29 अप्रैल, 2008

एक सपना...


मन,हो सके तो चलो,
एक सपना ले आयें गाँव से-
मिट्टी का चूल्हा,मिट्टी का आँगन,
धान की बालियाँ,पेड़ की छाँव,
कुंए का पानी,चिड़ियों का झुंड,
पूर्वा के झोंके,
टूटी-सी खाट,
मोटी-मोटी रोटियाँ,
फागुन के गीत,
पायल की रुनझुन,
चूड़ियों की खनक,
ढोलक की थाप
और तेरा साथ...................

27 अप्रैल, 2008

चंद बिखरी भावनाएं.........


( १)
हारकर चलना,
मज़बूरी नहीं,
ताकत होती है,
कोई माने या न माने
दुनिया उसी की होती है............
(२)
जब थी थकान,
चाह थी एक प्याले की,
भावनाओं का आदान-प्रदान था,
आंखों में कशिश थी,
स्पर्श में गर्माहट थी,
पलक झपके
भावनाओं के शब्दकोष खाली हुए,
व्यवहारिकता की बातें चलीं-
सारे संबंध ठंडे हुए.......
(३)
क्षणांश को ज़िंदगी मिली,
क्षणांश में जाना
भ्रम था,
क्षणांश में जाना यायावर था,
क्षणांश में समझा
वृक्ष बनाया
क्षणांश में
वृक्ष फर्निचर में बदला
क्षणांश में-
यायावर जीत गया.........
(४)
कहानी,कविता की सार्थकता वहीं है,
जहाँ दिल है,
पैसे की मेज़ पर
यह कूड़े का ढेर है,
आधुनिकता के आडम्बर में,
सजाते हैं किताबें करीने से,
पर एक शब्द का मर्म समझना
-मुश्किल है!
(५)
नहीं जानते जो तारीखों को,
तोतली भाषा को,
पहली मुस्कान,निर्झर हँसी को,
वे क्या जानेंगे प्यार को?!
उन्हें तो प्यारी है,
सिक्कों की खनक,
जहाँ नन्हें जूते नहीं होते
होती हैं अपनी कमजोरियाँ,
प्रयोजन के पीछे
तथाकथित मजबूरियाँ...........

25 अप्रैल, 2008

नज़रिया.....

'स्व' नज़रिया का मामला पेचीदा है,
प्रस्तुतीकरण दिखाई देती है,
जिनके पास कई हाथ होते हैं,
उनकी बात जुदा होती है....
"मत पूछो,मैं क्या?
मेरे बच्चे भी बर्दाश्त नहीं करते
कि,उनकी चीजें इधर-से-उधर हों!
धूल का एक कतरा,
ओह!my god
मेरा बच्चा उठते ही(नो मैटर 11 am )
अपने सामने सबकुछ रखवाता है,
यहाँ तक कि अपने खिलौनों के भी,
एक-एक करके धूल झड़वाता है......"
अब जो विश्वास करते हैं
"ये हाथ ही अपनी दौलत है,
ये हाथ ही अपनी ताकत है ..."
प्रसन्न विस्मय के साथ
सुनते हैं उनकी बात,
साथ-साथ देखते हैं,
अपने बच्चों को -
इस भाव के साथ,
"देखा इनके बच्चों को...."
बच्चे आँखें झुका लेते हैं,
क्योंकि वे अपना काम ख़ुद करते हैं
और भरी महफ़िल में अपने अभिभावकों को
आत्मप्रशस्ति में शामिल नहीं पाते हैं!!!!!!!!

22 अप्रैल, 2008

रावण रोता है...

रावण ने सीता का अपहरण किया,
कैद रखा वाटिका में,
पर तृण की ओट का मान रखा...
अपने ही नाश यज्ञ में उसने,
ब्राह्मण कुल का धर्म निभाया,
राम के हाथों प्राण तजे,
सीधा स्वर्ग को प्राप्त किया...
जाने कितने युग बीते!!!!
आज भी रावण को जलाते हैं,
और सत्य की जीत मनाते हैं !
पर गौर करो इस बात पे तुम,
गहराई से ज़रा मनन करो,
रावण को वे ही जलाते हैं,
जो राम नहीं कहलाते हैं,
ना ही रावण के चरणों की,
धूल ही बन पाते हैं...
जाने कितनी सीताओं का,
वे रोज़ अपहरण करते हैं...
ना रखते हैं किसी तृण का मान,
बन जाते हैं पूरे हैवान ...
ना राम का आना होता है ,
ना न्याय की आंखें खुलती हैं,
सीता कलंकिनी होती है ,
रावण भी फूट के रोता है!!!!!

21 अप्रैल, 2008

गिरने नहीं दूंगी......


सोच की गहराई तक,
उनका जाना मुमकिन नहीं-
जिनकी आँखें मोतियों को नहीं सपनातीं!
मैंने तुम्हारी आंखों से,
उन हर सपनों को देखा है-
जिसके आगे मेरी दुआओं से कहीं आगे ,
तुम्हारी इक्षा-शक्ति खड़ी रही...
किसी प्राप्य से चूक जाना,
हार नहीं होती-
समय का शायद एक गंभीर तकाजा होता है,
बहुत कुछ जानने-समझने के लिए...
मुझे पता है,
इससे गुज़रना आसान नहीं होता,
पर-गुजरना पड़ता है!
मैं तुम्हारी हर शिकन,हर धड़कन को ,
महसूस करती हूँ,
आंखों में तैरते सघन बादलों को भी जाना है,
उन एक-एक बादलों का-
बहुत बड़ा अर्थ है मेरी आँचल में...
ये सारे अर्थ तुम्हे मिलेंगे,
एक भी अर्थ,
मैं नीचे नहीं गिरने दूँगी..........

19 अप्रैल, 2008

माँ की शक्ति......


परिस्थितियाँ परिभाषाएं बदल देती हैं,
और एक अलग सच परिभाषित होता है...
चार दीवारों से घिरी एक छत 'घर' नहीं होती ,
'घर' एक माँ होती है,
दो बाँहें-चार दीवारों से अधिक सशक्त होती हैं,
छत में वो बात कहाँ,
जो बात माँ के आँचल में होती है!
आंधी-तूफ़ान,
क्या नहीं सह जाती है माँ,
एक-एक साँस मजबूत ईंट बन जाती है!
चार दीवारों का घर अपना न हो,
बनाये रिश्तों की यादें अपनी न हों ,
माँ-एक सुरक्षित घर का एहसास देती है,
ममता के जादुई स्पर्श से
-किराए का दर्द बाँट लेती है.........

18 अप्रैल, 2008

हर तरफ़ हर जगह, है उसी का नूर...


यूँ तो यह फिल्म का गाना है,पर इसे अपने द्वारा चुने गए फोटो के साथ बनाया.....फोटो ढूंढ़ना मेरा काम,बनाया खुशबू ने,यानि mka के द्वारा.........

16 अप्रैल, 2008

तूफ़ान.......


खुशनुमा हवाओं की खातिर,

खोला था रौशनदान....

तूफां के आसार नहीं थे -

पर आया तूफ़ान!

सोचूं,समझूँ और सम्भालूं.....

बाहर की सारी गंदगी,

आ गई थी कमरे के अन्दर...

यही हुआ है बार-बार,

जब-जब खोलें हैं मन के द्वार!

हमदर्द तो कोई आया नहीं,

हाँ,ज़ख्म कुरेदकर चल दिए...

अब तो बस है एक उपाय,

बंद करूँ सारे दरवाज़े,

सिमट जाऊं और खो जाऊं,

-भूले से ना नज़र आऊं..............

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

11 अप्रैल, 2008

मनःस्थिति.........



चाहती हूँ सोना,

एक गहरी नींद-

ताजगी के लिए,

अरसा हो गया,सोयी नहीं।

मैंने यकीनन हर तूफानों का सामना किया है,

इसके बाद भी बंधू,

मुझे डर लगता है!

कैसे समझाऊं मैं कौन थी,

मैं क्या हूँ?

पर-जो भी हूँ,

समय का विश्वास हूँ!

मैं जीवित हूँ या आत्मा हूँ,

मैं खुद नहीं जानती,

पर जो भी हूँ,

मेरी हाथों में ईश्वर का करिश्मा है..........

अधिक सवाल न करो,

मैं निरुत्तर हूँ,

पर तुम्हारी ज़िन्दगी का हल हूँ!

10 अप्रैल, 2008

मन...

कहाँ भटकते रहे मन?
तुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
जो "कस्तूरी" की तरह,
तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे!
तुम तो व्यर्थ हथेलियाँ ढूँढने में लगे थे,
ठोस हथेलियाँ तो तुम्हारे ही पास थी,
तुम रिश्तों का ताना-बाना बुनने में,
मकड़ी के जाल में फँस गए थे...
रिश्ते भी तुम्हारे ही अन्दर थे!
मेरे मन!
तुमने अपने कई स्वर्णिम वर्ष गँवा दिए,
अब ठहरो,
अन्दर की साज-सज्जा बदलो,
धूल की परतों को झाडो,
करीने से संवार दो...
हाँ,इतनी जगह रखना,
कि, खुली हवा आ जा सके...

06 अप्रैल, 2008

एक दर्द...


शब्द कमरे में भरे पड़े हैं,
कुछ ज़मीन पर,
कुछ दीवारों पर,
कुछ चादर की सलवटों में,
कुछ सिरहाने,
पर,
सन्नाटा बड़ा गहरा है............
पास पड़ी कलम उठाने की इक्षा नहीं होती,
न शब्दों को पिरोने का मन होता है!
शब्द भी तो कराह रहे हैं,
स्याही आंसू की तरह कागज़ पर टपक रहे हैं!
आँखें कुछ ढूँढती हैं.........
दृश्य सारे बदल चुके हैं,
रिश्ते ठंडे हो चुके हैं......
कहने को मैं हूँ,
पर दिखायी नहीं देती हूँ,
जाने कैसे?
-अपने ही अन्दर सिमट गई हूँ!!!!!!!!!!1

05 अप्रैल, 2008

असली रंग....


पिता ने 'ईमान' के पौधे को सींचा,

जिसकी शाखों पर' अभाव ' के फल लगे,

घर के बाहर न कभी कोई भीड़ लगी,

न पक्षियों का दल आँगन में उतरा,

हर जीत के बाद भी-

'अभाव'के कसैले फल मुझे मिले............

ऊँचे कॉलेज में दाखिला उनको मिला,

जहाँ भ्रष्टाचार का बसेरा था,

और पैसे की भरमार थी,

मेरे लिए तो वह , बस सपनों की बात थी!

निज पैरों की ताकत ने,

मन में नफरत की आग भरी,

बनकर टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं कागज़ पर वो जा उतरी,............

मंद-मंद फिर हवा चली,

कुछ हटकर लोग नज़र आए,

उनकी सारगर्भित आंखों में

अपना सम्मान नज़र आया...

जिस फल का स्वाद कसैला था,

उसकी ठोस जड़ें नज़र आयीं,

अब जाकर मैंने जाना-

ईमान का रंग क्या होता है!

बहुत खून बहते हैं राहों में,

पर रंग उनका ही असली होता है...............

02 अप्रैल, 2008

मानने की आदत नहीं....

एक मेज़,

कुछ कुर्सियाँ,

और लोग!

चाय की प्याली,

आलोचनाओं का दौर..........

इसने कहा,

उसने कहा,

और स्वनिष्कर्ष!

आलोचना का पात्र खडा है स्तब्ध,

मन की जिन परतों का ,

उसे ज्ञान तक नहीं -

उसे लोग कर रहे हैं सिद्ध...

है न अजीब बात!

नियति यह,

जो किया गया है सिद्ध,

उसे मान लो!

मत कहो कुछ,

कुछ मत कहो...

वर्ना,

फिर तैयार होंगी चाय की प्यालियाँ ,

चलेगा दौर-आलोचनाओं का,

कहेंगे लोग-

'मानने की आदत नहीं'।

01 अप्रैल, 2008

अच्छा किया.......


आंसू हर पल आंखों में नहीं तैरते,

लम्हा-दर-लम्हा -

जब्त हो जाते हैं,

विरोध का तेज बन जाते हैं.........

तुमने अपनी गरिमा में,

आंसुओं को बेमानी बना डाला,

अच्छा किया,

मैं वक्त की नजाकत का पाठ ,

भला कैसे सीख पाती!

तुमने मेरे वजूद की रक्षा में

ख़ुद को दाव पर नहीं लगाया ,

अच्छा किया,

मैं अपनी ज़मीन कहाँ ढूँढ पाती !

तुमने मेरे प्रलाप में चुप्पी साध ली,

अच्छा किया,

मैं पर्वत-सी गंभीरता कैसे ला पाती!

तुमने जो भी किया,

अच्छा किया,

मैं तुम्हारे पीछे भागना कैसे छोड़ पाती!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...