05 जून, 2012

क्या क्या छूट गया !



हिदायतों का समय गुजर गया
चलो अपने शब्दों की डोक्युमेनट्री फिल्म में
तुम्हें वो पल दिखाएँ
जिनके मायने थे
देखो गौर से क्या क्या छूट गया ...

चिलचिलाती धूप
पसीने से तरबतर मुस्कान
तितली पकड़ने का उन्माद
कच्चे टिकोलों की मिठास
हरि लिच्चियों की चोरी
फिर उमेठे कान का दर्द ....
सुबह देता जब मुर्गा बांग
दर्द हो जाता छूमंतर
नई शरारत की योजना बल्लियों उछलती
मिट्टी से सने पैरों में घर की खुशियाँ मचलती
थोड़ी सी डांट
बहुत सा दुलार .....
छूट गया सब ऊँची बिल्डिंग के पीछे !

नए कपड़े जब आते
तो पीछे कोने में हल्दी लगा
शुभ शुभ की दुआ करते थे अपने ....
जो हर कामयाबी में
बहुत मायने रखते थे
पर वे देहाती ढकोसले की तोहमत में लुप्त हो गए !

दलिद्दर भगाने का वह सहज तरीका
लक्ष्मी कम ही सही
सुकून से ठहरती थीं ...
पडोसी के बच्चे की उत्तीर्णता पर
एक एक घर में दावत
खुशियों का सीना चौड़ा कर जाता था
मृत्यु में
अनजान के घर से भी हर दिन का भोजन
दर्द को सहने की ताकत देता था
परम्पराओं को निभाने की उर्जा देता था
और एक रिश्ता जोड़ता था
गाँव की बेटी - सबकी बेटी
पूरा मोहल्ला मायका सा होता था
घर की बूढ़ी दाई के भी पैर छुए जाते थे
आशीषों का गहरा अर्थ हुआ करता था ....
आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !

पूजा पाठ में सात्विक नियमितता
एक पवित्र एहसास देता
पूजा घर में नंगे पाँव जाना
हाथ धोकर वहाँ से कुछ उठाना
फूल , अगरबत्ती , प्रसाद .... अर्थहीन नहीं थे
व्यस्क बातों में एहतियात
बड़ों के सम्मान में खड़े होना
हमारे खूबसूरत संस्कार थे
अब तो अश्लील शब्द आम हो गए
प्रश्न है - तो इसमें क्या है ? !

तो इसमें क्या है' का उत्तर सरल है
पर जब हम मानना ही नहीं चाहें
तो प्रत्युत्तर में चीखने से भी क्या है !
एक एक तेज स्वर
हमारी ही गरिमा मिटा रहे
चीखते चिल्लाते
लीक से हटते हटते
हम सब बदशक्ल हो गए हैं !

कृत्रिम प्रसाधनों का बोलबाला है
पर उसमें संस्कार नहीं होते
न ही होता कोई मासूम जादू
जो हमें सभ्य सौम्य दिखा दे
बनाना तो दूर की बात है !

अधनंगे शरीर ...
दादा नाना पिता भाई - किसी से कोई परहेज नहीं !
अब आँखें नहीं बोलती
ख़ामोशी नहीं बोलती
अब सबकुछ शरीर बोलता है
और शरीर के द्विअर्थी संवाद
दूसरे की मानसिकता !

हम इतने खुलेआम हो चुके हैं
कि गलत सही का फर्क नहीं रहा
पर्दानशीं को बेपर्दा करने का मामला रफा दफा हो गया
अब तो - चाहत का जाम है
चियर्स कहो और अपनी धज्जियां खुद उड़ा लो
और हर धज्जी से यूँ देखो
कि जिसे भी इज्ज़त और जान प्यारी है
वह कुछ कहने का साहस ना करे ...

अब सारी खरीदफरोख्त पैसे से है
समय , मस्ती , ख़ुशी . हवा
.... जीतना है
हर हाल में जीतना है
धक्का देकर ही सही !
बेहतर है !!!
क्या क्या छूट गया की चिंता के लिए भी वक़्त नहीं
अभी शकुनी के पासे हैं हाथ में
तो जीत का जश्न मनाओ कमरे में
बाहर सिर्फ सन्नाटा है
बड़े बुज़ुर्ग , बच्चे , पडोसी, ब्रह्ममुहूर्त , लोरी , कहानी .....
कहीं कोई नहीं , कुछ भी नहीं है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!






38 टिप्‍पणियां:

  1. समय या बदलाव की आँधी में चिंदी-चिंदी उड़ता सबकुछ...अद्भुत..

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  2. सभी कुछ तो छूट गया....
    सभी कुछ तो बदल गया...............
    हम तुम भी तो बदल गए शायद???

    सादर

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  3. क्या क्या छूट गया की चिंता के लिए भी वक़्त नहीं
    अक्षरश: सही कहा है आपने ... सार्थकता लिए सटीक लेखन ... आभार

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  4. एक पूरी तस्वीर उभर आई सामने

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  5. बचपन हर गम से बेगाना होता है..

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  6. आज के बदलते परिवेश की कडवी सच्चाई को कहती गहन अभिव्यक्ति .....सब कुछ छूट गया है और जो हाथ में है वो कितना वीभत्स है ....

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  7. क्रूर सच्चाई है यह!!
    शान्ति और संतोष बेचकर, तनाव खरीदते हम लोग!!
    ठ्गी ठगी सी भावनाएं, भ्रमित सी सम्वेदनाएं!!

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  8. वक्त ने कितना कुछ बदल दिया है ……एक सच को कहती सुन्दर रचना

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  9. गहन अर्थ समेटे एक अत्युत्तम रचना ! हमारे आज के समाज को अपनी रचना के आईने में आपने हू ब हू उतार दिया है ! अतीत की सात्विकता, संस्कार, सभ्यता एवं मानसिकता वर्तमान परिवेश की तुलना में कितनी उज्जवल थी इसका कितना सजीव शब्द चित्र खींचा है ! मन भर आया ! सच में कितना कुछ छूट गया जिसे दोबारा से पाना अब असंभव हो चुका है ! बहुत ही सुन्दर रचना !

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  10. sab vykt ka fer hai.. bachpan ke dinon mein jeena ka man harpal karta hai..
    khoob kancha goli hamne bhi kheli thi ..aapne itnee sundar rachna se yaad taji kar di..aabhar!

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  11. मृत्यु में
    अनजान के घर से भी हर दिन का भोजन
    दर्द को सहने की ताकत देता था
    परम्पराओं को निभाने की उर्जा देता था
    और एक रिश्ता जोड़ता था
    गाँव की बेटी - सबकी बेटी
    पूरा मोहल्ला मायका सा होता था
    घर की बूढ़ी दाई के भी पैर छुए जाते थे
    आशीषों का गहरा अर्थ हुआ करता था ....
    आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !
    उफ़ ! वाकई बहुत कुछ छूट गया है ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में...दिल को छू लेने वाली रचना...

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  12. कल 06/06/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    '' क्‍या क्‍या छूट गया ''

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  13. समय इस प्रकार और इस मात्रा में बदलेगा, इसका भान तो समय को भी नहीं था।

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  14. भरी दुपहरी में कैरियां तोड़ते , फालसे बीनते, मिट्टी के घर बनाते गुड़ियों का बयार रचाते पसीने से भीगते- भागते भी गर्मियां इतनी गर्म नहीं लगती थी ,घमोरियों के अलावा कुछ नहीं होता था , ढेर सारा खेलना- कूदना -पढने के बाद भी समय कम नहीं पड़ता था . अब तो समय का पता ही नहीं चलता . . बच्चों को सुनाते हैं किस्से तो बड़ी नाराजगी से कहते हैं , हमें तो पढने से फुरसत हो तब तो .... भागते वक़्त ने आधुनिकता के नाम पर बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया गया है !!

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  15. बहुत ही सुंदर रचना और छूटी चीजों का छूता हुआ संकलन दी...
    "गाँव की बेटी - सबकी बेटी".... आपकी यह पंक्तियाँ पढ़कर हाल ही में एक डाकुमेंटरी के सिलसिले में छ ग प्रदेश के कोरबा जिले के एक सुदूर आदिवासी वन्य ग्राम ‘स्यांग’ की याद आ गई... वहाँ एक आदिवासी कन्या की शादी में शामिल हुआ था... बहुत से नए नए रिवाजों से परिचय हुआ और सबसे चौंकाने वाली लेकिन दिल में घर कर लेने वाली आनंद दायक, अच्छी बात यह पता चली कि शादी में लड़की के परिवार पर आर्थिक बोझ गाँव वाले पड़ने ही नहीं देते.... तीन दिन तक बाराती लड़की के गाँव में मेहमान होते हैं और उनके रहने खाने स्वागत सत्कार के साथ साथ शादी का लगभग पूरा खर्चा गाँव के सभी परिवार मिलकर वहन करते हैं.... तामझाम से दूर सादगी से भरे रीति रिवाज... एक दूसरे का बोझ, सुख दुख बाँट लेने का जज्बा... सचमुच... आपकी पंक्ति पढ़ी तो गाँव के सभी दृश्य आँखों में बिंबित हो गए पुनः....

    सादर।

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  16. अधनंगे शरीर ...
    दादा नाना पिता भाई - किसी से कोई परहेज नहीं !
    अब आँखें नहीं बोलती
    ख़ामोशी नहीं बोलती
    अब सबकुछ शरीर बोलता है
    और शरीर के द्विअर्थी संवाद
    दूसरे की मानसिकता !

    सार्थकता लिये सुंदर अभिव्यक्ति ,,,,,

    MY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,

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  17. जो छूट गया उसे हमारी पीढ़ी गहराई से महसूस करती है...नई पीढ़ी के सामने हम निरुत्तर खड़े हैं...
    बचपन याद दिला दिया आपने...बहुत सारी भूली बातें याद आ गईं...आभार !!!

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  18. कहीं कोई नहीं , कुछ भी नहीं है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
    सब कुछ छूट गया है ,पीछे झांक कर देखें तो लगता है बहुत दूर आ गए हैं पर अब तो केवल याद ही बाकी हैं
    रश्मिजी ,बहुत ही भाव पूर्ण रचना

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  19. समय बहुत बलवान है..क्या-क्या उडा़कर कब ले गया पता ही नही चला...

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  20. समय के तूफान ने क्या क्या नहीं लूटा....
    बेहतरीन रचना
    आभार

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  21. सब कुछ जो पीछे छूट गया था आज फिर एक बार आँखों के आगे घूम गया, कितना वक़्त होता था ना पहले हमारे पास अब ना जाने कहाँ चला गया. दौड़ते भागते जीते जा रहे हैं, कट जाता है एक-एक दिन जीवन का. हंसी, ख़ुशी, मस्ती, दुःख सब दिखावा लगता है.सचमुच हम पछिया हवा हो गए हैं...

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  22. यह सब जो छूट गया है, वह सब हमें बार बार पीछे बुलाते हैं पर हम हैं कि जीवन की आपाधापी में रास्ते ही खो गए हैं।

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  23. बहुत मायने रखते थे
    पर वे देहाती ढकोसले की तोहमत में लुप्त हो गए !
    आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !
    अब सबकुछ शरीर बोलता है
    और शरीर के द्विअर्थी संवाद
    क्या क्या छूट गया की चिंता के लिए भी वक़्त नहीं
    कितनी सरलता और सहजता से आप सच्चाई की चित्रण कर जाती हैं .... !!

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  24. सच है कुछ नहीं , कोई नहीं , न गम बाँटने को न खुशियाँ मनाने को.....

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  25. आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !.....ati sunder aur prabhwshali.

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  26. सुन्दर! पढ़कर एक पूरी ज़िन्दगी ही सामने आ गयी.. सच में, क्या-क्या छोड़ आये हैं हम पीछे!!

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  27. जिन मूल्यों को बनने बनाने में शताब्दियाँ गुज़र जाती हैं ..उन्हें धराशायी होने में ....सिर्फ एक आँख की शर्म कम करने की ज़रुरत है .......सब कुछ मिनटों में ध्वस्त हो जाता है ...!!!!!!

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  28. बहुत ही बेहतरीन रचना ,कई जगह आँखें नम हो गयी पढ़ते -2

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  29. वक्त के साथ सब कुछ बदल गया.....
    सटीक वर्णन किया है !

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  30. छूट गया सब कुछ, बदल भी गया. पर आज ..है क्या ?/ पता नहीं ..बहुत गहन अभिव्यक्ति.

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  31. सभी कुछ तो छूट गया,
    मुट्ठी से जैसे रेत फिसल गया !

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  32. समय ने क्या कुछ नहीं बदल दिया. हर मन की व्यथा... पर इस बदलाव को मानना ही होता है. बहुत अच्छा लगा अतीत के हर पहलू को बदलते हुए देखना.

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  33. सार्थक विषय....सही बात है बहुत कुछ छूट गया और दिन ब दिन छूटता जा रहा है.....बेहद सशक्त रचना।

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  34. हर किसी के बचपन के मायने अलग अलग होते हैं ...

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  35. वाह कहें या आह कहें
    वो बचपन रूठ गया
    जीवन की आपाधापी में
    क्या क्या छूट गया.

    मन में कसक उठाती हुई यादें किंतु मीठास तो इन्हीं में है.साठ का दशक स्मृतिपटल पर ज्यों का त्यों उभर आया.

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  36. जी रश्मि जी,
    एकदम सही और भावनामयी शब्दावली में यथार्थ का चित्रण. यह हर्ष नहीं विषद और चिंतन - मनन का गंभीर विन्दु है. दो वर्ष पूर्व इसी प्रकार के असंवेदनशील विचारों को देखकर मन से जो छलक पड़ा था उसे प्रकट करने का लोभ स्वर नहीं पा रहा हूँ. उद्देश्य यह भी है की तार से तार जुड़े और इस विमर्श को आगे बढाया जाय -



    हाँ भाई ! समय बदल चुका है,
    बदलाव की इस आंधी में;
    बह चले हैं- हमारे पुरातन संस्कार,
    पुरानी संस्कृति - सभ्यता और विचार,
    टूट रहें है, हमें पालने वाले संयुक्त परिवार.

    किसी को बहुत गहराई तक मत कुरेदो;
    याद रखो इस बहुमूल्य कथन को -
    हर देदीप्यमान वस्तु नहीं होता - कंचन.
    हर पुरानी वस्तु अनुपयोगी नहीं होती;
    उसी तरह हर नई वस्तु उतनी उपयोगी भी नहीं
    जितनी दिखती है, अवाश्य्काका विवेक की है,
    परन्तु कौन समझ रहा? सब भाग रहे है-अंधाधुंध.
    आज इंसान और प्याज में जो गहरा नाता है,
    वह भोले -भाले इंसान को देर में समझ आता है,


    खुशहाल घरौंदा, मजबूत रिश्ते, अटूट बंधन;
    जब जातें हैं दरक, बाजी जब हाथ से जाती है सरक.तब जाकर कहीं होश ठिकाने आता है.
    पड़ताल करके भी करोगे क्या अब ?
    था जिस पर बहुत भरोसा मुझे;
    उसी का नाम बार- बार आता है.

    इसीलिए फिर कहता हूँ - मत कूदो;
    किसी के अंतरतम में बहुत दूर,
    अतल वितल सुदूर गहराइयों तक.
    मत निहारो किसी को एक टक,
    धरती से अनंत आसमान टक.
    मत मानो उसे इंसान से भगवान् तक.

    क्योकि जब उतरती जायेगी,
    उसके लबादे की एक - एक परत,
    हर परत देगी बार - बार एक टीस;
    नेत्रों में भर आयेंगे ढेर सारे अश्रु,
    समझ नहीं पाओगे, यह मित्र है या शत्रु ?
    पत्नी है, भाई है, पुत्री है या फिर ......पुत्र.?

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...