हादसे स्तब्ध हैं, ... हमने ऐसा तो नहीं चाहा था !
घर-घर दहशत में है,
एक एक सांस में रुकावट सी है,
दबे स्वर,ऊंचे स्वर में दादी,नानी कह रही हैं,
"अच्छा था जो ड्योढ़ी के अंदर ही
हमारी दुनिया थी"
नई पीढ़ी आवेश में पूछ रही,
"क्या सुरक्षित थी?"
बुदबुदा रही है पुरानी पीढ़ी,
"ना, सुरक्षित तो नहीं थे, लेकिन ...,
ये तो गिद्धों के बीच घिर गए तुम सब !
पैरों पर खड़े होने की चुनौती क्या मिली,
वक़्त ही फिसल गया सबके आगे ।
मुँह अंधेरे ही तुम सब निकलते हो,
रात गए तक आते हो,
इसका तो कोई प्रबन्ध हो सकता न ?
पहले भी दस से पांच तक काम होते थे,
स्कूल चलता था,
घरों में पार्टियां भी होती थीं,
पर एक वक़्त मुकर्रर था ।
अब तो कोई निश्चित समय ही नहीं रहा ।।
महानगरों में तो सड़कें रात भर जागती ही थीं,
अब तो गली,कस्बे भी जागते हैं,
जाने कैसी होड़ है ये !"
"सब करते हैं,
सब आते हैं असुरक्षित"
"वही तो !
सबसे पहले इसे दुरुस्त करना होगा,
बिना नम्बर कोई गाड़ी बाहर न निकले,
कहीं कोई देर तक झुंड में बैठा हो,
तो लाइसेंस की तरह
इस वजह की भी पूछताछ हो,
नाम,तस्वीर ले लिया जाए ।
जिस तरह आतंकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं,
नज़र रखने के उपाय होते हैं,
वैसे ही संदिग्ध टोली पर भी नज़र हो ।"
अन्यथा - किसी आक्रोश का कोई अर्थ नहीं ।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 07 दिसम्बर 2019 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
बेहद सटीक और सशक्त ..
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक.. लाजवाब समसामयिक सृजन
जवाब देंहटाएंचिंतनपरक सृजन ,हर काम का वक़्त तो मुकर्रर होना ही चाहिए ,सादर नमन
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