02 नवंबर, 2007

मुजरिम...



मित्र,

हवा में भटकते पत्ते की तरह

तू मेरे पास आया...

बिखरे बाल , पसीने से लथपथ,

घबराहट और भय से तुम्हारी आँखें फैली हुई थीं...

तार तार होती तुम्हारी कमीज़ पर,

खून के छींटे थे ,

उफ़!

तुमने लाशों से ज़मीन भर दी थी,

मैंने कांपते हाथों उन्हें दफना दिया...

तुम थरथर काँप रहे थे,

बिना कुछ पूछे,

मैंने तुम्हें बिठाया,

तुम्हे आश्वस्त करने को॥

तुम्हारी पीठ सहलाई,

ठंडे पानी का भरा ग्लास तुम्हारे होठों से लगाया,

- " कठिन घडी में ही मित्र की पहचान होती है"

इस कथन के नाम पर सब कुछ झेला,

तुम विछिप्त होते होते बच गए!

तुम्हारी मरी चेतना ने करवट ली,

तुम्हारा साहस लौट आया,

लोगों की जुबां पर मेरा नाम आया,

मुकदमा चला..................

गवाहों के आधार पर

मुजरिम मैं करार दिया गया,

एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,

भावहीन , सपाट दृष्टि से

तुम मुझे देख रहे थे!

आश्चर्य,

जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,

और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह. क्या खूब लिखा है. चंद पंक्तियों मे कितनी बड़ी सच्चाई बयान करदी

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  2. ओह .... दोस्ती के नाम पर बट्टा लगा दिया ... वैसे आज यही होता है ॥

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  3. सच्‍चाई बयां करती हुई बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  4. शायद इसीलिए यह शेर वजूद में आया होगा...
    दोस्तों को आजमाते चलो
    दुश्मनों से प्यार हो जाएगा....

    सुन्दर रचना दी..
    सादर.

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...