हिदायतों का समय गुजर गया
चलो अपने शब्दों की डोक्युमेनट्री फिल्म में
तुम्हें वो पल दिखाएँ
जिनके मायने थे
देखो गौर से क्या क्या छूट गया ...
चिलचिलाती धूपपसीने से तरबतर मुस्कान
तितली पकड़ने का उन्माद
कच्चे टिकोलों की मिठास
हरि लिच्चियों की चोरी
फिर उमेठे कान का दर्द ....
सुबह देता जब मुर्गा बांग
दर्द हो जाता छूमंतर
नई शरारत की योजना बल्लियों उछलती
मिट्टी से सने पैरों में घर की खुशियाँ मचलती
थोड़ी सी डांट
बहुत सा दुलार .....
छूट गया सब ऊँची बिल्डिंग के पीछे !
नए कपड़े जब आते
तो पीछे कोने में हल्दी लगा
शुभ शुभ की दुआ करते थे अपने ....
जो हर कामयाबी में
बहुत मायने रखते थे
पर वे देहाती ढकोसले की तोहमत में लुप्त हो गए !
दलिद्दर भगाने का वह सहज तरीका
लक्ष्मी कम ही सही
सुकून से ठहरती थीं ...
पडोसी के बच्चे की उत्तीर्णता पर
एक एक घर में दावत
खुशियों का सीना चौड़ा कर जाता था
मृत्यु में
अनजान के घर से भी हर दिन का भोजन
दर्द को सहने की ताकत देता था
परम्पराओं को निभाने की उर्जा देता था
और एक रिश्ता जोड़ता था
गाँव की बेटी - सबकी बेटी
पूरा मोहल्ला मायका सा होता था
घर की बूढ़ी दाई के भी पैर छुए जाते थे
आशीषों का गहरा अर्थ हुआ करता था ....
आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !
पूजा पाठ में सात्विक नियमितता
एक पवित्र एहसास देता
पूजा घर में नंगे पाँव जाना
हाथ धोकर वहाँ से कुछ उठाना
फूल , अगरबत्ती , प्रसाद .... अर्थहीन नहीं थे
व्यस्क बातों में एहतियात
बड़ों के सम्मान में खड़े होना
हमारे खूबसूरत संस्कार थे
अब तो अश्लील शब्द आम हो गए
प्रश्न है - तो इसमें क्या है ? !
तो इसमें क्या है' का उत्तर सरल है
पर जब हम मानना ही नहीं चाहें
तो प्रत्युत्तर में चीखने से भी क्या है !
एक एक तेज स्वर
हमारी ही गरिमा मिटा रहे
चीखते चिल्लाते
लीक से हटते हटते
हम सब बदशक्ल हो गए हैं !
कृत्रिम प्रसाधनों का बोलबाला है
पर उसमें संस्कार नहीं होते
न ही होता कोई मासूम जादू
जो हमें सभ्य सौम्य दिखा दे
बनाना तो दूर की बात है !
अधनंगे शरीर ...
दादा नाना पिता भाई - किसी से कोई परहेज नहीं !
अब आँखें नहीं बोलती
ख़ामोशी नहीं बोलती
अब सबकुछ शरीर बोलता है
और शरीर के द्विअर्थी संवाद
दूसरे की मानसिकता !
हम इतने खुलेआम हो चुके हैं
कि गलत सही का फर्क नहीं रहा
पर्दानशीं को बेपर्दा करने का मामला रफा दफा हो गया
अब तो - चाहत का जाम है
चियर्स कहो और अपनी धज्जियां खुद उड़ा लो
और हर धज्जी से यूँ देखो
कि जिसे भी इज्ज़त और जान प्यारी है
वह कुछ कहने का साहस ना करे ...
अब सारी खरीदफरोख्त पैसे से है
समय , मस्ती , ख़ुशी . हवा
.... जीतना है
हर हाल में जीतना है
धक्का देकर ही सही !
बेहतर है !!!
क्या क्या छूट गया की चिंता के लिए भी वक़्त नहीं
अभी शकुनी के पासे हैं हाथ में
तो जीत का जश्न मनाओ कमरे में
बाहर सिर्फ सन्नाटा है
बड़े बुज़ुर्ग , बच्चे , पडोसी, ब्रह्ममुहूर्त , लोरी , कहानी .....
कहीं कोई नहीं , कुछ भी नहीं है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!