01 अप्रैल, 2012

तुम और शब्द - परिवर्तन का आह्वान



शब्दों की झोपड़ी में तुम्हें देखा था !!!...

इतनी बारीकी से तुमने उसे बनाया था
कि मुसलाधार बारिश हतप्रभ ...
- कोई सुराख नहीं थी निकलने की
कमरे में टपकने की !
दरवाज़े नहीं थे -
पर मजाल थी किसी की कि अन्दर आ जाए
एहसासों की हवाएँ भी इजाज़त लिया करती थीं !

न तुम सीता थी न उर्मिला न यशोदा
न राधा न ध्रुवस्वामिनी न यशोधरा ....
पर सबकी छाया प्रतिविम्बित थी तुम्हारे अक्स में
यह उन शब्दों का कमाल था
या फिर तुम्हारी खामोश निष्ठा का !

कमाल था तुम्हारे तेज का
तुम्हारे सत्य का
तुम मोम की तरह पिघलकर भी
कभी ख़त्म नहीं हुई
...
तुम्हारी चीखें -
तुम्हारे चेहरे की तनी नसों में संजीदगी से कैद थीं
जिन्हें शब्दों के मरहम से
तुमने वीनस बना दिया था !
अन्याय के काल्पनिक विरोध से
रक्तरंजित तुम्हारी हथेलियाँ
रामायण से कम नहीं लगती थीं
तुम्हारी प्रोज्ज्वलित आँखों के आगे
तुम्हारे दर्द का कुरुक्षेत्र नज़र आता था
लक्ष्यभेदी वाणों की गूँज सुनाई देती थी
और अविरल मुस्कान में एक अंतहीन तप !

.... झोपड़ी की दीवारों से लगे शब्द
आँगन में तुलसी की महिमा गाते थे
दीपक से निःसृत भावनाओं के पवित्र उजास
पूरे परिवेश में
अनकहे एहसासों का ग्रन्थ लिखते थे

.................................थे से है की यात्रा में
तुम्हारा हारना समय को मंजूर नहीं
तुम समय के रोम रोम से निकली
अपने स्वाभिमान के प्रति सजग तपस्विनी रही हो
समय से पूर्व
या समय के बाद
तुम्हें मरने का अधिकार नहीं
जिसकी झोपड़ी के आगे शब्दों का खुदा खड़ा हो
एहसासों की देवी हो
उसकी राहें कभी अवरुद्ध दिखें
यह किसी को स्वीकार नहीं !
रंचमात्र भी विस्मृति की शक्ल तुम्हारे लिए नहीं
मत भूलो -
तुम्हारी धड़कनों में वेद ऋचाएं धड़कती हैं
आँखों में आध्यात्मिक पांडुलिपियाँ हैं
तुम्हारे लिए हाँ तुम्हारे लिए
पूरी धरती कागज़ की शक्ल लिए खड़ी है
प्रकृति प्रदत्त हर मौसम की कलम में
भर लो नदी और सागर
लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है
हर अनकहे में रंग भर दो
तुम्हारे कमरे के एक एक शब्द सारथी की तलाश में हैं
उठो -
ज्ञान के सुदर्शन चक्र से
परिवर्तन का आह्वान करो .....

41 टिप्‍पणियां:

  1. पता नही क्यों ऐसा लगा जैसे एक एक शब्द मुझे सम्बोधित करके लिखा गया हो या जैसे मेरे लिये ही लिखा हो …………बहुत कुछ कह गयी आपकी रचना ………

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  2. शब्‍द हमेशा प्रतीक्षा में होते हैं।

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  3. झोपड़ी की दीवारों से लगे शब्द
    आँगन में तुलसी की महिमा गाते थे
    दीपक से निःसृत भावनाओं के पवित्र उजास
    पूरे परिवेश में
    अनकहे एहसासों का ग्रन्थ लिखते थे..बहुत ही गहन भावो की एक और प्रस्तुति..बहुत सुन्दर..

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  4. तुम्हारे कमरे के एक एक शब्द सारथी की तलाश में हैं
    उठो -
    ज्ञान के सुदर्शन चक्र से
    परिवर्तन का आह्वान करो ..... gazab ki abhwyakti rashmi jee....

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  5. कमाल था तुम्हारे तेज का
    तुम्हारे सत्य का
    तुम मोम की तरह पिघलकर भी
    कभी ख़त्म नहीं हुई sundarta aiwam styata

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  6. समय से पूर्व
    या समय के बाद
    तुम्हें मरने का अधिकार नहीं
    जिसकी झोपड़ी के आगे शब्दों का खुदा खड़ा हो
    एहसासों की देवी हो
    उसकी राहें कभी अवरुद्ध दिखें
    यह किसी को स्वीकार नहीं !

    बहुत सुन्दर दी......
    अद्भुत रचना.

    सादर

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  7. हमेशा की तरह ..प्रेरित करती हुई ...रश्मि जी ,
    इसीलिए तो आपको पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है.... :)

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  8. शब्दों की झोपड़ी में ज्ञान का दीपक हमेशा जलता रहता है।

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  9. तुम्हारे लिए हाँ तुम्हारे लिए
    पूरी धरती कागज़ की शक्ल लिए खड़ी है
    प्रकृति प्रदत्त हर मौसम की कलम में
    भर लो नदी और सागर
    लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है ...
    जोश और स्फूर्ति से भर दिया इन शब्दों ने.... आभार रश्मिजी...

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  10. मन के भीतर ही भावनाओं के महाभारत सी लगी रचना...

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  11. हर उस देवी के लिए है यह रचना जो त्याग की प्रतिमूर्ति है पर मौन है...एहसास और शब्दों से परिवर्तन लाने का अद्‌भुत आवाहन!!!

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  12. जिसकी झोपड़ी के आगे शब्दों का खुदा खड़ा हो
    एहसासों की देवी हो
    उसकी राहें कभी अवरुद्ध दिखें
    यह किसी को स्वीकार नहीं !

    मन भ्रमित है ... आपकी यह रचना प्रेरणा दे रही है ... शब्दों के खुदा को ढूंढ रहे हैं पर स्वयं में झाँकने का प्रयास नहीं कर रहे ...

    बहुत अच्छी रचना

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  13. अब तक अनकहा है उसको शब्द देती हैं आप..अति सुन्दर , प्रवाहमयी रचना..

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  14. लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है
    हर अनकहे में रंग भर दो
    तुम्हारे कमरे के एक एक शब्द सारथी की तलाश में हैं
    उठो -
    ज्ञान के सुदर्शन चक्र से
    परिवर्तन का आह्वान करो .....

    ....अद्भुत ! गहन प्रेरक अभिव्यक्ति...आभार

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  15. परिवर्तन कीचाह करना उसका फिर आवाहन करना .... बदलाव आने वाला है.. देर सवेर,इसका संकेत है.

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  16. तुम्हारी चीखें -
    तुम्हारे चेहरे की तनी नसों में संजीदगी से कैद थीं
    जिन्हें शब्दों के मरहम से
    तुमने वीनस बना दिया था !

    स्त्री के महानतम स्वरूप को श्रद्धा सुमन अर्पित करते शब्द प्रसून
    प्रेरक रचना

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  17. ज्ञान के सुदर्शन चक्र से
    परिवर्तन का आह्वान करो .....
    क्रांतिकारी रचना....

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  18. लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है
    हर अनकहे में रंग भर दो

    भर तो दिया आपने .....:))

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  19. तुम मोम की तरह पिघलकर भी
    कभी ख़त्म नहीं हुई
    ...

    अद्भुत जिजीविषा ...से ओत-प्रोत ....
    बहुत सकारात्मक कविता है ....
    आज कि रचना अद्भुत लगी रश्मि दी ....
    बहुत बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनायें ...

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  20. सर्वप्रथम आपको सादर नमस्कार .अच्छा लगता है जब आप जैसे दिग्गज मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी करते हैं ......उत्साहित होता हूँ .....

    आज आप तमाम ब्लॉगों को देखा ...व्यापक हैं ...बहुत बड़े दायरे में फैला हुआ है ...लगभग सभी विधाओं में ..नज़्मों की सौगात...
    वटवृक्ष
    हिन्द-युग्म Hindi Kavita
    प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ
    क्षणिकाएं
    परिकल्पना
    मेरी भावनायें...
    All India Bloggers' Associationऑ... इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन
    ब्लॉग बुलेटिन
    Hindi Bloggers Forum International (HBFI)
    प्यारी माँ
    खिलौने वाला घर
    परिचर्चा
    आपके इन सभी ब्लोगों को देखा ....अदभुत .....
    दिल से आभार .....इसी तरह मुझ जैसे नविन लेखकों का मार्गदर्शन कराते रहिये

    सादर

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  21. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...... लम्बी कविता में भावनाओं की तारतम्यता बंधना आसन नहीं होता मगर आपने इसे निभाया है.... क्या बेहतरीन कविता है.

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  22. क्या कहूं, अभी इसके पहले वाली कविता का असर बरकरार है,कि फिर एक बहुत ही भावपूर्ण रचना


    कमाल था तुम्हारे तेज का
    तुम्हारे सत्य का
    तुम मोम की तरह पिघलकर भी
    कभी ख़त्म नहीं हुई

    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
  23. पर सबकी छाया प्रतिविम्बित थी तुम्हारे अक्स में
    बिल्‍कुल सच कहा है आपने ... शब्‍दश:

    जवाब देंहटाएं
  24. जिसकी झोपड़ी के आगे शब्दों का खुदा खड़ा हो
    एहसासों की देवी हो
    उसकी राहें कभी अवरुद्ध दिखें
    यह किसी को स्वीकार नहीं !
    रंचमात्र भी विस्मृति की शक्ल तुम्हारे लिए नहीं.....
    bahut sundar shabd

    जवाब देंहटाएं
  25. कितनी बार पढ़ गया दी इस अद्भुत रचना को....
    इतनी सघनता से गुंथे हुए हैं भाव के आवाक कर देते हैं... मोम की तरह पिघल कर भी ख़त्म नहीं होना... शब्दों के मरहम से वीनस बनाना... काल्पनिक विरोध से रक्तरंजित हाथ... दर्द का कुरुक्षेत्र... ओह! अद्भुत बिम्बों से कसी ऐसी रचना जिसके किसी अंश को पृथक उद्धृत नहीं किया जा सकता... अद्भुत....
    सादर नमन.

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  26. तुम्हारी धड़कनों में वेद ऋचाएं धड़कती हैं
    आँखों में आध्यात्मिक पांडुलिपियाँ हैं
    तुम्हारे लिए हाँ तुम्हारे लिए
    पूरी धरती कागज़ की शक्ल लिए खड़ी है
    प्रकृति प्रदत्त हर मौसम की कलम में
    भर लो नदी और सागर
    लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है
    हर अनकहे में रंग भर दो

    बहुत सुंदर भाव लिये एक सार्थक सन्देश देती कविता.

    बधाई एवं शुभकामनायें.

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  27. विचार के विस्तार की असीम श्रृंखला, बहुत अद्भुत रचना, बधाई.

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  28. प्रेरक ....सकारात्मक , सार्थक !

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  29. सम्यक ज्ञान ही हमें विवशताओं के परे निकालता है।

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  30. कल 04/04/2012 को आपके ब्‍लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    ... अच्छे लोग मेरा पीछा करते हैं .... ...

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  31. क्या कहूँ बस एक ही शब्द गज़ब ....

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  32. ये शब्दों का मायाजाल हैं ........हम जैसे लिखने वाले इस में ही फसं कर रहे गए हैं ...शब्द एक जाले की भांति अपने इर्द गिर्द हैं अब ...जो अपनी सोच को मजबूती से जकडे हुए हैं

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  33. कमाल था तुम्हारे तेज का
    तुम्हारे सत्य का
    तुम मोम की तरह पिघलकर भी
    कभी ख़त्म नहीं हुई .....शब्दों की अनवरत अभिवयक्ति.......

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  34. तुम्हारी चीखें -
    तुम्हारे चेहरे की तनी नसों में संजीदगी से कैद थीं
    जिन्हें शब्दों के मरहम से
    तुमने वीनस बना दिया था !
    अन्याय के काल्पनिक विरोध से
    रक्तरंजित तुम्हारी हथेलियाँ
    रामायण से कम नहीं लगती थीं
    तुम्हारी प्रोज्ज्वलित आँखों के आगे
    तुम्हारे दर्द का कुरुक्षेत्र नज़र आता था
    लक्ष्यभेदी वाणों की गूँज सुनाई देती थी
    और अविरल मुस्कान में एक अंतहीन तप !

    पूरी तरह से निशब्द निर्वाक हो गयी हूँ इस अप्रतिम रचना को पढ़ कर ! बार-बार पढती हूँ लेकिन जी नहीं भरता ! आपकी लेखनी को सौ बार नमन रश्मि जी ! बहुत ही उत्कृष्ट रचना है ! काश आपका आह्वान हर नारी तक पहुँच सके ! तथास्तु !

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...