10 अगस्त, 2017

- छिः ! ...




सफलता
सुकून
दृढ़ता के पल मिले
तो उसके साथ साथ ही
कहीं धरती दरक गई  ....
मुस्कुराते हुए
कई विस्फोट जेहन से गुजरते हैं
यूँ ही किसी शून्य में
आँखों से परे
मन अट्टहास करता है
...
कभी अपने मायने तलाशती हूँ
कभी अपने बेमानीपन से जूझती हूँ
होती जाती हूँ क्रमशः निर्विकार
गुनगुनाती हूँ कोई पुराना गीत
खुद को देती हूँ विश्वास
कि ज़िंदा हूँ !
....
इस विश्वास से कुछ होता नहीं
जीवन पूर्ववत उसी पटरी पर होती है
जहाँ खानाबदोशी सा
एक ठिकाना होता है
... खुली सड़क
भीड़
सन्नाटा
अँधेरा
डर में निडर होकर
गहरी उथली नींद
सुबह के बदले
दिन चढ़ आता है
और कुछ कुछ काम
जो होने ही चाहिए - हो जाते हैं !

बाह्य समस्या हो न हो
आंतरिक,
मानसिक समस्या इतनी है
कि कहीं जाने का दिल नहीं करता
सोचो न ,
ब्रश करना पहाड़ लगता है
नहाना बहुत बड़ा काम लगता है
खाना इसलिए
कि खाना चाहिए
हूँ -
पर अपनी उपस्थिति
प्रश्न सी लगती है
या उधार की तरह
...
 मंच पर जाने से पहले
एक सामान्य चेहरा
सामान्य मुस्कुराहट का मेकअप
कर लेती हूँ
किसी को कोई शिकायत न हो
खामखाह कोई प्रश्न न कौंधे
इस ख्याल से
मैं सबसे ज्यादा खुश नज़र आती हूँ
इतना
कि कई बार खुद की तस्वीर देखकर
धिक्कारती हूँ
- छिः !

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर शब्द भावों से परिपूर्ण आभार ,"एकलव्य"

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  2. सुंदर भावो में पिरोये आपकी रचना बहुत सुंदर👌

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  3. उहापोह की मनस्थिति को बहुत ही सुन्दरता से शब्दरूप दिया है आपने....
    बहुत ही सुन्दर... लाजवाब प्रस्तुति

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  4. चेहरे पर मुखौटे लगाकर चलने का दौर ही है ये ! कहीं ना कहीं सभी इस अंतर्व्यथा से गुजरते हैं ।

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  5. वाह ! कितनों के मन की उधेड़बुन को शब्दों में पिरो दिया ! जाने कितने लोग इस मन:स्थिति से हर वक्त गुज़रते हैं ! बहुत सुन्दर !

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  6. अंतर्द्वंद्व किसी हल की ओर ही बढ़ता जाता है जोकि कितनों की अभिव्यक्ति बन जाता है और फिर हम मनन करते हैं ... ऐसा क्यों हैं ? यही हैं जीवन के अनुत्तरित प्रश्न। उत्कृष्ट रचना।

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  7. हर कोई अपने आप से अपरिचित है और खुद को ही ढूँढ़ रहा है..

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