दर्द जब गहरा हो
तो आँखों की नदी भी सूख जाती है
शुष्क आँखों के नीचे
एक शुष्क हँसी होती है
श्रवण के माता-पिता की तरह !
दर्द को दर्द का मारा ही समझता है
समय समय पर प्लावित नाले
नदी की भाषा नहीं समझते !
गंगा ने दिशा बदल दी
सूख गई...
क्यूँ' के जानकार
अनभिज्ञ भाव लिए
आह्वान करते हैं
कारण का निदान नहीं !
दुष्कार्य से परे
अगर की खुशबू से
देवता को खुश होना होता
तो सुनामियों का कोई अस्तित्व नहीं होता !
आसमां छूती इमारतों से दिखते
धुंधले अपरिचित चेहरे
इस दुनिया के नहीं लगते
उनकी चाल ढाल
उनकी उड़ती नज़र
उनकी अमीरी नहीं दिखाती
उनके भविष्य की अनिश्चितता बताती है !
उनका अनिश्चय जब मिट्टी होगा
तो कौन मिट्टी देगा
इससे बेखबर वे इमारतों
और आलिशान गाड़ियों के महंगे शीशे में
विलीन होते जा रहे हैं
.....
वे क्या जानेंगे सड़क पर खड़ी उस लड़की की व्यथा
जिसके बाल उलझे हैं
एक लकीर गालों पर है
और सूखे होठों पर
कोई माँग शेष नहीं ....
दर्द जब कटघरे में होता है
तो बहुत सन्नाटा होता है
दर्द अक्सर बेज़ुबान होता है
भीड़ में मूक चीखों के संग
वह निरंतर खुद को समझाने का
अथक प्रयास करता है !
हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
पुरवा ,पछिया जो भी नाम दो
वह दर्द को जुबान देती है
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!
हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
जवाब देंहटाएंपुरवा ,पछिया जो भी नाम दो
वह दर्द को जुबान देती है
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!
गहन भाव लिये सच बात कहती सशक्त अभिव्यक्ति ...
सादर
वाह दी !!क्या लिखा है...शुष्क हँसी में दर्द ढूँढ लेना सबके वश की बात नहीं...कुछ समझते ही नहीं, कुछ समझकर अनदेखी करते हैं...लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंजब हमने खुद ही बंद कर लिए हैं दरवाजे-खिड़कियां तो फिर शिकायत भी किससे करें...
जवाब देंहटाएंदर्द को दर्द का मारा ही समझता है
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने.....जाके पैर न फाटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई।
हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
जवाब देंहटाएंपुरवा ,पछिया जो भी नाम दो
वह दर्द को जुबान देती है
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
...bahut accha....gahre dard bhare bhaw....
कितना सुन्दर लिखा है रश्मि जी... सही में दर्द की कोई जुबां नहीं होती..पर दर्द हर शै के माध्यम से अपनी उपस्थिति को जताता है...बशर्ते कोई समझने को तैयार हो ...
जवाब देंहटाएंबिलकुल सामयिक !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सामयिक !
जवाब देंहटाएंगहरी और पीड़ापगी अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंहवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
जवाब देंहटाएंपुरवा ,पछिया जो भी नाम दो
वह दर्द को जुबान देती है
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!
हाँ दर्द जब हदसे बढ़ जाता है ...तो नासूर बन जाता है ...और इतना दर्द है ज़माने में ....की नासूरों से डर लगता है ...बस शायद इसीलिए ...मन कुछ स्वार्थी हो जाता है ...
दर्द को सिर्फ दर्द ही समझता है.. एकदम सही बात..
जवाब देंहटाएंदर्द जब कटघरे में होता है
तो बहुत सन्नाटा होता है..बिलकुल...
गहन भाव लिए संवेदनशील अभिव्यक्ति...
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!
निशब्द करती रचना .... कितने बेबस हैं !!
दर्द के विभिन्न रूप और उससे पैदा कसक और अमीरों की ठसक एक साथ पिरोये है यह रचना आईना दिखाती ,मार्ग दर्शन करती सबका .बधाई (कृपया
जवाब देंहटाएंखुश्बू शब्द प्रयोग करें ).
बेबसी का एहसास हुआ जब किसी हवा की दस्तक पर दरवाज़ा बंद किया.....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना दी....
सादर
अनु
दर्द अक्सर बेज़ुबान होता है
जवाब देंहटाएंभीड़ में मूक चीखों के संग
वह निरंतर खुद को समझाने का
अथक प्रयास करता है !
हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
आप कितनी गहराई से सोचती /समझती और प्रकट भी करती हैं ... कई बार विस्मित हुई हूँ !
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
जवाब देंहटाएं... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!
पलायन हमारा स्वभाव है
वे क्या जानेंगे सड़क पर खड़ी उस लड़की की व्यथा
जवाब देंहटाएंजिसके बाल उलझे हैं
एक लकीर गालों पर है
और सूखे होठों पर
कोई माँग शेष नहीं ....
एकदम सटीक ..... निशब्द करते भाव
वे क्या जानेंगे सड़क पर खड़ी उस लड़की की व्यथा
जवाब देंहटाएंजिसके बाल उलझे हैं
एक लकीर गालों पर है
और सूखे होठों पर
कोई माँग शेष नहीं ....
..सच दर्द को जिसने भोगा वही दर्द को समझ पाटा है ...
बहुत सुन्दर चिंतन कराती रचना ..आभार
दर्द जब कटघरे में होता है
जवाब देंहटाएंतो बहुत सन्नाटा होता है / अति सुन्दर
गहन सोच के बाद उपजा दर्द..लाजवाब..
जवाब देंहटाएंbadhiya abhivykti..
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएं---
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kitni gehrayi hai nazm me padh kar ubhar hi nahi pa rahi hun.
जवाब देंहटाएंआज के समय में यही सही है ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना हमेशा की तरह ...
जवाब देंहटाएंदुर्गापूजा और दशहरे की शुभकामनायें आपको...
जवाब देंहटाएंआदरणीया बेहद गहन रचना सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ, विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआपकी खासियत यह है दीदी कि वो भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द ढूंढ लाती हैं और उन शब्दों के अंदर की भावनाओं को तार-तार विश्लेषित करती हैं.. बहुत सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंदर्द जब गहरा हो
जवाब देंहटाएंतो आँखों की नदी भी सूख जाती है
शुष्क आँखों के नीचे
एक शुष्क हँसी होती है
श्रवण के माता-पिता की तरह !
दर्द को दर्द का मारा ही समझता है
बहुत सुंदर
ऐसी रचनाएं सिर्फ आपकी ही कलम से निकल सकती है। पूरा जीवन दर्शन है इस रचना में
विजयादशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं
दर्द जब गहरा हो
जवाब देंहटाएंतो आँखों की नदी भी सूख जाती है
शुष्क आँखों के नीचे
एक शुष्क हँसी होती है
श्रवण के माता-पिता की तरह !
दर्द को दर्द का मारा ही समझता है
बहुत सुंदर
ऐसी रचनाएं सिर्फ आपकी ही कलम से निकल सकती है। पूरा जीवन दर्शन है इस रचना में
विजयादशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं
दर्द बेजुबान कहाँ है रश्मि जी आपकी जुबां से बखूबी बोल रहा है
जवाब देंहटाएं"हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
जवाब देंहटाएंपुरवा ,पछिया जो भी नाम दो
वह दर्द को जुबान देती है
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है
... हम !
अपनी शान्ति के लिए
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!"
मर्म को छूती बहुत ही भावपूर्ण और सशक्त कविता।
हमेशा की तरह बेहतरीन...कविता में जटिलता होती है कम से कम तीन बार पड़ना पढ़ता है...लेकिन जब भाव समझ आता है तो एक लहर दौड़ जाती है...अद्भुत...शानदार।।।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी.. भावपूर्ण रचना.. कुछ देर सोचने पर मजबूर कर दिया !!
जवाब देंहटाएंव्यथा किसी की भी हो ......वो हर किसी की समझ से परे ही होती है ......कहते है ना ''जिस तन लागे ...वही मन जाने ''
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