18 मई, 2011

ईश्वर कटघरे में



व्यक्तिविशेष को ज़िम्मेदार ठहराओ
या भाग्य को
पर जो ज़िन्दगी के मायने ढूंढते हैं ,
उनकी आलोचना से तुम्हें क्या मिलेगा
सिक्के के किस पहलू पर अपना नज़रिया
तुम पुख्ता समझोगे ?
बाह्य और आतंरिक दो किनारे हैं
एक किनारे से दूसरे किनारे को देखना
परखना
आसान नहीं होता
और जब आसान होता है
तो कोई तर्क नहीं होता ....
क्यूँ व्यर्थ अपनी ज़िन्दगी से निकल
दूसरों का जोड़ घटाव करते हो
वक़्त जाया करते हो
जब तुम्हारा जोड़ घटाव कोई करता है
तब तो तुम अपनी सोच
अपनी विवशता
अपने अभावों के आंसू बहाने लगते हो
चीखने लगते हो
फिर भी नहीं समझते
कि जिसने उठापटक नहीं की
उसके अन्दर भी कुछ टूट रहा होगा
अगर तुम दोस्त नहीं बन सकते
तो इतनी भयानक दुश्मनी भी मत निभाओ !
अदालतों में भी सच की सुनवाई देर से होती है
यूँ कहें अधिकतर नहीं होती है
कानून की देवी भी अँधेरे में तीर मारती है
पैसे से गवाह ही नहीं
मुजरिम भी ढूंढ लिए जाते हैं
खूनी लोगों के मध्य होता है
फांसी की सज़ा किसी अनजाने को सुनाई जाती है !
हम सारे समझदार लोग इस बात से भिज्ञ हैं
फिर भी ....
जब दूसरे के घर की बेटी भागती है
या यातनाओं का दौर उसके साथ चलता है
.... जो भी होता है
तो अपनी अपनी धारणाओं की पेटी
सब खोल लेते हैं
ऐसे ऐसे शब्द बोलते हैं
कि उबकाई आने लगे
पर जैसे ही धमाका अपने घर होता है
हमारे सारे वाक्य बदल जाते हैं
और जब कुछ नहीं हाथ मिलता
तब ईश्वर कटघरे में होता है !

34 टिप्‍पणियां:

  1. आज तो सारे धागे खोल दिए आपने .काश इस तरह वक्त न जाया करते लोग तो आज भारत शीर्ष पर होता.

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  2. aapki sabhi rachnaayrn jindgi ko choo kar nikalti hai.jindagi ki sachchaai hain.bahut uttam likhti hain aap.really kisi ko ungali dikhaate vaqt sochna chahiye ki baaki ki chaar ungliyan aapki khud ki aur mud rahi hain.

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  3. पैसे से गवाह ही नहीं
    मुजरिम भी ढूंढ लिए जाते हैं
    खूनी लोगों के मध्य होता है
    फांसी की सज़ा किसी अनजाने को सुनाई जाती है !
    bahut achchi tarah ek marmik sachchayee ko shabd de din aap.

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  4. सुख में या दुःख में ईस्वर सदाव कटघरे में रहता है , यही है वर्तमान की परिभाषा , स्वयं को भूलो उसे देखो और डंका बजाओ , जब अपनी लका जले तो हनुमान को कोंसो . मानव विकारों पर जोरदार प्रहार , बधाई

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  5. nirasha ke baad aasha ki kiran jarur chamkegi.... vishvaas digne naa do bas

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  6. क्यूँ व्यर्थ अपनी ज़िन्दगी से निकल
    दूसरों का जोड़ घटाव करते हो
    वक़्त जाया करते हो
    जब तुम्हारा जोड़ घटाव कोई करता है
    तब तो तुम अपनी सोच
    अपनी विवशता
    अपने अभावों के आंसू बहाने लगते हो

    सही मर्म को छुआ है ...


    जब दूसरे के घर की बेटी भागती है
    या यातनाओं का दौर उसके साथ चलता है
    .... जो भी होता है
    तो अपनी अपनी धारणाओं की पेटी
    सब खोल लेते हैं

    जब कोई घटना अपने साथ होती है तब ही दर्द महसूस होता है ...बड़ी धारदार रचना ...

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  7. यही असलियत है………

    और जब कुछ नहीं हाथ मिलता
    तब ईश्वर कटघरे में होता है !

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  8. दूसरों का मजाक बनाने वाले खुद पर आये तो ईश्वर को दोष देने लगते हैं ...
    सत्य वचन !

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  9. जब दूसरों पर बीतती है तो हम न्यायाधीश बन जाते हैं और संवेदनहीन हो जाते हैं, हैवानियत की हद तक पहुँच जाते हैं निंदा करने और सजा सुनने में और अक्सर बिना परिस्थिति या वस्तुस्थिति जाने । जब खुद पर बीतती है तब तो बात ही अलग होती है तब दोषी होता है कोई और ! यह एक गंभीर विकार और विकृति है ।
    बहुत संवेदनशील रचना ...

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  10. शब्द शब्द मानो बोल रहा हो ......भावुक रचना

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  11. रश्मि प्रभा जी...........बहुत अच्छा लिखा है,आपने.
    बाह्य और आतंरिक दो किनारे हैं
    एक किनारे से दूसरे किनारे को देखना
    परखना
    आसान नहीं होता ................कितनी सच्ची बात !!!

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  12. पर जैसे ही धमाका अपने घर होता है
    हमारे सारे वाक्य बदल जाते हैं
    और जब कुछ नहीं हाथ मिलता
    तब ईश्वर कटघरे में होता है !

    अक्षरश: सत्‍य ही कहा है आपने ... जब खुद पर बीतती है तब हकीकत पता चलती है ...गहन भावों के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति ।

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  13. "जब दूसरे के घर की बेटी भागती है
    या यातनाओं का दौर उसके साथ चलता है
    .... जो भी होता है
    तो अपनी अपनी धारणाओं की पेटी
    सब खोल लेते हैं"
    दीदी,सही नब्ज पकड़ी है वर्तमान समाज की.जब खुद पर बीतती है तभी आँखें खुलती है.मगर इस तरह संभलने का फायदा क्या है? "जो हम पर है गुजारी हमी जानते है " से निकलकर "जो तुमपर है गुजारी उन्हें भी जानते हैं" तक का सफ़र जरूरी है.सच को सामने परोसती रचना.

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  14. धारदार सशक्‍त अभिव्‍यक्ति ।

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  15. शायद इसीलिये जब तक खुद पर ना गुजरे दूसरे का दर्द समझ नही आता।

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  16. यथार्थ चित्रित कर दिया आपने

    बहुत स्पष्ट अभिव्यक्ति ।

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  17. क्यूँ व्यर्थ अपनी ज़िन्दगी से निकल
    दूसरों का जोड़ घटाव करते हो
    वक़्त जाया करते हो
    जब तुम्हारा जोड़ घटाव कोई करता है
    तब तो तुम अपनी सोच
    अपनी विवशता
    अपने अभावों के आंसू बहाने लगते हो
    बिलकुल सत्य कहा है आपने ... जब खुद पर बीतती है तभी हकीकत का पता चलता है ... सशक्‍त अभिव्‍यक्ति.......

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  18. पैसे से गवाह ही नहीं
    मुजरिम भी ढूंढ लिए जाते हैं
    खूनी लोगों के मध्य होता है
    फांसी की सज़ा किसी अनजाने को सुनाई जाती है !

    सच यही है, न्याय की देवी तो पट्टी बांध कर निर्णय देती है उसे क्या पता कौन अपराधी और कौन रंगा हुआ सियार . यहाँ सब बिकाऊ है.

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  19. rachna bahut acchi hai.....swaadhaay.....par bal deti hui aur ek sach jise hame badalana hoga........ishwar nahi khud ko apne antarman ke katghare me rakhkar ....sochna hoga......aur paalan karna hoga......

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  20. फिर भी नहीं समझते
    कि जिसने उठापटक नहीं की
    उसके अन्दर भी कुछ टूट रहा होगा
    अगर तुम दोस्त नहीं बन सकते
    तो इतनी भयानक दुश्मनी भी मत निभाओ !

    काश इतनी सी समझ आ जाए....लोगो में तो जिंदगी कितनी खुशहाल हो जाए.
    बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति

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  21. सच्चाई का धार हमेशा तेज होती है . सुँदर अभिव्यक्ति .

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  22. आदमी अपनी गलतियाँ जितनी आसानी से भुला देता है...उतनी ही दूसरे की उभरने की कोशिश करता है...हाई-लाइटर लगा के...जब जीतता है तो उसकी मेहनत और लगन...और जब हारता है तो ईश्वर...कटघरे में होता है...

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  23. हाँ यह सच है .....एक अच्छी रचना के लिए बधाई आपको !

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  24. ईश्वर को कठघरे में खड़ा कर हम सच से भाग लेते हैं।

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  25. कटघरे में खड़ा हो फैसला भी वही सुनाता है ..बहुत ही सुन्दर कविता

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  26. सारगर्भित तथा सार्थक रचना धन्यवाद

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  27. अगर तुम दोस्त नहीं बन सकते
    तो इतनी भयानक दुश्मनी भी मत निभाओ !...

    sateek sandesh hum sab ke liye, dhanyawaad! aapki baat jo taale wo buddhu!

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  28. पर जैसे ही धमाका अपने घर होता है
    हमारे सारे वाक्य बदल जाते हैं
    और जब कुछ नहीं हाथ मिलता
    तब ईश्वर कटघरे में होता है !
    bahut bada sach hai ,aur ghatta hi rahta hai kyonki hum apne ko baad me doosre ko pahle dekhte hai .

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  29. behad taarkik aur sashakt abhivyakti. sochne keliye prerit karti rachna, badhai.

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  30. क्यूँ व्यर्थ अपनी ज़िन्दगी से निकल
    दूसरों का जोड़ घटाव करते हो
    वक़्त जाया करते हो
    जब तुम्हारा जोड़ घटाव कोई करता है
    तब तो तुम अपनी सोच
    अपनी विवशता
    अपने अभावों के आंसू बहाने लगते हो
    चीखने लगते हो
    फिर भी नहीं समझते
    कि जिसने उठापटक नहीं की
    उसके अन्दर भी कुछ टूट रहा होगा
    ..
    दीदी इधर लगभग १५ दिनों के बाद पढ़ रहा हूँ आपको....कुछ परिवर्तन सा लग रहा है मुझे ...सुखद भी है और मुखर भी ..लगता है दीदी कुछ चेतावनी सी देती दिख रही हैं दुनिया को !

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...