16 नवंबर, 2007

समझौता...


ईश्वर जब देता है-छप्पर फाड़ के देता है
निःसंदेह,ईश्वर ने मेरे होठों पर हंसी कुछ ऐसे ही दी
हादसों को मैंने आत्मसात किया
सामान्य दिखने के लिए
हँसती रही,बस हँसती रही.
पिता की कमी,आर्थिक कमी
और सम्मान पर कीचड
क्या करती निरंतर रोकर?
पिता मेरे सर पर हाथ रखने नहीं आते
मानना था यही - "आत्मा अमर है"
आर्थिक कमी दूर नहीं हो सकती चुटकियों में
मानना है -
"जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये"
और सम्मान पर कीचड...
माना - "कीचड में ही कमल खिलता है"
और हँसती रही
ईश्वर ने मेरे होठों पर हँसी कुछ इस तरह ही दी...

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर. ग़मों से लड़ने के लिए इसे ही विचार मनुष्य के साथी बनते है. आपकी कविता पढ़ कर एक हिम्मत मिली.

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एहसास

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