03 सितंबर, 2015

उपसंहार के साथ







मन की लहरों को नहीं लिख पाई
जो लिख पाई
वो किनारे के पानी थे
या भीगी रेत के एहसास  … !
वो जो मन गर्जना करता है
उद्वेग के साथ किनारे पर आकर
कुछ कहना चाहता है
वह मध्य में ही विलीन हो जाता है
....
यूँ कई बार रात के तीसरे पहर में
कितनी बार उठकर बैठी हूँ
लिख लूँ हर ऊँची नीची लहरों की
वेदना-संवेदना
पर कहीं तो कोई व्यवधान है !
शायद सत्य की सुनामी विनाश बन जाए
इसलिए रख देता है खुदा कलम हाथों से लेकर
कहता है माथे पर हाथ रखकर
- "मैं सुनता हूँ, पढता हूँ
समझता हूँ
लहरों के उठने गिरने के मायने
न लिखे जाएँ - तो बेहतर है "
सोचने लगती हूँ,
एक ही लहर के अंदर
जो भरपूर एहसास होता है
उसे शब्द शब्द अलग करना आसान नहीं
मायने भी नहीं !
यूँ भी
जो तलवार उठ जाते हैं
वे सिर्फ समापन लिखते हैं
तो आखिर समापन क्यूँ ?
छोड़ देती हूँ रेतकणों पर
लहरों से भीगे कुछ निशान
जिसके भीतर उन लहरों सी नमी होगी
वे रेतकणों को पढ़ ही लेंगे !!!
फिर कुछ देर मुट्ठी में भरकर
हवाओं के हवाले कर देंगे
अपनी अभिव्यक्तियों को उपसंहार के साथ  … 

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (04.09.2015) को "अनेकता में एकता"(चर्चा अंक-2087) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  2. जो कहा जा सकता है वह किनारे का पानी होता है और जो नहीं कहा जा सकता वह सागर का दिल होता है..तभी तो कहते हैं सत्य को कहा नहीं जा सकता..कहते ही वह झूठ हो जाता है..प्रभावशाली रचना..आभार !

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  3. मन ठहरता भी तो है
    शाँत तालाब की तरह
    खाली भी हो जाता है
    भरता भी है लबालब
    बहना शुरु होती हैं लहरें
    मन नदी भी हो जाता है ।

    बहुत सुंदर ।

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  4. समुद्र की हर लहर को गिनना संभव नहीं
    मन की हर भावना को लिखना संभव नहीं !

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  5. प्रभावशाली प्रस्तुति. गहरे भाव निहित हैं इस कविता में.

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  6. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  7. गहरे क्बिन्तन से उपजी प्रभावशाली रचना ...

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  8. रेतकणों के ऊपर खेलती हुई हवाओं की लिपि को भी आत्मसात किया .

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  9. आपको सपरिवार गणेशोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएँ।

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