चाहती हूँ, फिर से अपने बच्चों के लिए परी बन जाऊँ,
उनकी आंखों के आगे जादू की छड़ी घुमाउँ,
उनकी टिमटिमाती आंखों में निश्चिंतता की मुस्कान भर दूँ ।
मुझे पता है,
मैं आज भी उनके लिए परी हूँ,
उनको मेरी अदृश्य जादुई छड़ी पर विश्वास है,
और वे हो जाते हैं निश्चिंत ।
लेकिन,
बुद्धि !!!
अचानक प्रश्न उठाती है,
क्या सच मे माँ जादू कर पाएगी !
यह भय दूर रहे,
मेरी माँ सी ईश्वरीय छड़ी,
उनके सारे सपनों को पूरा करे,
खुल जा सिम सिम कहते,
सारे बन्द दरवाज़े खुल जाएं
और उनकी मासूम हँसी से,
मेरे थके मन को स्फूर्ति मिल जाए
...हाँ,
यह दोतरफा जादू,
चलता रहे चलता रहे चलता रहे ...
जादू चलता रहे | आमीन |
जवाब देंहटाएंआमीन...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 05 जनवरी 2019को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सुभाष बाबू जिन्दाबाद का जयघोष और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंअति उत्तम ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर ! माँ का आँचल ही तो सबसे घनी छाँव देता है. माँ की जादू की छड़ी, उसकी ममता है और यह उसके हाथ से कोई नहीं छीन सकता.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवात्सल्य में डर का पुट है पर शानदार मनोभाव!
जवाब देंहटाएंमां कभी नाकामयाब नही होती नन्हों की झोली में दुआ बन ब रहती।
बहुत सुंदर रचना।
बहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...
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