30 सितंबर, 2010

पहचान चाहिए


सब बड़े हो गए
वे पौधे भी
जो मेरे इर्द गिर्द उग आए थे
पर मैं !
सदियों से खड़ा एक द्रष्टा हूँ
राहगीरों को देखता हूँ
पक्षियों को सुनता हूँ
जवान वृक्षों के गर्वीले कद पर
नाज करता हूँ

फिर अपने कोटर पर नज़र जाती है
जहाँ हर नए मौसम में
एक नया घोंसला होता है
नए पंख
नई उड़ान
इंतज़ार राहगीरों का
नए मौसम का

पर सबसे अधिक प्रतीक्षा होती है
एक पहचान की
चाहता हूँ कोई आए
मेरा इतिहास बताये
जर्जर पत्तियों से
हरे होने की करवटों का
मर्म बताये ....

बहुत गुज़रे नाज़ से
अब तो अपनी पहचान चाहिए

19 सितंबर, 2010

पागल हो तुम भी !


पागल हो तुम भी
खुद के लिए नहीं जीती
खुद के लिए नहीं सोचती
और ताखों से प्यार करती हो
कई बार तुम्हारा दिया निस्तैल फूटता है
पर ताखों को रौशनी देना नहीं भूलती
प्यार दो तो प्यार मिलता है
अपने कभी पराये नहीं होते '
के भ्रम में जीती हो
पागल हो तुम भी !

16 सितंबर, 2010

तेरा सोंधा चेहरा ...


मैं घड़े का पानी हूँ
तेरी प्यास बुझाने को
हर दिन भर जाती हूँ
सोंधी सोंधी खुशबू
सोंधे सोंधे स्वाद में डूबा
तेरा सोंधा सोंधा चेहरा
... कितना अपना लगता है !

13 सितंबर, 2010

एक दिल मेरे पास रख जाओ


सपने में भी
अतीत के साए मुझे डराते हैं
अलग-अलग रास्तों पर
दहशत बनकर खड़े रहते हैं !
चीख ..अन्दर ही घुटकर रह जाती है
खुली आँखों में
फिर नींद नहीं आती !
सहलाती हूँ सर
गुनगुनाती हूँ लोरी
पर ये साए...
मुझे बीमार कर देते हैं !

रोज़ कलम से एक शब्द उठाती हूँ
दर्द में डुबोती हूँ
.... कहना है वो दर्द
जिसकी किरचें मुझे लहुलुहान करती हैं
संभव हो
तो एक दिल मेरे पास रख जाओ
मुझे बातें करनी हैं ...

07 सितंबर, 2010

माँ ...


एक माँ
मन्नतों की सीढियां तय करती है
एक माँ
दुआओं के दीप जलाती है
एक माँ
अपनी सांस सांस में
मन्त्रों का जाप करती है
एक माँ
एक एक निवाले में
आशीष भरती है
एक माँ
जितनी कमज़ोर दिखती है
उससे कहीं ज्यादा
शक्ति स्तम्भ बनती है
एक एक हवाओं को उसे पार करना होता है
जब बात उसके जायों की होती है
एक माँ
प्रकृति के कण कण से उभरती है
निर्जीव भी सजीव हो जाये
जब माँ उसे छू जाती है
..............
मैं माँ हूँ
वह सुरक्षा कवच
जिसे तुम्हारे शरीर से कोई अलग नहीं कर सकता
....
हार भी जीत में बदल जाये
माँ वो स्पर्श होती है

तो फिर माथे पर बल क्यूँ
डर क्यूँ
आंसू क्यूँ
ऊँगली पकड़े रहो
विपदाओं की आग ठंडी हो जाएगी

05 सितंबर, 2010

परछाईं


एक परछाईं सी गुज़रती है
खाली खाली कमरों में
अपलक, अनजान, अनसुनी सी मेरी आँखें
उसे देखती रहती हैं ...

परछाईं !
आवाज़ देती है उन लम्हों को
जिसे कतरा कतरा उसने जिया था
अपनी रूह बनाया था ...

लम्हों के कद बड़े होते गए
परछाईं ने उनके पैरों में
लक्ष्य के जूते डाल दिए
और अब
उनकी आहटों को
हर कमरे में तलाशती है
दुआओं के दीप जलाती है
फिर थक हारके
मुझमें एकाकार हो जाती है...

उसको दुलारते हुए
मेरी अनकही आँखें
बूंद बूंद कुछ कहने लगती हैं
हथेलियाँ उनको पोछने लगती हैं
फिर स्वतः
फ़ोन घुमाने लगती हैं
'कैसे हो तुम ? और तुम? और तुम?
... मैं अच्छी हूँ '

क्या कहूँ ...
कि खुद को इस कमरे से उस कमरे
घूमते देखा करती हूँ
क्या समझाऊँ
खाली शरीर की बात क्या समझाऊँ !
.....................!!!
क्या कहूँ
कैसा लगता है खुद से खुद को देखना ...

01 सितंबर, 2010

क्यूँ कृष्ण ?


बहुत प्यार किया था राधा ने तुमसे
तुम्हारी बांसुरी से
कदम्ब की डार से
यमुना के किनारे बैठी रही
सुधबुध खोये
नहीं थी परवाह उसे ज़माने की
ना घरवालों की
वो तो दीवानी थी बस तेरे नाम की
कहाँ खबर थी उसे उन आँधियों की
जो ले जाएगी कृष्ण को उससे दूर
....
कृष्ण तुम गए
रथ के आगे लेटी थी राधा
तो एक सूत्र थमा दिया था तुमने
'मेरे नाम से पहले तेरा नाम होगा'
इस एक सूत्र को परिणय सूत्र बनाया राधा ने
कभी अपने द्वार नहीं बन्द किये
जाने कब कृष्ण आए
दिया (विश्वास) जलता रहा
अँधेरा देख कृष्ण लौट न जाएँ
इस आस में जीवन वार दिया ...
रुक्मिणी, सत्यभामा ...
कहीं तो तुम्हें ठौर नहीं मिला
लौटे थे गोकुळ...
राधा के लिए
या खुद के लिए ?
बड़ा मुश्किल प्रश्न है ना कृष्ण ?
...........
सत्य है यही कि
राधा और कृष्ण ही सत्य रहे
कोई उस सत्य को मिटा नहीं पाया
मृत्यु पर विजय पाकर
तुम जन्म लेते रहे
राधा ने भी अनुसरण किया
फिर क्यूँ राधा को छोड़ा
फिर वही कहानी क्यूँ दुहराई ?
क्या राधा की प्रतीक्षित आँखों का मोह नहीं तुम्हें ?
क्या तुम्हारे राज्य-यज्ञ में
हमेशा उसे अपनी आहुति देनी होगी?
युग बदल गए,
लोग बदल गए
अब तो ठहरो कृष्ण
प्यारी राधा की इतनी परीक्षा !
....
आखिर क्यूँ कृष्ण ?

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...