18 सितंबर, 2024

बुनियाद

 जो रिश्ता रिश्तों के नाम पर

एक धारदार चाकू रहा,

उसे समाज के नाम पर

रिश्तों का हवाला देकर खून बहाने का हक दिया जाए 

अपशब्दों को भुलाकर क्षमा किया जाए,

कुरुक्षेत्र की अग्नि में घी डाला जाए _ क्यों ?

यह कैसी अच्छाई है !!!


क्या शकुनी बदल जाएगा 

धृतराष्ट्र की महत्त्वाकांक्षा बदल जाएगी

गांधारी अपनी आँखों की पट्टी खोल देंगी

फिर द्युत क्रीड़ा नहीं होगी

द्रौपदी के चीरहरण के मायने बदल जाएंगे

अभिमन्यु जीवित हो जाएगा ...


इस बेतुकी सीख का अर्थ क्या है ?


अगर सम्मान नहीं है एक दूसरे के लिए 

आँख उठाकर देखने की भी इच्छा नहीं

तो किसी तीसरे की यह सीख

कि भूल जाइए 

क्षमा कर दीजिए 

आप ही बड़प्पन निभा दीजिए... आग में घी ही है !

सूक्ति बोलनेवाले को अपना वर्चस्व दिखाना है

वरना सोचनेवाली बात है

कि कोई महाभारत को भुलाकर 

चलने की सलाह कैसे दे सकता है !


यूँ भी किसी रिश्ते की बुनियाद समझ है,

स्नेह है

सम्मान है ... 

क्षमा के लिए,

कुछ भूलकर चलने के लिए, 

-इसी बुनियाद की जरूरत है ! 


रश्मि प्रभा

17 सितंबर, 2024

अन्याय कब नहीं था ?

 अन्याय कब नहीं था ?

मुंह पर ताले कब नहीं थे ?

हादसों का रुप कब नहीं बदला गया ?!!!

तब तो किसी ने इतना ज्ञान नहीं दिखाया !

और आज 

सिर्फ़ ज्ञान ही ज्ञान दिखा रहे हैं ।

सड़क पर इन ज्ञानियों में से कोई नहीं उतरता है !

ये बस एक बाज़ी खेलते हैं,

सरकार की !!

किसका बेटा,

किसकी बेटी ... इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता इनको !

यह वह समूह है,

जो व्यक्ति विशेष को 

गाली देने के लिए बैठा है ...

उससे ऊपर कुछ है ही नहीं ।


अरे क्या सवाल पूछते हो तुम भी ???

"अपनी बेटी,बहन होती तो ?"

तो क्या ?

क्या कर लेंगे ये ?

ये बस फुफकारेंगे,

वर्ना इनका दिल भी जानता है 

कि इनको कोई फ़र्क नहीं पड़ा था

जब अपनी बहन, बेटी थी ।

इन्हें फ़र्क पड़ा बताने से !

इन्होंने उनको चुप करवा दिया,

और खुद भी 

अपनी अनदेखी इज्ज़त बचाने में 

मूक रहे ।

व्यथा को कभी शब्द दिए ही नहीं,

कभी गले लगाकर अपनी बहन, बेटी से पूछा तक नहीं,

कि तुमने अपने भय पर काबू कैसे किया !!!

उनको बिलखकर रोने की इजाज़त भी नहीं दी !

और मर्म की बात करते हैं !!!...


रश्मि प्रभा

06 सितंबर, 2024

सीख और ज्ञान

 अम्मा ने सिखाई संवेदनशीलता 

रास थमाई कल्पनाओं की

पापा ने कहा,

जीवन‌ में कमल बनना...

इस सीख के आगे कठिन परीक्षा हुई 

अनगिनत हतप्रभ करते व्यवधान आए,

साथ चलते लोगों के बदलते व्यवहार दिखे,

अबोध मन‌ ने प्रश्न उठाया !

यह सब क्यों ?

और कब तक ?

अम्मा ने कहा,

जाने दो,

पापा ने कहा,

उसमें और हममें फ़र्क है ।

हर उम्र,

हर रास्ते पर मैंने इनके शिक्षा मंत्र को 

सुवासित रखना चाहा

पर, इस फ़र्क ने,

इस जाने दो ने 

मन को एक लंबे समय तक रेगिस्तान बना दिया ।

उसी मरु हुए मन ने 

उनको भी गुरु ही मान लिया 

जो इसके विपरीत थे ।

मैंने राक्षसी प्रवृत्ति नहीं अपनाई

पर राक्षसों को जाने नहीं दिया !

अपने और उनके फ़र्क को बरक़रार रखा,

और समय आने पर हुंकार किया ।

मेरे हुंकार की बड़ी चर्चा हुई 

क्योंकि वह सामयिक था,

तब मैंने मौन धारण किया 

और शुष्क दिखाई देने लगी ।

अपनी शुष्कता से मेरे अंदर ही हाहाकार उठा,

बाकी सब तो आलोचक बने ।

मैंने आलोचनाओं के आगे महसूस किया 

कि आज भी मेरी शिक्षा में अम्मा,पापा का आरंभ अमिट है ।

पर मैंने आंधियों से भी ज्ञान लिया,

सूखती गंगा,

धराशायी वृक्षों, 

पहाड़ों के खत्म होते वजूद से सीखा,

गाली के बदले गाली नहीं दी,

लेकिन सुनी गई गालियों को याद रखा,

.... सबकुछ कृष्ण के न्याय पर छोड़ दिया ।

आज मैं जहां हूं,

उनके रथ से ही आई हूं 

और उतना ही किया है,

कहा है,

जितना आदेश उन्होंने दिया है ।

वे कहते हैं,

जाने दो, लेकिन तभी तक

जब तक तुम्हारा धैर्य है ।

कमल बने रहो,

लेकिन यह भी याद रखना 

कि समय के कमल की नियति जल है 

ना कि कीचड़ ।

 

रश्मि प्रभा

27 अगस्त, 2024

कृष्ण

 सोच रही हूं...

कृष्ण के हिस्से,

उनके जीवन में क्या नहीं था !

दहशत भरा अतीत,

वहां से निकलने का रास्ता,

माता पिता से दूर जाने का विकल्प,

घनघोर अंधेरा,

मूसलाधार बारिश,

शेषनाग की सुरक्षा,

यमुना का स्पर्श,

गोकुल की धरती,

मां यशोदा का सामीप्य 

नंदबाबा का घर

बलराम का साथ 

राक्षसी का सामना,

कालिया मर्दन 

माखन, राधा,

गोपिकाएं,

सुदामा,

गोवर्धन 

वृंदावन.... 

मथुरा ।

वियोग, कर्तव्य 

कंस मामा का वध 

उद्धव के ज्ञान को प्रेम तक पहुंचाना,

द्वारकाधीश बनना,

कुरुक्षेत्र में गीता सुनाना,

साम दाम दण्ड भेद -

सबको एक अर्थ देना ।

कपटी' सुनने की क्षमता,

सबकुछ जानते समझते हुए भी 

सही समय की प्रतीक्षा !

.....

रोम रोम अश्रुसिक्त 

उनके जन्मोत्सव के आगे नतमस्तक रहता है,

तभी तो हर बार 

मैं खुद में 

मां देवकी, यशोदा,

यमुना,राधा की गरिमा महसूस करती हूं,

माखन बनकर

उनके द्वारा चुराए जाने का सुख पाती हूं ।

उनकी बांसुरी की तान बनकर

हवाओं में घुल-मिल जाती हूं 

गोवर्धन बनकर 

उनकी हथेली पर होती हूं 

सुदर्शन चक्र बन

उनकी शक्ति में ढल जाती हूं 

इससे अधिक अब मैं और क्या पूजा करुंगी ।



रश्मि प्रभा

18 अगस्त, 2024

आह्वान है

 अभिनय और सत्य !!!

शब्दों और व्यवहार का,

एहसास का 

बहुत बड़ा फ़र्क होता है !

यदि मन-गोमुख से 

गंगा निकलती है 

भावना हरिद्वार

दृष्टि बनारस 

और वाणी कैलाश है 

तो देश के किसी भी कोने से 

जो आवाज़ उठेगी,

वह सिर्फ़ और सिर्फ़

अस्वीकार का इंकलाब होगी ... 

इंकलाब का अर्थ पता है न बंधु !

उसे लाने के लिए 

अन्याय की हवेली की ओर

एक पत्थर ईमान से उछालो 

या अनाचार की भीड़ पर 

विद्रोह की एक लंबी चीख 

अंगद के पांव सी डालो 

कि उसकी प्रतिध्वनियां 

उसे उठकर जाने न दें ... 

कुतुब मीनार की ऊंचाई से

लाल किले की गहराई से चीखो

द्वारका की आरती में

केदारनाथ की छाती में चीखो

अमरनाथ के गह्वर में

वाणगंगा की लहर में चीखो

अस्वीकृति के इस आंदोलन को

हर देहरी का दीप बनाओ 

उसे जलाए रखो ...!

छुट्टी लो,

समतल से पहाड़ों तक 

सागर के किनारों तक 

छुट्टी लेकर जाओ

गेट टुगेदर के लिए नहीं,

शराब की बोतलें खोलने के लिए नहीं,

मौज मस्ती में डोलने के लिए नहीं,

एक आत्मीय गुहार के लिए !

पाक-साफ़ प्रतिकार के लिए !

किसी अमानवीय घटना को 

कबतक दंतकथाओं में ढालोगे ?

अनुमानों के हवनकुंड में 

कबतक घी डालोगे ?

बस एक बार !

दिल पर हाथ रखो,

ज़मीर को जगाओ

पराए दर्द को सहो...

फिर कहो,

तुम्हारी बेटी होती तो..... ???

सारे सबूत मिटा दिए जाते तो ???

क्षत विक्षत बेटी को 

कहानी बनते देखकर 

इस तरह मशहूर होने पर 

खुश हो जाते ? 

ठहाके लगा पाते ? 

शरीर के पोस्टमार्टम के बाद

हर तरफ़ से मिलते

चरित्र के पोस्टमार्टम का ब्योरा 

संदेह के शब्द सुन पाते ?


ईश्वर ना करे ...!

किसी के भी साथ ऐसा हो !

पर जब हो ही जाए !

ऐसी दर्दनाक मौत 

जब मिल ही जाए !!!

देश की इतनी बेबस, 

ऐसी बेकस आज़ादी के क्या मायने !

आज़ादी को आज़ादी करो,

इसके लिए लड़ो,

आक्रोश को रगड़ो,

चिंगारियां फूटने दो ... 

दुष्यंत की आवाज़ आ रही है...

उसे सुनो,

पर्वत सी पीर पिघलने दो

हिमालय से गंगा निकलने दो

अपनी कोशिशों को 

सूरतें बदलने दो 

हर गली, सड़क, गांव, नगर में 

हवा में लहरा के 

लाशों को चलने दो

और मेरे सीने में नहीं तो

उसके सीने में सही ... नहीं !

मेरे, तेरे, इसके, उसके 

हर सीने में आग जलने दो !

बहुत ज़रूरत है इसकी,

बहुत ज़्यादा!

आज यही है तुम्हारी 

वांछनीय योग्यता ! 

लिखते जाओ,

सड़क पर आओ

सारे मंदिर, मस्जिद

गिरजा, गुरुद्वारे बंद कर दो

कोरोना काल की तरह 

यातायात रोक दो 

दुकानों के शटर गिरा दो...


मरना है हर हाल में 

तो आत्मा को जी भर

जीकर मरो...जीकर मरो !


रश्मि प्रभा

16 अगस्त, 2024

तांडव

 मैं स्त्री थी,

ममता, सहृदयता का स्तम्भ !

अन्नपूर्णा, बेटी,बहन, पत्नी, मां !!

ओ पुरुष,

तुमने इस स्तम्भ को गाली का दर्ज़ा दिया,

और ... महिषासुर बन गए !

और दुनिया में 

अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए,

नवरात्रि मनाने लगे ।

अपनी कुदृष्टि को सुकून देने के लिए 

कन्या पूजन करने लगे !

सिंह का गरजना,

त्रिशूल का गंतव्य 

तुमने स्वयं निश्चित किया ।

स्वयं मां दुर्गा बहुत रोईं,

पर अपनी हेठी में 

तुम बस घृणित ठहाके लगाते रहे,

कुबोल बोलते रहे ।

अब मां ने अपने आंसू खुद पोछ लिए हैं,

निर्णय का खड्ग उठा लिया है,

तुम्हारे द्वारा निर्धारित किसी वाहन से 

वे अब नहीं आएंगी !

तुम होते कौन हो तय करनेवाले 

कि वे कैसे आएंगी 

और कैसे जाएंगी 

और उनके क्या मायने हैं !

किसी भी लड़की को घेरते हुए 

उसे तार तार करते हुए,

उसे मृत्यु देते हुए 

क्या तुमने उसके मायनों को समझा ?

राजनीति खेलो 

या अपनी विकृति ...

देख तेरे घर में घूमती

नौ छाया को,

यानी अपने पूरे वंश के विनाश का तांडव ।


रश्मि प्रभा

06 अगस्त, 2024

चयन करो

 तुम्हें नींद आ रही है,

तुम लिहाज में जगे हुए हो !

तुम्हें भूख लगी है,

तुम लिहाज में कह नहीं रहे !

तुम्हें खेलने का मन नहीं,

तुम ख्याल रखने में खेल रहे हो !

तुम्हें चुप रहने का मन है,

लेकिन तुम बातचीत में शामिल हो !

तुम्हारी घूमने की इच्छा नहीं,

लेकिन सब जोर दे रहे हैं,

तो तुम निकल जाते हो !

तुम्हारे भीतर रुलाई दबी है,

लेकिन रो नहीं सकते...!

समझाइशों की फेहरिस्त तुम्हारे हाथ में होगी,

तुम बेचारगी से मुस्कुराओगे !

तुम चीखना चाहते हो,

लेकिन चीखते ही आलोचनाओं के घेरे में होगे !

तुम आज अपनी पसंद से 

रोटी,नमक, प्याज ही खाना चाहते हो,

पर सवालों के घी, अचार, पापड़ दे ही दिए जाएंगे 

नहीं लिया तो सनकी,

ज़िद्दी, अजीब कहे जाओगे ।

तुम सरल हो,

सबको खुश रखना चाहते हो,

आज इसके लिए,

कल उसके लिए चलना चाहते हो 

तो चलो न

कौन रोकता है ?

पर ये जानकर, ये मानकर चलो

कि तुम्हारा अतीत हो,

वर्तमान हो या भविष्य !

तुमको कोई भी सही नहीं कहेगा

और तुम !!!

'अवसादग्रस्त' कहे जाओगे।

ज़ाहिर सी बात है, ऐसा कहलाना

जो तुम नहीं हो ...

तुम्हें रातों को जगाएगा, 

अकेला होते ही रुलाएगा, 

एक न एक दिन - 

घोर अवसाद में छोड़ जाएगा। 

उससे पहले कि 

एक लाइलाज बीमारी के नाम से

तुम घोषित कर दिए जाओ,

बेबाक होकर अपनी बात कहो !

इस डर में मत रहो कि 

तुम्हें छोड़कर सब चले जाएंगे !

अरे वे सब अभी भी,

तुम्हारे साथ कहां हैं !

तुम उनके लिए हो ही क्या ?

ऐसी अंत्याक्षरी का हिस्सा,

जिसमें गलत गानों पर भी 

अंक नहीं कटते,

निरर्थक समय बिताने के लिए 

जिसे यूं ही खेला जाता है...

कि कुछ नहीं तो यही सही ! 

अगर ये तुम्हें कबूल है 

तो क्या कहना !

पर कबूल नहीं है 

तो हटाओ ये बेमौसम छाया कोहरा,

किसी कीमत पर मत बनो

उनके मनोरंजन का मोहरा !!!


उन्हें हैरानी होगी ?

होने दो!

वे तुम्हें कानी गाय कहेंगे ?

कहने दो!

भीड़ से बहिष्कृत कर देंगे तुम्हें ?

करने दो!

वैसे भी तुम उनके लिए 

कभी कुछ नहीं थे ... 

सदा से इस सच के उजाले में ही जाग रहे हो ना !

फिर भी,

कुछ बनने की खातिर

बेतहाशा भाग रहे हो  !

पांव डगमगाएं, मुंह के बल गिरो

और कोई उठाने वाला न हो...!

बेहतर होगा, 

खुद को समझा लो

उस भीड़ से अलग हो लो !

चोट फिर भी लग सकती है 

पर उस चोट में आनंद होगा - 

आज़ाद परवाज़ होने का ;

लहूलुहान होकर भी,

तुम्हें खुद के लिए एहसास होगा -

विश्वास होगा

अपने वजूद के बाज़ होने का !


क्षत होकर, विक्षत होकर सोचो,

अपने लिए मनलायक भीड़ का

पहले चयन करो...

फिर मस्ती में झूम के,

अपने ज़ख्मों को चूम के

उसके साथ हो लो...!

हमसफ़र होने को,

कहीं राह देख रही होगी मंज़िल !



30 जुलाई, 2024

ओ मेरी मंडली

 ओ मेरी मंडली 

(अपने अपने नाम को विश्वास के साथ रख लो मेरी मंडली लिस्ट में),

आओ चाय की टपरी पर पैदल चलते हैं,

बारिश के जमा पानी के छींटें उड़ाते,

ठहाके लगाते ...

एक प्लेट पकौड़े से क्या ही तृप्ति मिलेगी हमें !

दो प्लेट मंगवाते हैं,

साथ में लकड़ी के दहकते कोयले पर 

पकते, भुनते भुट्टे ।

काले मेघों की गर्जना 

और हमारी मंडली 

गाते हैं कुछ पुराने गीत 

पुरवा और पछिया हवा हमें छेड़ जाए 

और हम 

खुद बेबाक हवा बन जाएं 

चाय की केतली से निकलती 

भाप की तरह !!


रश्मि प्रभा

29 जुलाई, 2024

शिव

 हे शिव,

तुम जन्म से मेरे साथ थे

शायद तभी...

नहीं, नहीं 

निस्संदेह तभी

मुझे यह विश्वास रहा 

कि तुम हर जगह, 

हर घड़ी मेरे आस-पास उपस्थित हो !


उपस्थिति का अर्थ यह बिल्कुल नहीं

कि मेरे हिस्से हमेशा कथित जीत रही

बल्कि मुंह के बल गिरी 

पर एक सबक के साथ

मेरी हार भी

मेरी अगली जीत का 

मज़बूत आधार बनी।


तुम्हारी पूजा करते हुए

लोगों द्वारा निर्धारित 

तुम्हें प्रसन्न करनेवाली सामग्रियां

मेरे पास नहीं थीं !

बेलपत्र मिला

तो धतूरा नहीं 

कई बार सफ़ेद क्या,

कोई फूल नहीं मिला

बिना किसी तय विधि विधान के

मैंने पूजा की - सिर्फ निष्ठा से ।


मेरी आंखें शंखनाद बनीं

रक्त वाहिकाओं में दौड़ता 

ॐ का अनवरत उच्चार

अहर्निश जलता दीप बना 

और बेलपत्र,अक्षत,

भांग, धतूरा,नैवेद्य में काया ढल गई...

अंतर्मन अभिषेक का गंगाजल हुआ

और निर्विघ्न संपन्न होती रही 

मेरी रीतिहीन पूजा !


हे शिव,

जब तुम्हें शिकायत नहीं हुई

तो किसी और की आलोचना का क्या अर्थ है !

 मेरे रोम-रोम के वाद्यवृंद से 

सतत नि:सृत होता 

ऊं नमः शिवाय

ऊं नमः शिवाय

ऊं नमः शिवाय

कहता है - 

"मैं हूँ शिव और

तू है शिवप्रिया !"


रश्मि प्रभा

28 जुलाई, 2024

एक पहचान

 बारिश की बूंदों से हो रही है बातें

कहा है उसने आगे ही एक नदी है

जहां मैं खुद को एक पहचान दे रही हूँ,

मिट्टी, किनारे,नाव, मल्लाह, मछली... चांदनी से रिश्ता बना रही हूँ ।

सुनकर चल पड़ी हूँ उस ओर

जहां नदी बारिश की बूंदो संग

मेरा इंतजार कर रही है ...

सोचा है बैठूंगी नाव में,

इस किनारे से उस किनारे तक चलते हुए,

मल्लाह, नदी, धरती,आकाश की 

कुछ सुनूंगी,

कुछ सुनाऊंगी

 सुबह-सुबह पेड़, चिड़िया से तारतम्य बनाते हुए

बारिश की यात्रा बताऊंगी 

पेड़ों की प्यास बुझ जाएगी

चिड़िया चहचहा उठेगी,

यह जानकर

कि, पास ही नदी है

बारिश के पानी से भरी हुई

प्राकृतिक दुल्हन की तरह !


रश्मि प्रभा

26 जुलाई, 2024

खुद के लिए !!!

 बौद्धिक विचारों के लिबास से लिपटे लोग 

अक्सर कहते हैं -

खुद के लिए जियो,

खुद के लिए पहले सोचो"

... खुद के लिए ही सोचना था 

तब प्यार क्यों 

रिश्ते क्यों 

मित्रता क्यों 

इन सबसे ऊपर 'मोह' क्यों !

इन सबसे ऊपर होना 

इतना ही आसान होता 

तो न महाभिनिष्क्रमण का कोई अर्थ मिलता,

न संन्यासी की रचना होती 

और ना ही आवेश में कोई कहता,

"स्वार्थी" !!!

आंतरिक बेचैनी तक नहीं पहुंच सकते 

तो मत पहुंचो,

नाहक परामर्श मत दो ।

मेरा 'खुद' 

मैं हूँ ही नहीं 

और जो हूँ,

वह तुम्हारी सोच,

तुम्हारे तर्क, कुतर्क से 

कोसों दूर है 

और दूर ही रहेगा ।


रश्मि प्रभा

बुनियाद

 जो रिश्ता रिश्तों के नाम पर एक धारदार चाकू रहा, उसे समाज के नाम पर रिश्तों का हवाला देकर खून बहाने का हक दिया जाए  अपशब्दों को भुलाकर क्षमा...