30 अगस्त, 2012

बस प्रेम ही है ....



प्रेम को जब भी एक शक्ल देना चाहा
तो या तो मैं दीवारों में चुन दी गई
या फिर वह शक्ल बड़ी डरावनी हो गई ...
......
ऐसे में अच्छा लगा
सहज लगा
कभी रेत पर
कभी बादलों में
कभी आँखों की पुतलियों में
एक चित्र बनाना
उसे प्रेम का नाम देना
मान मनुहार करना
फिर उसे समेट देना ...

ऐसे में -
मैं सती हुई , पार्वती बनी
सीता, राधा, मीरा हुई
हीर बनी, शीरीं बनी
चपल चंचल गौरा बनी
..... पुरवईया मेरे आँचल की लहरें बनी
धरती से आकाश तक मैं विस्तृत हुई

एक ही दिन एक ही समय
मैं कंदराओं में गई
हिमालय पर बर्फ बनी
मोम बनी,उल्का बनी
काश्मीर से कन्याकुमारी तक
उद्द्यानों में घूमी...
मैं तार बनी
संगीत हुई
पायल की झंकार बनी
...
कभी थिरक थिरक
कभी मचल मचल
मैं मेघ राग की धार बनी
मैं भागीरथी की गंगा हुई
शिव की जटा में दिव्य हुई
हहर हहर धरती पर उतरी
देव पूजन का अर्घ्य बनी
देव समर्पण लक्ष्य हुई

शांत नीरव में मैंने रंग बिखेरे प्रेम के
और बचपन की नींव रखी
न द्वेष यहाँ
न दंभ कोई
बचपन सी मासूमियत हर कहीं
.......... इस तरह प्रेम को जीया मैंने
कोई नाम नहीं, कोई शक्ल नहीं
वह एक एक रिश्ते में है
हँसी में है
दुःख में है
त्योहार में है
उल्लास में है
प्रेम है वह
बस प्रेम ही है ....

27 अगस्त, 2012

प्रेम .... मेरे लिए



प्रेम .... मेरे लिए
एक आध्यात्मिक कल्पना
जो कल भी था .... आज भी है
एक आकृति लिए निश्छल प्रेम !
- बरसों से
अल्हड़ उम्र से
इस आकृति की ऊँगली थामकर ही चलती आई हूँ ...
आकृति उभरकर स्पष्ट हो जाए
तो नाटकीयता , उदासीनता , शिकायतें
हो ही जाती हैं
पर एक छाया - अपने होने का एहसास देकर
हर उतार-चढ़ाव के निराकरण देती है ...
जब कोई हाथ ना रहे पास में
आंसू पोछने के लिए
तो वह प्रेम
मन से कहता है ....
चल से अचल
सार से निस्सार
सूक्ष्म से विस्तार
माया से निर्वाण
सुख से दुःख
प्राप्य से अप्राप्य
होनी से अनहोनी
मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .
वह दिखे .... कोई ज़रूरी नहीं
क्योंकि प्रेम एक अनुभूति है
दिखावा नहीं !
अमर्यादित दिखावे सच से कोसों दूर होते हैं
और एहसास मौन है
वह आपस को जीता है
अन्य को क्या जताना !
प्रेम का यह अलौकिक सत्य
अक्सर काल्पनिक होता है
पर हकीकत की संजीवनी कल्पना में ही निहित होती है !
प्रेम हो , ख्वाब न हो
बादलों तक पहुँच न हो
इन्द्रधनुष रथ न बने
क्षितिज पर गोधूलि अल्पना न सजाये
तारे दीपोत्सव न मनाएं
ध्रुव तारा चेहरे पर ना उतर आए
ख़ामोशी खिलखिलाहट
खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने
तो प्रेम हो ही नहीं सकता
न समझा जा सकता है
न जीया जा सकता है
और मैंने इस प्रेम को भरपूर जीया है
आकृतिहीन आकृति के संग
और वही मेरी सुरक्षा है
मेरा मान है
मेरी मर्यादित सीमायें हैं .........

25 अगस्त, 2012

यह सिलसिला खत्म न हो ....!




मेरी अदम्य ख्वाहिश रही
उम्र से परे -
मैं बनूँ विशाल बरगद
जिसकी छाँव में थकान को नींद आए
पसीने से सराबोर चेहरे सूख जाएँ
प्राकृतिक हवा
कोई प्राकृतिक ख्वाब दे जाए
चिड़ियों के कलरव की धुन
घर से दूर बच्चों की याद दे जाए
और अधिक स्फूर्ति से भरकर
पथिक अपने घर पहुँचे
जहाँ उसके उल्लासित चेहरे को देख
पूरा घर सोंधा सोंधा हो जाए ....

मैं बनती गयी बरगद
चबूतरा बनाया
पानी का मटका रखा
चने गुड़ का खोमचा लगाया
चिड़ियों के लिए अपने हाथों
सजीले घोंसले बनाये
पथिकों के दर्द बांटे
एक पत्ता ख़ुशी का दिया
इस बात से बेखबर
कि एक एक पत्ते के कम होने से
मेरा सौंदर्य कम हो जायेगा !
..... क्योंकि मेरी ख्वाहिशों में मेरा सौंदर्य
उनकी ख़ुशी से जुड़ा था
और बादलों पर भी मुझे पूरा भरोसा था !

आह -
इन्सान होकर भी
इंसानों की नियत से अनजान रही
दूध से बुरी तरह जलकर भी
छांछ को कभी नहीं फूंका
परिणाम-
???
जिन इंसानों ने पापनाशिनी गंगा के सीने पर पाप का तांडव किया
उसकी दिशा मोड़ दी
उसे लुप्तप्रायः कर डाला
वे मुझे क्या बक्शते !
कुल्हाड़ी लेकर वे रोज यहाँ आते हैं
जड़ के पास प्रहार करते हैं
थककर , टेक लगाकर कहते हैं
' गजब की मजबूती है ...'
और कल फिर आने की मकसद लिए लौट जाते हैं
.....
उनके शब्द , उनके इरादे मुझे चीरकर रख देते हैं
चाहती हूँ
अपनी ख्वाहिशों को तिलांजली दे गिर जाऊँ
पर !!!
मैं अपने अस्तित्व से मुक्त हो सकती हूँ
लेकिन घोंसलों को कैसे गिरा दूँ
उन्हें मेरी मजबूती पर अपने बच्चों को उड़ना सिखाना है
और बरगद बनी लड़की की कहानी सुनानी है
हर तने से एक बांसुरी बनाना उनकी ख्वाहिश है
ताकि बिना किसी के सहयोग के
बांसुरी कैसे गाती है
यह जादू उन्हें दिखाना है
ताकि कल फिर कोई बरगद होने की ख्वाहिश रखे
यह सिलसिला किसी कुल्हाड़ी से खत्म न हो ....!

22 अगस्त, 2012

हमेशा .....





गलतफहमियां होती हैं
पर स्व विश्लेषण पर
दृष्टि मस्तिष्क समय अनुभव ...
ये सब ज्ञान का स्रोत होते हैं !
एक ही व्यक्ति सबके लिए एक सा नहीं होता
एक सा व्यवहार जब सब नहीं करते
तो एक सा व्यक्ति कैसे मिलेगा !
पर प्रतिस्पर्द्धा लिए
उसके निजत्व को उछालना
अपनी विकृत मंशाओं की अग्नि को शांत करना
क्या सही है ! ...
.....
पाप और पुण्य - !!!
उसके भी सांचे समय की चाक पर होते हैं
जैसे -
राम ने गर्भवती सीता को वन भेजा ...
हम आलोचना करने लगे
सोचा ही नहीं
कि हम राम होते तो क्या करते
यज्ञ में सीता की मूर्ति रखते
या - वंश का नाम दे दूसरा विवाह रचाते !

१४ वर्ष यशोदा के आँगन में बचपन जीकर
कृष्ण मथुरा चले ...
हमने कहा -
राज्य लोभ में कृष्ण माखन का स्वाद भूल चले ...
सोचा ही नहीं
माँ देवकी को मुक्त कराने के लिए
माँ यशोदा से दूर हुए
सारे आंसू जब्त किये कृष्ण
..... यूँ ही तो गीता नहीं सुना सके !...
अब इसमें अहम् सवाल ये है कि हम क्या करते -
संभवतः यशोदा और देवकी को वृद्धाश्रम रखते !!
......
हम दूसरों का आकलन करने में माहिर हैं
उसके कार्य के पीछे की नीयत तक बखूबी भांप लेते हैं
उसे क्या सजा होनी चाहिए - यह भी तय कर लेते हैं
इतनी बारीकी से हम खुद को कभी तौल नहीं पाते !
क्योंकि ....
भले ही हमने जघन्य हत्याएं की हों
अतिशय आक्रोश में अपनी बात मनवाने के लिए
माँ के चेहरे पर पाँचों उँगलियों के निशां बनाये हों
भले ही हम एक बार भी न सोच पाए हों
कि इस माँ ने नौ महीने हमें गर्भ में रखा
.....हम गलत होते ही नहीं
क्योंकि विश्लेषण हम सामनेवाले का ही करते हैं
आत्मविश्लेषण हमारे गले मुश्किल से उतरता है ...

हम दरअसल औरंगजेब की सोच रखते हैं
पंच परमेश्वर भी हमारी तराजू पर होता है
हमसे बढ़कर दूसरा कोई ज्ञानी नहीं होता
हो ही नहीं सकता ...
यह अपना कंस , शकुनी सा ' मैं '
हमेशा सही होता है !!!
हमेशा .....

20 अगस्त, 2012

एक आलेख उनके नाम ही सही ....






कवि पन्त के दिए नाम रश्मि से मैं भावों की प्रकृति से जुड़ी . बड़ी सहजता से कवि पन्त ने मुझे सूर्य से जोड़ दिया और अपने आशीर्वचनों की पाण्डुलिपि मुझे दी - जिसके हर पृष्ठ मेरे लिए द्वार खोलते गए . रश्मि - यानि सूर्य की किरणें एक जगह नहीं होतीं और निःसंदेह उसकी प्रखरता तब जानी जाती है , जब वह धरती से जुड़ती है . मैंने धरती से ऊपर अपने पाँव कभी नहीं किये ..... और प्रकृति के हर कणों से दोस्ती की . मेरे शब्द भावों ने मुझे रक्त से परे कई रिश्ते दिए , और यह मेरी कलम का सम्मान ही नहीं , मेरी माँ , मेरे पापा .... मेरे बच्चों का भी सम्मान है और मेरा सौभाग्य कि मैं यह सम्मान दे सकी . नाम लिखने लगूँ तो ........ फिर शब्द भावों के लिए कुछ शेष नहीं रह जायेगा ! तो एक आलेख उनके नाम ही सही ....
एक काव्य के रूप में मुझे सबसे पहले मिलीं - रंजना भाटिया , कुछ मेरी कलम से वे मुझे अपनी पंक्तियों सी लगीं - " जीवन खुद ही एक गीत है, गज़ल है, नज़्म है. बस उसको रूह से महसूस करने की ज़रूरत है. उसके हर पहलु को नये ढंग से छू लेने की ज़रूरत है." मैंने इनको पढ़ना - समझना कभी नहीं छोड़ा , क्योंकि न मैं झील से दूर हो सकती हूँ , न लम्हों से , न पंखों की उड़ान से ,न शब्दों से होनेवाली प्राण प्रतिष्ठा से !
फिर मैंने पढ़ा समीर लाल जी को यानि आकाश पर गई नज़र - ओह ! उड़न तश्तरी ....
क्या नहीं मिला इनकी लेखनी में - हर शैली , हर अंदाज - सबकुछ ख़ास पर खुद सरल - बिल्कुल प्राकृतिक ! इनकी सलाह पर अमल कीजिये तो लाभ ही लाभ है , नुकसान कत्तई नहीं -
"टिप्पणियों और तारीफों का ख्याल दिल से निकाल दो,
बस अच्छा लिखते जाओ... फिर देखो-
तुम चिट्ठाजगत के हो और यह चिट्ठाजगत तुम्हारा है."

"वेदना तो हूँ पर संवेदना नहीं, सह तो हूँ पर अनुभूति नहीं, मौजूद तो हूँ पर एहसास नहीं, ज़िन्दगी तो हूँ पर जिंदादिल नहीं, मनुष्य तो हूँ पर मनुष्यता नहीं , विचार तो हूँ पर अभिव्यक्ति नहीं .... " अपने इन एहसासों की गरिमा के साथ मुझे मिलीं शोभना चौरे अपनी अभिव्यक्ति के साथ .

मुलाकातों के मध्य शब्दों के अरण्य में , जिसे लोग ब्लॉग कहते हैं फख्र से - उसमें मैं एक अनजान चिड़िया सी आई . ओह ! कितने प्यारे प्यारे घोंसले हैं यहाँ , मैं कैसा बनाऊं - चिंता थी भारी ...
तब मेरी बिटिया यानि नन्हीं गौरैया खुशबू ने कहा - इसमें क्या है भारी ? और एक डाली पर तिनकों से निर्माण कार्य शुरू किया .... शब्द भाव मेरे , चोंच सी कलम उसकी , पर रोमन दाने मिले -उसी में मैं खुश कि बया की तरह संजीव तिवारी जी मिले और हिंदी में लिखने का आरंभ हुआ . कई लोगों के मध्य मेरी पहचान यानि मेरे नीड़ ( ब्लॉग ) की पहचान इन्होंने दी - इस सीख के साथ -
हिन्‍दी एग्रीगेटर पंजीयन प्रक्रिया इस प्रकार है :-

1 http://blogvani.com/logo.aspxस पेज पर जाए और अपने ब्‍लाग का पता डालें वहां एक एचटीएमएल कोड जनरेट होगा उसे अपने ब्‍लाग के टेम्‍पलेट में एचटीएमएल कोड के रूप में डाल देवें यह ब्‍लागवाणी का पंजीकरण होगा

2 चिट्ठाजगत : http://www.chitthajagat.in/panjikaran.php


4 हिन्‍दी की समस्‍त कडी अपने कम्‍यूटर में हर एक्‍सप्‍लोरर के ओपनिंग के साथ ही देखने के लिए

हिंदी के साथ मैं अपने घोंसले में उतरी 28 अक्तूबर 2007 को रचना अद्भुत शिक्षा ! के साथ , जिसके पहले टिप्पणीकार हुए मुकेश कुमार सिन्हा , मेरे छोटे भाई ! सोच की अदभुत ताकत ने उनके हाथों में कलम दी ताकि आसान हो जाएँ जिंदगी की राहें
" जो कभी लगती है, बहुत लम्बी! तो कभी दिखती है बहुत छोटी!! निर्भर करता है पथिक पर, वो कैसे इसको पार करना चाहता है........."

मैंने 2007 में ही जाना अर्बुडा को , जो कहती हैं मेरे हैं सिर्फ पंख... और सामने खुला आकाश...
किताबों की दुनिया में व्याख्या, समीक्षा के साथ मिले नीरज गोस्वामी

कुछ नाम ब्लॉग से परे आत्मीय होते गए - अच्छा लगा मुझे रश्मि जी से निकलकर कुछ संबोधनों से जुड़ना - किसी ने माँ कहा , किसी ने मासी , आंटी ......... जो संबोधन मेरे दिल के बेहद करीब आया , वह है - दीदी . कहने को कई लोगों ने दीदी पुकारा , लिखा .... पर कुछ की पुकार में संस्कार मिले और स्वतः मेरे भीतर से अपनत्व का आशीष निकला . भावनाओं को गंगा की तरह पाने के लिए पुकार का आह्वान संस्कारजनित होता है . नाम तो मिलने के क्रम में आते जायेंगे , पर ऐसे नहीं बताऊंगी - अच्छी , गहरी बातों को नज़र लगते देर नहीं लगती .

2007 से 2009 की यात्रा में मैंने इन ब्लोगरों को जाना , उनको पढ़ा -
अमिताभ मीत कबाड़खाना
महेन्द्र मिश्र समयचक्र जिन्होंने कहा है
31.7.12 को
अच्छा तो हम चलते हैं ,,,
अच्छा तो हम चलते हैं ...
फिर कब मिलोगे .... ?
अब कभी नहीं ...
आज से बंद ....

परमजीत सिहँ बाली दिशाएं
प्रीति महेता Antrang - The InnerSoul !
किशोर कुमार खोरेन्द्र barakha -gyanii
महक की महक जो कहती है -
समंदर किनारे बैठकर
सूरज की किरणो से
कुछ ख्वाब बुने थे परदेसी
आज शाम रंगीन आसमां के नीचे
जब रेत हाथों में ली
.लहेरें उन्हे आकर बहा ले गयी
अचरज में है मन तब से
क्या तुम तक
पहुँच पाएंगे वो…….." नहीं पहुँचती एक आभासी परिवार सा आभासी ब्लॉग की दुनिया कैसे बनती ! आश्चर्य होगा कि परिवार को कैसे आभासी कह सकते हैं ... सोच के देखिये . परिवार , समाज, ब्लॉग .... सब एक ही सिक्के के पहलू हैं - मन चंगा तो कठौती में गंगा - क्यूँ ?

जिन्होंने 2010 में कहा था -
अदालतों के दरवाजे पर हथौड़ा चलाते हुए
हड्डियों के बुखार से लोहा गलाते हुए
मौसम को अपने कांख में दबाये हुए
गले की फ़सान में अकुलाये हुए
आयेंगे और रह जायेंगे, छाएंगे
और वापस नहीं जायेंगे....

अनीता कुमार कुछ हम कहें
एहसास नाम लिए !! एहसासों का सागर !!
अमिय प्रसून मल्लिक निहारिका- मेरा असीम संभाव्य...
कंचन सिंह चौहान हृदय गवाक्ष
मासूम शायर यानि अनिल जी शायर परिवार - शायरों की जान॰॰॰

किसी को नहीं भूली ............. खाली क्षणों में जो साथ रहे उनको भी पढ़ा , जो कुछ समय तक आकर नहीं आए उन्हें भी कभी पढ़ती हूँ .... जो मुझे नहीं जानते मैं उनको भी ढूंढकर पढ़ती हूँ , क्योंकि अच्छे लेखन में संजीवनी शक्ति होती है !

आज के दौर में वाणी शर्मा , निर्मला कपिला ,संगीता स्वरुप , वंदना गुप्ता , शिखा वार्ष्णेय , रश्मि रविजा , साधना वैद , दीपिका रानी , अनुपमा त्रिपाठी , ऋता शेखर मधु , गुंजन अग्रवाल, अनुपमा पाठक , जेन्नी शबनम , दिव्या शुक्ला ,सदा , अंजू चौधरी, अंजू अनन्या, पल्लवी सक्सेना , डॉ गायत्री गुप्ता गुंजन , अनु, पूजा उपध्याय , प्रतिभा सक्सेना , प्रतिभा कटियार , गुंजन अग्रवाल, विभा रानी श्रीवास्तव , डॉ निधि टंडन , डॉ मोनिका शर्मा , हरकीरत हीर , अनीता निहलानी , सरस दरबारी, रेखा श्रीवास्तव , अमृता तन्मय, डॉ संध्या तिवारी, कविता रावत , संध्या शर्मा , प्रियंका राठौड़ , नीलिमा शर्मा , नीलू नीलम , गुंजन श्रीवास्तव , सुनीता शानू , साधना सिंह , सुशीला शिवरण , माहेश्वरी कनेरी , गीता पंडित , असीमा भट्ट , मीनाक्षी धन्वन्तरी, सुधा धींगडा , संगीता पूरी, मीनाक्षी पन्त , निवेदिता श्रीवास्तव , राजेश कुमारी , सुधा भार्गव , डॉ निशा महाराणा , अपर्णा मनोज , वंदना अवस्थी, इस्मत जैदी, बाबुशा कोहली , सुशीला पूरी, सुषमा वर्मा , दीप्ति शर्मा , सोनल रस्तोगी, शैफाली गुप्ता , कविता विकास, कनुप्रिया, रागिनी, तुलिका शर्मा, वंदना शुक्ला , रचना , सुमन, पल्लवी त्रिवेदी ,सौम्य , माधुरी शर्मा गुलेरी , रीना मौर्या ,रचना, रचना दीक्षित , मृदुला प्रधान , अर्चना चाव जी ........ अब अपील है कि जिनके नाम रह गए वे मुझसे कहें -
हिम्मत कैसे हुई मुझे भूलने की ???
अब पुरुष ब्लॉगर ----
सलिल वर्मा , महेंद्र श्रीवास्तव , राजेश उत्साही , शिवम् मिश्रा , अजय झा , मनोज कुमार, देव कुमार झा , पाबला जी , अरुण साथी , मधुरेश , प्रवीण पाण्डेय , सतीश सक्सेना ( जिनकी चेतावनी ने मुझे मायूस किया , फिर हम खूब हँसे ) , रवीन्द्र प्रभात , सुशील, संतोष त्रिवेदी, अतुल श्रीवास्तव , वाणभट , ओंकार , धीरेन्द्र जी, काजल कुमार, मार्कंडेय राय , एम् वर्मा , शाहिद मिर्ज़ा , शैलेश भारतवासी , अरुण चन्द्र राय , नरेन्द्र व्यास, पंकज त्रिवेदी, राजीव चतुर्वेदी, इमरान अंसारी, महफूज़, अलोक खरे , आशुतोष मिश्रा, मुकेश तिवारी, राजेंद्र तेला , कैलाश शर्मा , ज्योति खरे , अनिल कान्त, नित्यानंद गायन , संतोष कुमार, हेमंत कुमार दुबे, आनंद द्विवेदी , रूपचंद शास्त्री मयंक , हंसराज सुज्ञ , दिगम्बर नासवा , गिरिजेश राव , अनुराग आर्य, सागर शेख, अपूर्व ,राज भाटिया , अमित कुमार श्रीवास्तव , जीतेन्द्र जौहर , सतीश पंचम , कुश्वंश, अशोक सलूजा , अरुण कुमार निगम , श्याम कोरी उदय , नीलांश, रमाकांत सिंह, डॉ टी एस दराल , शिवनाथ कुमार , एस एम् हबीब , देवेन्द्र पाण्डेय , अमरेन्द्र शुक्ल, राजेंद्र अवस्थी , पी सी गोदियाल, विमलेन्दु जी , डॉ जाकिर अली रजनीश , अनवर जमाल , .................... कई नाम हैं ख़ास कलम के , पर अभी ब्रह्मांड की सैर में हैं .... खैर !

दो नाम विशेष रूप से लूँगी - क्योंकि वे देश से जुड़े हैं
गौतम राजरिशी

पाल ले इक रोग नादां...

कुश शर्मा का

"सच में!" ................. इनकी कलम ही नहीं , इनकी वर्दी भी मेरा आकर्षण है ...


और अभी जीना है
लिखना है पढ़ना है
नाम और जुड़ेंगे
शब्दों के रिश्ते और जुड़ेंगे ....

18 अगस्त, 2012

होनी होनी है सच सच है ...






सज्जनता , शालीनता , संस्कार
इसके साथ भी यदि होनी है
तो दुर्जन , संस्कारहीन .... सुनना पड़ता है
ईश्वर की मर्ज़ी !
और इस होनी का उत्सव ठीकरे भी मनाते हैं
खुले आसमां के नीचे मौत आ जाए
तो गिद्धों की भी पार्टी हो जाती है !....

होनी का विधान भी यूँ ही नहीं होता
सच को देखते हुए भी
यदि आँखों पर मोह की पट्टी है
जिह्वा पर शालीनता के ताले लगे हैं
तो ईश्वर अग्नि के मध्य कर देता है
और मौन भाव से कहता है -
या तो संस्कारगत फफोलों की पीड़ा सहो
या फिर थोड़ी सज्जनता , शालीनता .... कम करो !

अधिक नमक भी नुकसानदेह है
मिठास भी
तीता , खट्टा .... सबकुछ !
यदि सज्जनता ही सही होती
तो प्रभु का विराट स्वरुप नहीं होता
सत्य की राह पर जयद्रथ के लिए सूर्यग्रहण नहीं होता
नहीं आता शिखंडी
नहीं मारे जाते द्रोण शिष्यों के शब्द व्यूह में !

........ जाने अनजाने हम गलती करते हैं
पाप करते हैं
बिना सोचे समझे भी
जघन्य अपराध के भागी होते हैं
सारे संस्कार क्षण भर में आरोपी हो जाते हैं ...
विधि का विधान
या होनी का खेल
जो भी हो - होता है !

जब जब अकस्मात् राजा रंक होता है
तो राजा से सबकुछ पानेवाला भी
उसकी तौहीन करने से नहीं चुकता !
सच है ,
हार से संस्कार की परिभाषा नहीं बदलती
पर .... जो अपशब्द बोलते हैं
उनका चेहरा इन्सान सा नहीं होता
ना ही प्रभु उसके लिए आते हैं
वे तो बस मंद मंद मुस्कुराते हैं
जब एक अदना सा भिखारी कहता है
- घसीट कर निकालो राजा को महल से
और......
राजा के बल पर जो भिखारी पेट भरता है
वह डकार लेकर अपनी नियत बताता है ...
वह क्या समझेगा
कि होनी के खेल से महाराणा प्रताप का सामर्थ्य नहीं घटता
राजकोष खाली होने पर भी झाँसी की रानी
अपना वजूद नहीं खोती ...
क्योंकि
होनी होनी है
सच सच है ...

16 अगस्त, 2012

बापू प्रश्न कर रहे - क्या दे सकोगे कोई जवाब







कल १५ अगस्त था , यानि स्वतंत्रता का दिन . माँ बताती थीं कि जिस दिन आज़ादी मिली , पुरजोर आवाज़ में यह गीत बजा था -
वन्दे मातरम .....
सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम!
शु्भ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम
फुल्ल कुसुमितद्रुमदल शोभणीम.
सुहासिनीम सुमधुर भाषणीम,
सुखदाम, वरदाम मातरम
वन्देमातरम....... आज भी उस सुबह की कल्पना में रोमांच हो आता है . पर आज़ादी के बाद जो सच आज सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है , उसके आगे साल में एक बार
इन गीतों से झुंझलाहट होती है . हैप्पी इंडीपेंडेंस डे कहो या स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें .... कोई फर्क नहीं पड़ता . खुद के कर्त्तव्य से परे चर्चा होती है - गाँधी को क्या
करना था , क्या नहीं . फूलों की सेज छोड़नेवाले जवाहर की नियत ..... कभी इस चर्चा के मध्य याद नहीं आता कि जिस जवाहर लाल के कपड़े लन्दन से धुलकर आते थे , वे
बेबस जेल जा रहे थे , जब उनकी माँ पर लाठी चलाये जा रहे थे ! गाँधी जी ने सत्याग्रह किया , सिल्की परिधान में महल में नहीं रहे . उनके बच्चों को उनसे शिकायत रही ,
आजादी का स्वाद उनके बच्चों को ऊँचा स्थान देकर नहीं मिला ...
आज एक सवाल है .... देगा कोई जवाब अपने गुटों से बाहर आकर ???

बापू प्रश्न कर रहे -
........
कहाँ गयी वह आजादी
जिसके लिए हम भूखे रहे , वार सहे
सड़कों पर लहुलुहान गिरते रहे कई बार
जेल गए
कटघरे में अड़े रहे , डटे रहे .........
सब गडमड करके
अब ये गडमड करनेवाले
मेरे निजित्व को उछाल रहे !
क्या फर्क पड़ता है कि मैं प्रेमी था या ........
खुफिया लोगों
तुम सब तो दूध के धुले हो न ...
फिर करो विरोध गलत का
अपने ही देश में अपने ही लोगों की गुलामी से
मुक्त करो सबको ...
मुझे तो गोडसे ने गोली मार दी
राजघाट में मैं चिर निद्रा में हूँ
एक नहीं दो नहीं चौंसठ वर्ष हुए
और देश की बातें आज तलक
गाँधी , नेहरु , सुभाष ,
भगत , सुखदेव, राजगुरु , आज़ाद तक ही है
क्यूँ ?
तुम जो गोलियां चला रहे हो मुझे कोसते हुए
गांधीगिरी का नाम लेकर अहिंसा फैला रहे हो
वो किसके लिए ???
बसंती चोला किस प्राप्य के लिए ?
बम विस्फोट
आतंक
अपहरण ...... इसमें बापू को तुम पहचान भी नहीं सकते
तुम सबों की व्यर्थ आलोचना
जो भरमाने की कोशिशों में चलती है
उसके आगे कौन सत्याग्रह करेगा ?
मैं तो रहा नहीं
और अब वह युग आएगा भी नहीं
भारत हो या पकिस्तान
तुम जी किसके लिए रहे ?
तुम सब देश के अंश रहे ही नहीं
स्वार्थ तुम्हारा उद्देश्य है
और वही तुम्हारा लक्ष्य है
भले ही उस लक्ष्य के आगे
तुम्हारा अपना परिवार हो
तुम टुकड़े कर दोगे उनको
तुम तो गोडसे जैसी इमानदारी भी नहीं रखते
.................
आह !
तुम लोग इन्सान के रूप में गिद्ध हो
और शमशान हुए देश में
जिंदा लाशों को खा रहे हो !
और जो जिंदा होने की कोशिश में हैं
उनके आगे आतंक फैला रहे हो !!!
....
धिक्कार है मुझ पर
और उन शहीदों पर
जो तुम्हें आजादी देना चाहते थे
और परिवार से दूर हो गए
तुम सबने आज उस शहादत को बेच दिया
कोई मुग़ल नहीं , अंग्रेज नहीं , ....
हिन्दुस्तानी शक्ल लिए तुम असुर हो
और आपस में ही संहार कर रहे हो
देश, परिवार, समाज .......
सबको ग्रास बना लिया अपना !!!

क्या दे सकोगे कोई जवाब
या लेकर घूम रहे हो कोई सौगात
ताकि मेरे नाम की धज्जियां उड़ जाएँ
और तुम्हारी आत्मा पर कोई बोझ न रहे ?

13 अगस्त, 2012

कृष्ण भी कृष्ण नहीं कहलाते !





कृष्ण जन्म यानि एक विराट स्वरुप ज्ञान का जन्म
नाश तो बिना देवकी के गर्भ से जन्म लिए वे कर सकते थे
राधा में प्रेम का संचार कर
पति में समाहित हो सकते थे
देवकी के बदले यशोदा के गर्भ से ही जन्म ले सकते थे
पूतना , कंस .... कोई भी संहार अपने अदृश्य स्वरुप से कर सकते थे
पर कृष्ण ने जन्म लिया
बेबसी , तूफ़ान , घनघोर अँधेरा ,
१४ वर्ष की आयु तक में -
गोवर्धन उठाना , कालिया नाग को वश में करना
............ ,
दुर्योधन की ध्रिष्ट्ता पर विराट रूप दिखाना
यह सब कृष्ण की सीख थी
गीता का उपदेश कि
जब जब धर्म का नाश ....
मैं अवतार लेता हूँ
एक आह्वान था शरीर में अन्तर्निहित आत्मा का !
एक तिनका जब डूबते का सहारा हो सकता है
तो हर विप्पति में
हम अपने अन्दर के ईश्वर के संग
जन्म ले सकते हैं
विराटता हमारे ही अन्दर है
संकल्प अवतार है
भय से परे हो जाओ तो सब संभव है
मोह से परे हो जाओ
तो हर न्याय संभव है ...
देवकी से यशोदा की गोद
फिर देवकी तक यशोदा से विछोह ...
यदि मोह से निजात न ले पाते
मन के कमज़ोर चक्रव्यूह से न निकल पाते
तो कृष्ण भी कृष्ण नहीं कहलाते !

09 अगस्त, 2012

!!! ये तो मैं हूँ !!!





आज मैं उस मकान के आगे हूँ
जहाँ जाने की मनाही थी
सबने कहा था -
मत जाना उधर
कमरे के आस पास
कभी तुतलाने की आवाज़ आती है
कभी कोई पुकार
कभी पायल की छम छम
कभी गीत
कभी सिसकियाँ
कभी कराहट
तो कभी बेचैन आहटें .....
..............
मनाही हो तो मन
उत्सुकता की हदें पार करने लगता है
रातों की नींद अटकलों में गुजर जाती है
किंचित इधर उधर देखकर
उधर ही देखता है
जहाँ जाने की मनाही होती है !
...........
आज मन की ऊँगली पकड़
और मन ने मेरी ऊँगली पकड़
एकांत में उधर चल पड़े
जहाँ डर की बंदिशें थीं हिदायतों में ...
.........
मकान के आगे मैं - मेरा मन
और अवाक दृष्टि हमारी
यह तो वही घर है
जिसे हम अपनी पर्णकुटी मानते थे
जहाँ परियां सपनों के बीज बोती थीं
और राजकुमार घोड़े पर चढ़कर आता था
....
धीरे से खोला मैंने फूलों भरा गेट
एक आवाज़ आई -
'बोल बोल बंसरी भिक्षा मिलेगी
कैसे बोलूं रे जोगी मेरी अम्मा सुनेगी '
!!! ये तो मैं हूँ !!!
आँखों में हसरतें उमड़ पड़ी खुद को देखने की
दौड़ पड़ी .... सारे कमरे स्वतः खुल गए
मेरी रूह को मेरा इंतज़ार था
इतना सशक्त इंतज़ार !
कभी हंसकर , कभी रोकर
कभी गा कर ......
बचपन से युवा होते हर कदम और हथेलियों के निशां
कुछ दीवारों पर
कुछ फर्श पर , कुछ खिड़कियों पर थे जादुई बटन की तरह
एक बटन दबाया तो आवाज़ आई
- एक चिड़िया आई दाना लेके फुर्र्र्रर्र्र...
दूसरे बटन पर ....
मीत मेरे क्या सुना , जा रहे हो तुम यहाँ से
और लौटोगे न फिर तुम .....'
यादों के हर कमरे खुशनुमा हो उठे थे
और मन भी !
..... कभी कभी .... या कई बार
हम यूँ हीं डर जाते हैं
और यादों के निशां पुकारते पुकारते थक जाते हैं
अनजानी आवाजें हमारी ही होती हैं
खंडहर होते मकान पुनर्जीवन की चाह में
सिसकने लगते हैं
...... भूत तो भूत ही होते हैं
यदि हम उनसे दरकिनार हो जाएँ
मकड़ी के जाले लग जाएँ तो ....
किस्से कहानियां बनते देर नहीं लगती
पास जाओ तो समझ आता है
कि - ये तो मैं हूँ !!!

08 अगस्त, 2012

मानो तो




मैं हूँ ....
पर मैं क्या हूँ
यह मैं होकर भी निर्धारित नहीं कर सकती
और निःसंदेह मिलनेवालों में सबके साथ
मेरी एक ही छवि नहीं उभरती ....
मेरा व्यवहार सामान्य हो सकता है
पर सामनेवाले का नज़रिया अलग अलग हो सकता है
तो सफाई किस बात की ?
और क्यूँ ?
सफाई देना और लेना फ़िज़ूल है
क्योंकि रेखांकित वही होता है
जो सोच समझ लिया गया है !!!
विवेचना आखिर किस बात की ?
हम कहते हैं - विश्वास बड़ी चीज है
तो बगैर विश्वास सफाई क्या
और विश्वास नहीं तो कहना क्या !
एक छोटी सी बात है -
हम कहते हैं ईश्वर हमारे भीतर है
यानि शिव हमारे अन्दर है
और जब शिव हमारे अन्दर है
तो पार्वती , गंगा , रुद्राक्ष , चन्द्रमा
नागदेव , मणि , विष , त्रिशूल , .....
क्रमशः वह सब हमारे अन्दर है
जो शिव है !
तर्क से स्पष्टीकरण मिल जाता है क्या ?
तो तर्क भी समक्ष है
अब क्या यह सच निर्धारित हो गया सबके आगे
या संशय जो अपने स्वभाव का अंश है
वह बरकरार है !!
सफाई देने ना देने का कोई अर्थ नहीं
कहते हैं न
कि मानो तो गंगा माँ है
न मानो तो बहता पानी ........

06 अगस्त, 2012

टूटे टूटे से ख्याल ...





लिखना -
मनःस्थिति से निजात पाने की कोशिश है
और मनःस्थिति ...
सिवाए हतप्रभ शब्दों के
उसके पास कुछ नहीं !
मनःस्थिति की दोषी मैं खुद हूँ
क्योंकि अतिशय विनम्रता
सहनशीलता
ख़ामोशी
..... इनका हश्र देखकर भी
मैं इनके साथ अतिशयता में जीती रही ...
तो शब्दों के जो हथौड़े दिमाग की नसों पर पड़े हैं
उनको मैंने ही आमंत्रित किया है !
गाली , अपशब्द , तेज स्वर में चीखनेवाले
जो निरीहता अपनाते हैं
उनको देखकर मैं सीख भी तो नहीं सकती !
जब जब तूफ़ान आया
सब अपनी शिकायत
अपने प्रश्नों की गठरी
और दुःख लेकर बैठ गए
मेरी ख़ामोशी , मेरी बेचैनी
उनके पल्ले ही नहीं पड़ी
तो क्या कहूँ !
जिसको मैंने करीब बिठाकर सब कहा
पर एक बात रख ली
तो ....
उसके पीछे क्या था
इसे समझना मुश्किल कैसे हो सकता है
यदि सच में संबंधों में गहराई हो तो !
शिकायत खुद से है
किसी और से नहीं
क्योंकि समझदारी , गहराई , विश्वास
ख्याल के अतिरेक में
मैं निश्चिन्त रही ...
हर मिनट पर जो ब्लास्ट हुए हैं
हो रहे हैं
उससे बेखबर तो नहीं था कोई
जो ना समझे
हाँ - उदासीनता कह सकते हैं !
फिर भी ,
जंजीरों में मैंने खुद को बाँध दिया है
और घुटने की सज़ा दी है
क्योंकि .....
अति विनम्रता , सहनशीलता , ख्याल से
मैं मुक्त होना चाहती हूँ
हो नहीं रही !
सोच तो यह मेरी है न
कि दोस्त को डायरी होना चाहिए
तो अक्सर बन गई हूँ डायरी
पर अपनी तलाश जारी है ...

04 अगस्त, 2012

इतना आसान नहीं !!!





कभी आप कभी हम
सब अपने अपने अनुभवों की खाद से
अपने पौधों को सुन्दर बनाने की धुन में होते हैं
इस बात से बेखबर
कि प्राकृतिक और कृत्रिम हवाओं का भी
अपना एक असर होता है
और पौधों का एक अपना अनुभव
जहाँ हम कहते रहते हैं - कि
तुम्हारे भले के लिए यह खाद दे रहे
.....
जबकि पौधों के संग प्रकृति और कृत्रिम की
अपनी अलग सांठ गाँठ होती है
जिसे न हम देख पाते हैं
न समझ पाते हैं !
...
प्रकृति की चीख , कृत्रिम उजबुजाहट
इसके मध्य -
पौधों के रंग ही नहीं
ढंग भी बदल गए हैं ...
उनका अनुभव उनसे कुछ और कहता है
जिसे हमें समझना होगा
और समझकर पानी और खाद देना होगा !
बेज़रूरत , बेसमय हमारा ख्याल
उनको मुरझा ही देता है
सम्मान के लिए
किये के प्राप्य के लिए
उनकी असामयिक माँग
और सामयिक माँग -
दोनों के बीच संतुलन बनाना होगा ...
और निःसंदेह
यह इतना आसान नहीं !!!

03 अगस्त, 2012

अब पूरे रणक्षेत्र में मैं और मेरा सारथी होगा !!!





मुझे नहीं होना सत्यवादी
सत्य मेरा मन जानता है
और यही काफी है !
अब जब मैं अपने कक्ष में रहूंगी
तब सच कहूँगी
पर अपने घर की ठोस दीवारों पर
किसी गिरगिट को ठोकर नहीं लगाने दूंगी !
अच्छाई का प्रमाण पत्र मिले न मिले
क्या फर्क पड़ता है
दुनिया उसी का साथ देती है
जो झूठ बोलता है !
सच है -
मेरे घर की दीवारों ने किसी को छत दिया
पर यदि देकर वह सिकुड़ गया
तो कब तक मैं उसके रंग खुरचती रहूँ !
और वह ....
घबराकर मेरे आंचल को ना पकड़े !
ना ....
किसी को पत्थर बरसाने हैं तो बरसाओ
मैं दीवार के आगे खड़ी मिलूंगी
साम दाम दंड भेद तुमने आजमा लिए
मैंने कुछ नहीं कहा
अब देखो इस सत्य का विराट स्वरुप
छल की हर नीति से मैं अपने दीवारों की रक्षा करुँगी ...
मैंने विनम्रता से कहा
अभिमन्यु कुरुक्षेत्र में नहीं उतरेगा
तो तुमने अभिमन्यु के क्षण क्षण को
चक्रव्यूह में बाँध दिया
अब सुनो -
मेरा एक भी अभिमन्यु
चक्रव्यूह में नहीं जायेगा
क्योंकि मेरे भीतर का कृष्ण जाग गया है
और अब पूरे रणक्षेत्र में
मैं और मेरा सारथी होगा !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...