08 अक्तूबर, 2015

तस्वीर से निकले एहसास





अपने थे
देना था  -
कुछ वक़्त, कुछ ख्याल 
लेकिन,
इस देने में मैं रह गया खाली 
हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !
मैंने सबको बहुत करीब से देखा 
यूँ 
जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास 
कभी समझ सको,
सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें 
स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !
इसका अर्थ यह नहीं 
कि मैंने किसी को अपना नहीं माना 
देना नहीं चाहा 
.... 
दरअसल किसी को मेरी ज़रूरत नहीं थी 
मेरे ख्याल उन्हें परेशान करते 
मेरा वक़्त उन्हें बेमानी लगता 
उन्हें मेरी सामयिक ज़रूरत थी 
फिर भी 
दुनियादारी, समाज 
और मेरा मन 
… मैं देता रहा 
बुझता गया 
भीड़ में झूठ बनकर हँसता गया 
लेकिन आह,
मैं इस चेहरे की भाषा को कैसे बदलता 
आँखों को चुप करके भी 
बोलने से कैसे रोकता 
!!! 
इसीलिए 
न चाहकर भी 
तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया 

9 टिप्‍पणियां:

  1. "...उन्हें मेरी सामयिक ज़रूरत थी "

    एक पंक्ति और उसमें निहित सारे अर्थ... सारी व्यथा... सम्पूर्ण सत्य...

    " इसीलिए
    न चाहकर भी
    तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया "

    जवाब देंहटाएं
  2. आँखों को चुप करके भी
    बोलने से कैसे रोकता
    !!!
    इसीलिए
    न चाहकर भी
    तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया
    ye sachchi baat hai ....

    जवाब देंहटाएं
  3. जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास
    कभी समझ सको,
    सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें
    स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !
    इसका अर्थ यह नहीं
    कि मैंने किसी को अपना नहीं माना
    देना नहीं चाहा -----
    वास्तविक जीवन दर्शन से साक्षात्कार कराती अदभुत रचना
    सादर

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  4. तस्वीरों में देखना मेरी आँखें ....
    बहुत सुंदर ।

    जवाब देंहटाएं
  5. चेहरे के मायूसी दिल का सारा हाल बयां कर देता है। .
    मर्मस्पर्शी रचना !

    जवाब देंहटाएं
  6. न चाहकर भी
    तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया .

    बहुत खूब लिखा है.

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  7. नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएं!

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार,15 अक्तूबर 2015 को में शामिल किया गया है।
    http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमत्रित है ......धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं

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