17 फ़रवरी, 2020

वगैरह वगैरह कहना ...





अपहरण,
हत्या,
विस्फोट,
गोलीबारी,
यातायात दुर्घटना,
किसी लड़की के पीछे
किसी का साइकिक दीवानापन,
उसका जीना हराम करना,
घरेलू हिंसा,
यौन हिंसा ...
ये तमाम हादसे उनके साथ ही
ताज़िन्दगी असरदार होते हैं,
जिनका सीधा संपर्क होता है
(उसमें भी कुछ बेअसर होते हैं)
वरना सब बुद्धिमानी के चोचले हैं !
बारी जब प्रत्यक्ष विरोध की होती है,
तब सब यूँ चुप्पी साध लेते हैं,
जैसे वे हमेशा से शांत नदी थे !!
और कहते हैं,
भूल जाओ,
क्षमा कर दो,
वगैरह वगैरह ...
सुबह,शाम,रात तो जन्म से होती रही है,
आगे भी होती रहेगी
लेकिन दिनचर्या के मध्य मैं
सोचती रही हूँ
ऐसे लोगों की घिचपिच बनावट को,
कभी कुछ
कभी कुछ ... कैसे कह लेते हैं ये !
देखा है
सुना है मैंने इनको झुंझलाते हुए
क्रोध दिखाते हुए
लेकिन
यह सिर्फ इसलिए
कि इनको अपने मायने चाहिए थे,
ये गलत को गलत
सही को सही नहीं कह रहे थे दावे से
ये अपनी अहमियत तलाश रहे थे
...सच के आगे मैं इस तरह कभी सोच नहीं पाई,
परिस्थिति के आगे भी
सच को स्वीकार करते हुए बढ़ी
कभी घड़ियाली आँसू नहीं बहाए
न दुख का मज़ाक उड़ाने वालों के दुख से
विचलित हुई
अगर क्षमा ही श्रेष्ठ होता जीवन में
तो श्री राम ने वाण नहीं निकाला होता
ना ही प्रभु अवतार लेते ।


3 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(18-02-2020 ) को " "बरगद की आपातकालीन सभा"(चर्चा अंक - 3615) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  2. सच को सोच में लाना और स्वीकार लेना सब कहाँ कर पाते हैं?

    जवाब देंहटाएं
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