26 फ़रवरी, 2021

अटकन चटकन


सब दिन न होत न एक समान"... कुंती के कर्मों से शर्मिंदा होकर समय ने बहुत कुछ बदल दिया और इसी बदलाव ने कुंती को बहुत कुछ सोचने पर बाध्य किया । 

केंद्र में सुमित्रा को रखकर कुंती ने न सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा, बल्कि बदजुबान होती गई । बच्चों के साथ भी वह जीतने की कोशिश में लगी रही, जीत भी मिली, पर जब मात होने का मंजर शुरू हुआ तब कुंती अकेली पड़ गई । बड़ी बहु जानकी का आना, उसके द्वारा ग़लत का विरोध करना, समस्याओं से जूझने के लिए पीपल वाले बाबा को ढाल बना लेना एक बहुत स्वाभाविक घटना है । खुद लेखिका ने भी माना है कि ऐसा होता है, होने के पीछे की मनःस्थिति गौर करने की है । सुमित्रा के आगे जानकी स्वीकार भी करती है, और सुमित्रा मानती है कि कुंती के साथ यह सही उपाय है । 
क्योंकि यह एक सच्ची कहानी है तो यह तो सिद्ध होता है कि खुद लेखिका ने इसे रूबरू देखा या सुना है (मेरी समझ से) । और देखने-सुनने में हमसब एक अनुमान, आगे पीछे की शत प्रतिशत सच्ची,झूठी विवेचना से गुजरते ही हैं - सबसे अहम होता है, प्रत्यक्ष में घटित घटनाएं और उसका दिलोदिमाग पर प्रभाव । यह प्रभाव का ही असर है कि लेखिका ने उस मीठे बुंदेली भाषा को भी उकेरा है, जो सुमित्रा-कुंती-रमा-जानकी वगैरह  के मध्य हुआ, जो सहजता से पाठकों को छूता है, एक रोचकता का एहसास देता है । 

क्रमशः
 

 

2 टिप्‍पणियां:

जो गरजते हैं वे बरसते नहीं

 कितनी आसानी से हम कहते हैं  कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..." बिना बरसे ये बादल  अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर  आखिर कहां!...