16 जून, 2012

जो भी कहना सच कहना ....



घबरायी सी वह लड़की
तुम्हारे दरवाज़े भी तो आई होगी
सच कहना -
उसके दर्द को तुमने स्नेह का एक ग्लास पानी थमाया
उसकी भयभीत पुतलियों में अपने होने का विश्वास दिया
भूख से कातर उसके सम्मानित वजूद को
बिना उसके कहे
सम्मान से गुंथे आंटे की रोटी दी !
या .............
तुमने उसे अपनी मानसिकता के तराजू पर रखा
उसके बेबस चेहरे के पीछे डूबे सौन्दर्य को देखा
और आगत की संभावनाएं रच डाली
एक रोटी के साथ कई कटोरियों में
एहसान की सब्जियां परोस
हाथ में झाड़ू पकड़ा दिया
एक पुरानी साड़ी के बदले
उसकी पूरी ज़िन्दगी पर अधिकार ज़माने का मन बना लिया
उस ज़िन्दगी पर
जिसे वह किसी चंगुल से छुड़ा तुम तक आई थी !
और निकल गए तुम पड़ोसियों के पास
और अपनी महानता की कहानी सुनाने लगे
वह कहानी ..... जिसे सुन पडोसी ईर्ष्या से भर उठे
और सोचने लगे थे -
काश ! यह मुफ्त की एहसानमंद
मेरे हाथ आती .....
.......
एक रोटी - जिसे कुत्ते के आगे तुम फ़ेंक देते हो
पर जब ' बचाओ ' की गुहार लिए कोई लड़की
तुम्हारे घर के दरवाज़े खटखटाती है
तो तुम पाई पाई का हिसाब रखते हो
और जिस नरक से वह भागती है
उससे कई गुणा बड़ा नरक उसे देकर
दाता बन जाते हो ...
...
दाता - स्त्री हो या पुरुष
तुम सबसे सवाल है
- जो भी कहना सच कहना ....
बेहतर हो खुद से कहना
अन्यथा - उपरवाला तो सारे हिसाब किताब रखता ही है !

35 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा लोगों की मजबूरी और बेबसी का खूब फायदा उठा कर.हम महान बनने का ढ़ोग करते है....भावमयी और विचारणीय रचना....आभार

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  2. बहुत गहन अभिव्यक्ति दी.....

    भावपूर्ण रचना..........

    सादर.

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  3. di
    aaj aapki post padh kar aisa laga ki sach me sab kuchh samne hi ho raha hai aur ham sab muk darshak ne bane rahte hain
    aaj ke samaaj me kisi ki majburi ka fayda uthane me log kahan chukte hain .
    kisi ki bebsi unko dikhai nahi detiaur vo apna jugad lagaane lag jaate hain.
    aisi manvta ab kahan dekhne ko milti hai kuchand logon ko chhod kar.
    aaj ke samaaj ka sahi mulyankan aapki post me bakhoobi dikhti hai.-----
    badhai ke saath
    poonam

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  4. भावमय करते शब्‍दों का संगम ... आभार

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  5. - जो भी कहना सच कहना ....
    बेहतर हो खुद से कहना
    और खुद से भी झूठ बोले तो तुम्हे खुदा ही समझाएगा... पाप का घड़ा कभी तो फूटेगा ना... ठीक कहा आपने...आभार

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  6. मन के आईने मे ही तो सारे निर्णय होते हैं ……सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  7. दाता - स्त्री हो या पुरुष
    तुम सबसे सवाल है
    जो भी कहना सच कहना ....
    बेहतर हो खुद से कहना
    अन्यथा - उपरवाला तो सारे हिसाब किताब रखता ही,,
    लोगो की मजबूरी का फायदा उठा कर अपने को बड़ा
    कहते है ,,,,,
    विचारणीय सुंदर रचना,,,,,,

    RECENT POST ,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,

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  8. हिसाब किताब की प्राथमिकतायें अपनी विवशताओं पर होती है।

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  9. और जिस नरक से वह भागती है
    उससे कई गुणा बड़ा नरक उसे देकर
    दाता बन जाते हो ....
    सच्चाई पहले से पता होती है लेकिन आपकी लेखनी नि:शब्द कर देती है ...

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  10. Pdte waqt esa lag raha tha jese sab aakho k samne ho raha ho....sundar rachna...

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  11. सच अपनी नग्नता के साथ ....बहुत मार्मिक।

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  12. सच अपनी नग्नता के साथ ....बहुत मार्मिक।

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  13. सजीव रचना...सच कबूल करना आसान नहीं |

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  14. aatm-manthan krne ko majbur krti hui kavita...bahut sundar rachna!

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  15. अत्यंत विचारणीय अन्तःस्थल को स्पर्श करती रचना ....

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  16. जैसे मैं कार्टून बना देता हूँ आप कवि‍ता कवि‍ता लि‍ख देती हैं, यूँ ही धाराप्रवाह, आराम से ... ☺☺☺

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  17. मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को समय के ठहराव के बिम्ब पर प्रवाहित यह कविता मन को बहुत झकझोड़ती है।

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  18. काश! मुफ्त की अहसानमंद हमारे हाथ आती! दबी छिपी कुत्सित ख्वाहिशों को उन अनदेखी मुस्कुराहटों में देखना कलेजा जला देता है !
    मगर ...वह ऊपर वाला तो हिसाब रखता ही है !!

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  19. ये जानते हुए भी कोई कहाँ डरता है ..दाता बना फिरता है..

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  20. रश्मि जी आपकी यह कविता कहाँ ले गयी. शायद ऐसे व्यवहार में हम भूल जाते है कि ऊपर वाला देख रहा है. बहुत सुंदर.

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  21. आईना दिखती रचना
    मार्मिक भी

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  22. मन में अजीब से सवाल उठने लगे, दुनिया को किस रूप में देखा जाए... भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  23. बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती रचना ...

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  24. इंसान की असली मनसिकता को दिखा दिया आपने...

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  25. Beautifully illustrated truth that it does not seem to be bitter.

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  26. मजबूरियों का फायदा उठाने वाला क्या दाता! वह तो दरिद्र है.. पता नहीं उपरवाला हिसाब-किताब रखता है या नहीं.. पर जो नीचेवाले हैं, हीन भावना ग्रसित लोगो का न सिर्फ बहिष्कार करना चाहिए, बल्कि उचित दंड भी देना चाहिए.. ग़ुलामी तब तक ही होती है जब तक हम आवाज़ नहीं उठा सकते..
    सादर

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