10 अप्रैल, 2008

मन...

कहाँ भटकते रहे मन?
तुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
जो "कस्तूरी" की तरह,
तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे!
तुम तो व्यर्थ हथेलियाँ ढूँढने में लगे थे,
ठोस हथेलियाँ तो तुम्हारे ही पास थी,
तुम रिश्तों का ताना-बाना बुनने में,
मकड़ी के जाल में फँस गए थे...
रिश्ते भी तुम्हारे ही अन्दर थे!
मेरे मन!
तुमने अपने कई स्वर्णिम वर्ष गँवा दिए,
अब ठहरो,
अन्दर की साज-सज्जा बदलो,
धूल की परतों को झाडो,
करीने से संवार दो...
हाँ,इतनी जगह रखना,
कि, खुली हवा आ जा सके...

9 टिप्‍पणियां:

  1. अब ठहरो,
    अन्दर की साज-सज्जा बदलो,
    धूल की परतों को झाडो,
    करीने से संवार दो...
    हाँ,इतनी जगह रखना,
    कि, खुली हवा आ जा सके...


    sach mein bahut khubsurat badhai

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  2. कहाँ भटकते रहे मन?
    तुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
    जो "कस्तूरी" की तरह,
    तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
    तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे!
    तुम तो व्यर्थ हथेलियाँ ढूँढने में लगे थे,

    Ek behtar soch aur ek umda rachna se rubaru karane ke liye dhanyad.

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  3. sahee kaha di
    "Mann Sarwasw hai,
    Mann hi shreshth hai!
    jo niraakar bhee, sakar bhee!
    wahi to Mann Ishwar hai...
    ...ehsaas"

    ...khubsurat kavita

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  4. रश्मि जी आपकी कवितायें बेहद उम्दा एवं दिलों को छू लेने वाली हैं । मैं नियमित रूप से इनका पाठन एवं मनन कर रहा हूं किन्तु समयाभाव के कारण कमेंट नहीं कर पा रहा हूं, क्षमा चाहता हूं ।


    आप लिखती रहें ..........

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  5. हाँ,इतनी जगह रखना,
    कि, खुली हवा आ जा सके...

    बहुत गूढ़ बात कही है आपने...
    बहुत सुन्दर.

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...