27 अगस्त, 2012

प्रेम .... मेरे लिए



प्रेम .... मेरे लिए
एक आध्यात्मिक कल्पना
जो कल भी था .... आज भी है
एक आकृति लिए निश्छल प्रेम !
- बरसों से
अल्हड़ उम्र से
इस आकृति की ऊँगली थामकर ही चलती आई हूँ ...
आकृति उभरकर स्पष्ट हो जाए
तो नाटकीयता , उदासीनता , शिकायतें
हो ही जाती हैं
पर एक छाया - अपने होने का एहसास देकर
हर उतार-चढ़ाव के निराकरण देती है ...
जब कोई हाथ ना रहे पास में
आंसू पोछने के लिए
तो वह प्रेम
मन से कहता है ....
चल से अचल
सार से निस्सार
सूक्ष्म से विस्तार
माया से निर्वाण
सुख से दुःख
प्राप्य से अप्राप्य
होनी से अनहोनी
मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .
वह दिखे .... कोई ज़रूरी नहीं
क्योंकि प्रेम एक अनुभूति है
दिखावा नहीं !
अमर्यादित दिखावे सच से कोसों दूर होते हैं
और एहसास मौन है
वह आपस को जीता है
अन्य को क्या जताना !
प्रेम का यह अलौकिक सत्य
अक्सर काल्पनिक होता है
पर हकीकत की संजीवनी कल्पना में ही निहित होती है !
प्रेम हो , ख्वाब न हो
बादलों तक पहुँच न हो
इन्द्रधनुष रथ न बने
क्षितिज पर गोधूलि अल्पना न सजाये
तारे दीपोत्सव न मनाएं
ध्रुव तारा चेहरे पर ना उतर आए
ख़ामोशी खिलखिलाहट
खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने
तो प्रेम हो ही नहीं सकता
न समझा जा सकता है
न जीया जा सकता है
और मैंने इस प्रेम को भरपूर जीया है
आकृतिहीन आकृति के संग
और वही मेरी सुरक्षा है
मेरा मान है
मेरी मर्यादित सीमायें हैं .........

29 टिप्‍पणियां:

  1. इस प्रेम की डगर में ...एक राह मेरी भी :)))

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  2. प्रेम एक अनुभूति है....बहुत सही कहा रश्मि जी...

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  3. ख़ामोशी खिलखिलाहट
    खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने
    तो प्रेम हो ही नहीं सकता
    सच तो यही है ... भावमय करते शब्‍दों का संगम ... आभार

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  4. बहुत सुंदर रचना

    चल से अचल
    सार से निस्सार
    सूक्ष्म से विस्तार
    माया से निर्वाण
    सुख से दुःख
    प्राप्य से अप्राप्य
    होनी से अनहोनी
    मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .

    क्या कहने

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  5. कभी - कभी कमजोर इंसान का धैर्य साथ छोड़ जाता है ,तो प्रेम पर शक हो सकता है ?

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  6. यही तो हम भी कहते हैं कि प्रेम आध्यात्मिक हो तो सुख ही सुख देता है !

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  7. रश्मि जी, इस प्रेम को काल्पनिक कहने का कोई कारण नजर नहीं आता...प्रेम है तो कल्पना है प्रेम है तो आनंद है..जब आप कल्पना कहती हैं तब कम से कम कल्पना की सत्यता को तो मानती हैं, आनंद जो अपने महसूस किया है वह तो वास्तविक है, प्रेम से बढ़कर कुछ भी वास्तविक नहीं क्योंकि यही तो परमात्मा है..

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  8. प्रेम हो , ख्वाब न हो
    बादलों तक पहुँच न हो
    इन्द्रधनुष रथ न बने
    क्षितिज पर गोधूलि अल्पना न सजाये
    तारे दीपोत्सव न मनाएं
    ध्रुव तारा चेहरे पर ना उतर आए
    ख़ामोशी खिलखिलाहट
    खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने...

    कितना सुन्दर समझा है आपने प्रेम को ......

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  9. prem ek anubhuti hai...
    is anubhuti ki nai paribhasha..bahut achchha laga.
    Meri nai post me bhi padhare.

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  10. जब कोई हाथ ना रहे पास में
    आंसू पोछने के लिए
    तो वह प्रेम
    मन से कहता है ....
    चल से अचल
    सार से निस्सार
    सूक्ष्म से विस्तार
    माया से निर्वाण
    सुख से दुःख
    प्राप्य से अप्राप्य
    होनी से अनहोनी
    मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .

    .....लाज़वाब! गहन और सार्थक चिंतन...

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  11. प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति...

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  12. प्रेम तो ईश्वर की तरह अकल्पनीय एवं अनिर्वचनीय है... केवल अनुभूति में...

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  13. तो वह प्रेम
    मन से कहता है ....
    चल से अचल
    सार से निस्सार
    सूक्ष्म से विस्तार
    माया से निर्वाण
    सुख से दुःख
    प्राप्य से अप्राप्य
    होनी से अनहोनी
    मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .

    प्रेम का इतना सुंदर चित्रण ..... मैं तो कल्पना में ही खो सी गयी .....

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  14. ख़ामोशी खिलखिलाहट
    खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने
    तो प्रेम हो ही नहीं सकता

    लाज़वाब! चिंतन.

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  15. है अनन्त का राग प्रेम,
    मर्यादा से पर बँधे पेंग।

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  16. प्रेम एक अनुभूति है वह दिखे .... कोई ज़रूरी नहीं
    प्रेम को जीना ही इसे समझना है.... जिया है इसीलिए समझा है...

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  17. सच्चा प्रेम यही तो है... और यही है जीवन की अनुभूति...
    सादर

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  18. मैंने इस प्रेम को भरपूर जीया है
    आकृतिहीन आकृति के संग
    और वही मेरी सुरक्षा है
    मेरा मान है
    मेरी मर्यादित सीमायें हैं .........सहज शब्दों में सरल बात

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  19. और मैंने इस प्रेम को भरपूर जीया है
    आकृतिहीन आकृति के संग

    बहुत कठिन है डगर पनघट की

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  20. वाह! प्रेमानंद की अनुभूति तो पढ़कर ही हो गई।

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  21. ध्रुव तारा चेहरे पर ना उतर आए
    ख़ामोशी खिलखिलाहट
    खिलखिलाहट ख़ामोशी न बने
    तो प्रेम हो ही नहीं सकता......prem ki itni achchi parbhasha,maa gaye.

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  22. तो वह प्रेम
    मन से कहता है ....
    चल से अचल
    सार से निस्सार
    सूक्ष्म से विस्तार
    माया से निर्वाण
    सुख से दुःख
    प्राप्य से अप्राप्य
    होनी से अनहोनी
    मिलन से विरह .......... हर जगह मैं हूँ .
    वह दिखे .... कोई ज़रूरी नहीं
    क्योंकि प्रेम एक अनुभूति है
    दिखावा नहीं !
    बहुत-बहुत सुन्दर बात कही ...प्रेम के लिए .

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  23. पर एक छाया - अपने होने का एहसास देकर
    हर उतार-चढ़ाव के निराकरण देती है ...
    जब कोई हाथ ना रहे पास में
    आंसू पोछने के लिए
    तो वह प्रेम
    मन से कहता है ....हर जगह मैं हूँ याय तो एकमात्र सच्चा रूप है प्रेम का जिसने समझ लिया उसे मानो खुदा मिल गया जो न समझ सका उसका इस प्रेम रूप कि तलाश में भटकना निश्चित है।

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  24. बहुत सुन्दर.......
    मैंने जिया है प्रेम को.....
    घूँट भर हर पिया है.....
    तृप्त हूँ...तभी इतनी सशक्त हूँ...


    सादर
    अनु

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  25. वह दिखे .... कोई ज़रूरी नहीं
    क्योंकि प्रेम एक अनुभूति है
    दिखावा नहीं !
    sashakt saarthak abhivyakti di ..

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