जीवंत कर दिया...आभार

    जवाब देंहटाएं
  17. dard ekdam bebaki se ubhar kar aa gaya hai.......क्यूँ हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
    यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत गंभीर कविता... अंतिम पंक्तियाँ उद्वेलित कर देती हैं...

    जवाब देंहटाएं
  19. शब्दों की पकड़
    रिश्तों की भूख ..."
    हमेशा तुमसे सुना , गुना
    अपने मन को
    बंदिशों से
    स्वार्थ से परे रखा ....

    हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ हैं....

    जवाब देंहटाएं
  20. शब्दों की पकड़
    रिश्तों की भूख ..."
    हमेशा तुमसे सुना , गुना
    अपने मन को
    बंदिशों से
    स्वार्थ से परे रखा .......
    पर कितनी सफाई से आज भी तुमने
    अगर, मगर में बात कही !!!
    ओह !

    संवेदनशील रचना

    जवाब देंहटाएं
  21. शब्द- शब्द टपकता दर्द इसे ही कहते हैं ना !

    जवाब देंहटाएं
  22. रिश्ते घाव बाँधने पर भी दर्द देते हैं..

    जवाब देंहटाएं
  23. वाणी के उपयोग पर बहुत बड़ी-बड़ी बातें कहीं गयीं हैं...पर फिर भी लोग चूक जाते हैं...और अनायास अपनों को दर्द दे जाते हैं...

    जवाब देंहटाएं
  24. सुन्दर....और सच भी.यह अगर -मगर से जब बातें कही जाती हैं तो घाव अक्सर ऐसे ही रिसते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  25. मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
    पर वे चीखें
    जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
    रेशा रेशा उधेड़ रही है
    उनका क्या करूँ ? marmik...

    जवाब देंहटाएं
  26. अंतर्मन की व्यथा-कथा में सम्भव क्या,असम्भव क्या
    पीड़ाओं का गरल सदा ही खुद को पीना पड़ता है.
    शब्द-जाल के चक्रव्यूह में, मन-अभिमन्यु फँस जाता
    भीष्म बने तो शर-शैया पर जीवन जीना पड़ता है.

    मर्म का अतिरेक लिये अद्भुत रचना.

    जवाब देंहटाएं
  27. रश्मि जी, ज़ख्म से ज़्यादा उसका अहसास दर्द देता है...
    एक शेर याद आ रहा है-
    बन आप अपने सफ़ीने का नाखुदा ऐ दोस्त
    बुलंद अज़्म हवाओं के रुख बदलते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  28. शब्दों की पकड़
    रिश्तों की भूख ..."
    हमेशा तुमसे सुना , गुना
    अपने मन को
    बंदिशों से
    स्वार्थ से परे रखा .जज़्बातों की अनुभूति,दर्द को बहुत गहरे से कहा है।

    जवाब देंहटाएं
  29. शब्दों की पकड़
    रिश्तों की भूख ..."
    agar sambhav hotaa
    to kitna achhaa hotaa


    क्यों लोग
    तिल तिल कर
    मरते ?
    बेवजह रिश्तों को
    ढोते
    दिल में नफरत
    रखते
    निरंतर पीछा छुडाना
    चाहते
    हिम्मत नहीं जुटा
    पाते
    जुबां से कह नहीं
    पाते
    ऐसी भी क्या मजबूरी
    क्यों लोग
    दोहरेपन से जीते ?
    30-10-2011
    1724-131-10-11

    जवाब देंहटाएं
  30. बहुत सुंदर रचना


    क्यूं हर बार
    इसे सोचूं
    उसे सोचूं
    इस बार
    सिर्फ तुम सब सोचो
    यदि संभव हो तो..... क्या कहने

    जवाब देंहटाएं
  31. मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
    पर वे चीखें
    जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
    रेशा रेशा उधेड़ रही है
    उनका क्या करूँ ?
    ....
    दीदी यद्यपि मैं बहुत वाचाल हूँ पर रचना को पधार निःशब्द हूँ अभी तो
    प्रणाम !

    जवाब देंहटाएं

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...