27 सितंबर, 2016

अपनी धुन


मैं भोर की पहली किरण बनने की धुन लिए
घोसले में सुगबुगाती हूँ
देखती हूँ चहचहाते हुए विस्तृत आकाश
पंख फड़फड़ाते हुए
दाने की तलाश में
डाली डाली होकर
सतर्क दृष्टि लिए
उतरती हूँ धरती पर
निरंतर दाने इकट्ठे करती हूँ
बच्चों की भूख बहुत मायने रखती है
....
 बच्चों के पंख सशक्त हैं,
फिर भी शिकारी शिकारी है
माँ माँ है   ...
क्षमता जब तक है
विस्तार नापना है
रसोई की आग बनना है
पानी की किल्लत हो
तो आँसुओं के अनुवाद से
प्यास बुझाना है !

सूरज जब सिर पे होता है
तात्पर्य यह
कि जब उसकी प्रचंडता बीचोबीच होती है
मैं बरगद
या फिर
बादल का एक टुकड़ा बनकर
दिनचर्या में ढल जाती हूँ
थकान के गह्वर से
ऊर्जा लेकर
ढलते सूरज से होड़ लगाती हूँ
कहती हूँ,
शाम रात के मिलन में
मैं अब भी पहली किरण के राग परिधान में हूँ
तुम पूरब से पश्चिम तक प्रखर हो
मैं उत्तर और दक्षिण से भी निःसृत हूँ !

भूख सिर्फ पेट की नहीं होती
प्यास सिर्फ गले की नहीं होती
जिह्वा सूखती है
जब -
अनगिनत अनर्गल प्रश्नों का सैलाब
नागपाश की तरह जकड़ लेता है
घोंसले में सुगबुगाकर भी
चहचहाहट पर नियंत्रण रखना होता है
गीता के पन्नों को छूते हुए
झूठ बोलना होता है
ब्रह्ममुहूर्त की रक्षा में
सूर्य को निश्चित समय पर अर्घ्य देने के लिए
सपनों के मानसरोवर तक उड़ना होता है  ...

मैं कभी वाष्पित होती हूँ
कभी बाँध तोड़ उमड़ती हूँ
पर इन सबसे परे
एकमुखी रुद्राक्ष मेरे मन में उगता है
सम्पूर्ण वृक्ष
मेरे मान्त्रिकआह्वान से सम्पूर्णता को पाता है
मेरे विश्वास का दसवाँ रूप
परिस्थितिजन्य लंका को अग्नि के हवाले करता है
भक्त और पूज्य दोनों होता है  ...

मैं चाँद की माँ बन
उसके अनुसंधानिक सत्य पर
मरहम लगाती हूँ
ताकि वह अपने दोनों पक्ष
 - शुक्ल एवम कृष्ण की महत्ता याद रखे
कौन उस तक आया
किसने पहला कदम रखा
कैसे उसका सहज रिश्ता खत्म हुआ
इस उधेड़बुन के दर्द में वो ना रहे
... बच्चे मासूम होते हैं
और वे आज भी उसे देख किलकते हैं
मामा' सुनकर ही देखते हैं
आज भी ईद और पूर्णिमा का चाँद
लोगों की आँखों में थिरकता है
उसका गुम होना
कृष्ण को ले आता है  ...

फिर मैं बाँसुरी बन
कृष्ण की पकड़ में होती हूँ
राधा को छेड़ती हूँ
अपनी धुन पर इतराती हूँ  ...

9 टिप्‍पणियां:

  1. खुद को कितनी ख़ूबसूरत कल्पनाओं में समेटा है और कितने सारे बिम्बों को खूबसूरती से पिरोया है आपने. एक अजीब सा नैसर्गिक आनन्द अनुभव होता है!

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  2. माँ के कितने रूप ढाल दिए हैं इस रचना में । बच्चों के कितने प्रश्न और उनको संतुष्ट करने की प्रक्रिया में खुद का विस्तार करना होता है । सुन्दर और गहन अव्हिव्यक्ति ।

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  3. आपकी कलम और आपकी कल्पना शक्ति को नमन है..अद्भुत बिम्ब बुनती हैं आप और कितनी सहजता से..

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "भूली-बिसरी सी गलियाँ - 10 “ , मे आप के ब्लॉग को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. एक ही वाद्य से छेड़ दिया आपने ..सभी धुन!

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...