19 मई, 2018

नख से शिख तक ज़िंदा रहूँगी




मैंने कब कहा ?
कि,
खुद के हिस्से
थोड़ी स्वतंत्रता माँगते हुए
मैं अपने सपनों को ऊँचे छींके पर रख दूँगी ?
भूल जाऊँगी गुनगुनाना,
चूड़ी पहनना,
पायल को ललचाई आँखों से देखना।
चुनरी मुझे आज भी खींचती है अपनी ओर,
पुरवईया - जब मेरे बालों से ठिठोली करती है
तो सोलहवें साल के ख्याल
पूरे शरीर में दौड़ जाते हैं !
स्वतंत्रता माँगी है,
राँझा बन जाने की बात नहीं की है।
मैं हीर थी,
हूँ
और रहूँगी !
मुझे भी जीने का हक़ है,
कुछ कहने का हक़ है
....
सूरज को अपने भाल पर
बिंदी की तरह सजाकर
मैं श्रृंगार रस की चर्चा आज भी करुँगी
स्वतंत्रता माँगी है,
पतझड़ नहीं।
बसंत के गीत,
जो तुम मेरे होठों से छीन लेना चाहते हो,
वह मैं होने नहीं दूँगी !
6 मीटर की साड़ी पहनकर,
मैं वीर रस की गाथा लिख चुकी हूँ,
तो आज भी यही होगा,
भोर और गोधूलि की लालिमा लिए
मैं धरती का चप्पा चप्पा नापूँगी,
सारे व्रत-त्यौहार जियूँगी,
अपने भाई के हाथों अपनी रक्षा का अधिकार बांधूंगी,
पूरी माँग भरकर,
अनुगामिनी बनूँगी  ...
साथ ही,
भाई की रक्षा का वचन भी लूँगी,
पति राह से भटका
तो, निःसंकोच -
उसके सारे रास्ते बंद कर दूँगी
स्त्री हूँ
स्त्रीत्व को सम्मान से जीऊंगी,
माँ के अस्तित्व को,
उसके आँचल से गिरने नहीं दूँगी,
मैं नख से शिख तक खुद को संवारूँगी
रोम रोम से ज़िंदा रहूँगी ,
स्वतंत्रता के सही मायने बताऊँगी  ...

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन रस्किन बांड और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-05-2017) को "गीदड़ और विडाल" (चर्चा अंक-2977) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. वाह ! आज की नारी को स्वतन्त्रता के सही मायने सिखाती हुई सुंदर रचना..

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  4. माँ के अस्तित्व को,
    उसके आँचल से गिरने नहीं दूँगी,
    मैं नख से शिख तक खुद को संवारूँगी
    रोम रोम से ज़िंदा रहूँगी ,
    स्वतंत्रता के सही मायने बताऊँगी ..शब्दों की ऐसी पावन गंगा जिसमें मन डुबकी लगाये तो अन्तर्मन खिल जाये .... सादर 🙏🙏

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  5. बहुत सुन्दर... लाजवाब...
    वाह!!!

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  6. मुझे लगता है सृंगार शौक का होना चाहिए ... कोई मजबूर होकर सृंगार करे वो सृंगार ना हुआ... वो तो बोझ हुआ जो स्वतंत्रता के आड़े भी आएगा।

    गजब अभिव्यक्ति है।

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  7. आदरणीय रश्मि जी -- आपके लेखन और आपकी कल्पना की मुरीद हूँ | स्त्रीत्व की परिभाषा में चार चाँद लगाती रचना बेहद खास है | स्वाभिमान के प्र्कग्र स्वर को सलाम |

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  8. 6 मीटर की साड़ी पहनकर,
    मैं वीर रस की गाथा लिख चुकी हूँ,
    तो आज भी यही होगा,
    भोर और गोधूलि की लालिमा लिए
    मैं धरती का चप्पा चप्पा नापूँगी
    हर पंक्ति प्रेरक, हर शब्द तेजस्वी ! सादर बधाई आपको इस प्रभावशाली रचना के लिए।

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