कहाँ भटकते रहे मन?
तुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
जो "कस्तूरी" की तरह,
तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे!
तुम तो व्यर्थ हथेलियाँ ढूँढने में लगे थे,
ठोस हथेलियाँ तो तुम्हारे ही पास थी,
तुम रिश्तों का ताना-बाना बुनने में,
मकड़ी के जाल में फँस गए थे...
रिश्ते भी तुम्हारे ही अन्दर थे!
मेरे मन!
तुमने अपने कई स्वर्णिम वर्ष गँवा दिए,
अब ठहरो,
अन्दर की साज-सज्जा बदलो,
धूल की परतों को झाडो,
करीने से संवार दो...
हाँ,इतनी जगह रखना,
कि, खुली हवा आ जा सके...
शोर से अधिक एकांत का असर होता है, शोर में एकांत नहीं सुनाई देता -पर एकांत मे काल,शोर,रिश्ते,प्रेम, दुश्मनी,मित्रता, लोभ,क्रोध, बेईमानी,चालाकी … सबके अस्तित्व मुखर हो सत्य कहते हैं ! शोर में मन जिन तत्वों को अस्वीकार करता है - एकांत में स्वीकार करना ही होता है
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rashmi ji ,
जवाब देंहटाएंbehad khoobsurat likha hai aapne !!abhivadan
बढिया है
जवाब देंहटाएंअमिताभ और मनोजय जी शुक्रिया......
जवाब देंहटाएंअब ठहरो,
जवाब देंहटाएंअन्दर की साज-सज्जा बदलो,
धूल की परतों को झाडो,
करीने से संवार दो...
हाँ,इतनी जगह रखना,
कि, खुली हवा आ जा सके...
sach mein bahut khubsurat badhai
कहाँ भटकते रहे मन?
जवाब देंहटाएंतुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
जो "कस्तूरी" की तरह,
तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे!
तुम तो व्यर्थ हथेलियाँ ढूँढने में लगे थे,
Ek behtar soch aur ek umda rachna se rubaru karane ke liye dhanyad.
खूबसूरत
जवाब देंहटाएंsahee kaha di
जवाब देंहटाएं"Mann Sarwasw hai,
Mann hi shreshth hai!
jo niraakar bhee, sakar bhee!
wahi to Mann Ishwar hai...
...ehsaas"
...khubsurat kavita
रश्मि जी आपकी कवितायें बेहद उम्दा एवं दिलों को छू लेने वाली हैं । मैं नियमित रूप से इनका पाठन एवं मनन कर रहा हूं किन्तु समयाभाव के कारण कमेंट नहीं कर पा रहा हूं, क्षमा चाहता हूं ।
जवाब देंहटाएंआप लिखती रहें ..........
हाँ,इतनी जगह रखना,
जवाब देंहटाएंकि, खुली हवा आ जा सके...
बहुत गूढ़ बात कही है आपने...
बहुत सुन्दर.