17 नवंबर, 2007

एकलव्य का अंगूठा




बचपन का सपना


सच के बीज लेकर चलता रहा


मिटटी की ओर


अपने को रूप देने के लिए.


सुझावों का सिलसिला चला-


मिटटी की पहचान,


सही बीज की समझ


और एक निश्चित जगह होनी चाहिए


और अचानक


सपना रुका


सच कहीं और चला


गुरु की मूर्ती पर हुआ अधिकार अर्जुन का


एकलव्य का अंगूठा गया.

15 टिप्‍पणियां:

  1. एकलव्य के अँगूठे के जाने के साथ साथ गुरू की गुरुता भी गई ।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  2. सच कहीं और चला
    गुरु की मूर्ति पर हुआ अधिकार अर्जुन का

    विचारणीय

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति रश्मि जी । वैसे सोचने को विवश करती है ये अंगुठे वाली घटना भले ही अंगूठा गया पर विश्वास ने दुनिया जीती।

    जवाब देंहटाएं
  4. एक यथार्थ,

    साधु-साधु

    अतिसुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत गहरी अभिव्यक्ति..
    सीखती हूँ आपकी हर रचना से...
    (और अंगूठा किसी भी दिन आप मांग सकती हैं )
    :-)
    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  6. गुरू-दक्षिणा मुझे भी देनी है.... :) कृपया सूचित करें..... :)

    जवाब देंहटाएं
  7. गहन भाव संयोजन के साथ बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...