एक सपना ले आयें गाँव से-
मिट्टी का चूल्हा,मिट्टी का आँगन,
धान की बालियाँ,पेड़ की छाँव,
कुंए का पानी,चिड़ियों का झुंड,
शोर से अधिक एकांत का असर होता है, शोर में एकांत नहीं सुनाई देता -पर एकांत मे काल,शोर,रिश्ते,प्रेम, दुश्मनी,मित्रता, लोभ,क्रोध, बेईमानी,चालाकी … सबके अस्तित्व मुखर हो सत्य कहते हैं ! शोर में मन जिन तत्वों को अस्वीकार करता है - एकांत में स्वीकार करना ही होता है
चाहती हूँ सोना,
एक गहरी नींद-
ताजगी के लिए,
अरसा हो गया,सोयी नहीं।
मैंने यकीनन हर तूफानों का सामना किया है,
इसके बाद भी बंधू,
मुझे डर लगता है!
कैसे समझाऊं मैं कौन थी,
मैं क्या हूँ?
पर-जो भी हूँ,
समय का विश्वास हूँ!
मैं जीवित हूँ या आत्मा हूँ,
मैं खुद नहीं जानती,
पर जो भी हूँ,
मेरी हाथों में ईश्वर का करिश्मा है..........
अधिक सवाल न करो,
मैं निरुत्तर हूँ,
पर तुम्हारी ज़िन्दगी का हल हूँ!
एक मेज़,
कुछ कुर्सियाँ,
और लोग!
चाय की प्याली,
आलोचनाओं का दौर..........
इसने कहा,
उसने कहा,
और स्वनिष्कर्ष!
आलोचना का पात्र खडा है स्तब्ध,
मन की जिन परतों का ,
उसे ज्ञान तक नहीं -
उसे लोग कर रहे हैं सिद्ध...
है न अजीब बात!
नियति यह,
जो किया गया है सिद्ध,
उसे मान लो!
मत कहो कुछ,
कुछ मत कहो...
वर्ना,
फिर तैयार होंगी चाय की प्यालियाँ ,
चलेगा दौर-आलोचनाओं का,
कहेंगे लोग-
'मानने की आदत नहीं'।
मैंने महसूस किया है कि तुम देख रहे हो मुझे अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...