22 जनवरी, 2008

हरिनाम .......


ज़िंदगी विषमताओं ,विरोधाभासों से भरी थी,
कब सुबह हुई,
कब रात!
कुछ होश नही रहता था.....
अन्दर से आती दुर्गन्ध से जाना
सारी इक्षायें मर चुकी थीं ,
सड़ चुकी थीं......
उसके ऊपर सलाहों,ताने-बानों की
मक्खियाँ भिनभिना रही थीं.......
लेकिन कर्ण कवच ने साँसों की प्रत्यंचा थाम रखी थी!
युद्ध-भूमि मे उतरना था-
विश्वास करो या न करो ,
सारथी श्री कृष्ण बने
दिया उपदेश............
क्या है छल! क्या है भ्रम!........
विश्वास भरने को नरक का द्वार भी दिखाया...
जिन्हें महारथी माना था,
उनका असली रूप दिखाया-
फिर भी,
कमज़ोर मन कुतर्क करता गया ......
परेशान हरि ने तब पैसों की बारिश की
और कहा ,
"पीछे देखो......."
देखा अफरातफरी मची है.सब लुटने मे व्यस्त हैं...
किसी को किसी से मतलब नही है,
...........
मैं एक ज़िंदगी पर आंसू बहा रही थी,
यहाँ तो जिंद गानियाँ रुला रही थीं!
कातर दृष्टि से हरि को देखा,
हरि मुस्काये,
सर सहलाया,
निस्सारता का पाठ पढाकर
हारे को हरिनाम दिया...........

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा है. लेकिन ........... हरिनाम .. हारे को ही क्यों ? और .. हरि अब तक मुस्काना भूले नहीं क्या ? ताज्जुब है !!

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  2. bahut sukhad hai aap ko padhna samjhna aur shabdon men doobna bhavon ko khojana

    Anil

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