17 दिसंबर, 2015

आत्मकथा' भी थोड़ी बेईमानी कर जाती है











मेरी ख़ामोशी
इधर-उधर घूमती पुतलियाँ
ढूँढती हैं शब्दकोश
ताकि कह सकें
कि कैसा लगता है
जब तपते माथे पर
कोई ठंडी हथेली नहीं रखता
और बिना बीमारी
बीमार सा चेहरा लिए
कुछ पूछने पर
कोई जवाब नहीं देता
जैसे कुछ सुनाई नहीं दिया हो  ...

इसे मामूली अभिनय न कहिये
जबरदस्त कला है यह
आपकी भर्तस्ना
हर कोई फुसफुसा कर करेगा
आप अपने चिंदी से सत्य को
सुनाने की मोहलत भी न पायेंगे
और फिर भी सुनाया
तो अवाक चेहरा कहेगा
"क्या बोल रहे हो !"
और तब -
तुम भी असमंजस में पड़ जाओगे
कि वाकई !!! तुम कह क्या रहे थे !!!

फिर,
जैसे फंदे के गिर जाने पर
बुनावट गलत हो जाने पर
कुछ बुनाई को उधेड़ा जाता है
और धीरे धीरे सलाई पर फंदों को चढ़ाया जाता है
वैसे ही
एकांत की तलाश करते हुए
मस्तिष्क की सलाई से
सत्य/असत्य को तुम उधेड़ते रह जाओगे
चूकि जीवन स्वेटर नहीं है
तो हर बार एक फंदा छूट जायेगा
..........
पूरी ज़िन्दगी की कहानी
कहाँ हूबहू लिखी जाती है
आत्मकथा' भी थोड़ी बेईमानी कर जाती है 

18 नवंबर, 2015

द्रौपदी - कुंती





कुंती 
वाकई तुम माँ' कहलाने योग्य नहीं थी !!!
अरे जब तुमने समाज के नाम पर 
अपने मान के लिए 
कर्ण  को प्रवाहित कर दिया 
पुत्रो की बिना सुने मुझे विभाजित कर दिया 
तो तुम क्या मेरी रक्षा करती ?!
मन्त्रों का प्रयोग करनेवाली तुम 
तुम्हें क्या फर्क पड़ता था 
अगर तुम्हारे पुत्र मुझे हार गए 
और दुःशासन मुझे घसीट लाया 
.... 
दम्भ की गर्जना करता कौरव वंश 
और दूसरी तरफ  … 
स्थिर धर्मराज के आगे स्थिर अर्जुन 
भीम,नकुल-सहदेव  … 
भीष्म प्रतिज्ञा करनेवाले पितामह 
परम ज्ञानी विदुर 
.... !!!
धृतराष्ट की चर्चा तो व्यर्थ ही है 
वह तो सम्पूर्णतः अँधा था 
पर जिनके पास आँखें थीं 
उन्होंने भी क्या किया ?
पलायन, सिर्फ पलायन  .... 

आज तक मेरी समझ में नहीं आया 
कि सबके सब असमर्थ कैसे थे ?
क्या मेरी इज़्ज़त से अधिक 
वचन और प्रतिज्ञा का अर्थ था ?

मैं मानती हूँ 
कि मैंने दुर्योधन से गलत मज़ाक किया 
अमर्यादित कदम थे मेरे 
पर उसकी यह सजा ?!!!
… 
आह !!!
मैं यह प्रलाप तुम्हारे समक्ष कर ही क्यूँ रही हूँ !

कुंती, 
तुम्हारा स्वार्थ तो बहुत प्रबल था 
अन्यथा -
तुम कर्ण की बजाये 
अपने पाँच पुत्रों को कर्ण का परिचय देती 
रोक लेती युद्ध से !
तुम ही बताओ 
कहाँ ? किस ओर सत्य खड़ा था ?

यदि कर्ण को उसका अधिकार नहीं मिला 
तो दुर्योधन को भी उसका अधिकार नहीं मिला 
कर्ण ने तुम्हारी भूल का परिणाम पाया 
तो दुर्योधन ने 
अंधे पिता के पुत्र होने का परिणाम पाया 
.... कुंती इसमें मैं कहाँ थी ?
मुझे जीती जागती कुल वधु से 
एक वस्तु कैसे बना दिया तुम्हारे पराक्रमी पुत्रों ने ?

निरुत्तर खड़ी हो 
निरुत्तर ही खड़ी रहना 
तुम अहिल्या नहीं 
जिसके लिए कोई राम आएँगे 
और उद्धार होगा !
और मैं द्रौपदी 
तीनों लोक, दसों दिशाओं को साक्षी मानकर कहती हूँ 
कि भले ही महाभारत खत्म हो गया हो 
कौरवों का नाश हो गया हो 
लेकिन मैंने तुम्हें 
तुम्हारे पुत्रों को माफ़ नहीं किया है 
ना ही करुँगी 
जब भी कोई चीरहरण होगा 
कुंती 
ये द्रौपदी तुमसे सवाल करेगी 

 .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... 

द्रौपदी,
मैं समझती हूँ तुम्हारा दर्द 
पर आवेश में कहे गए कुछ इलज़ाम सही नहीं 
मेरी विवशता, 
मेरा डर 
मेरा अपराध हुआ 
पर, 
तुम ही कहो 
मैं क्या करती ?!
माता से कुमाता होना 
मेरी नियति थी 
उस उम्र का भय  … 
मुझे अपाहिज सा कर गया 
… 
राजकन्या थी न 
पिता की लाज रखते हुए 
पाण्डु पत्नी हुई !
दुर्भाग्य कहो 
या होनी की सजा 
मुझे मंत्र प्रयोग से ही मातृत्व मिला 
फिर वैधव्य  … 
मैं सहज थी ही नहीं द्रौपदी !!
पुत्रों की हर्ष पुकार पर मैंने तुम्हें सौंप दिया 
लेकिन !!!
मेरी आज्ञा अकाट्य नहीं थी 
मेरे पुत्र मना कर सकते थे 
पर उन्होंने स्वीकार किया !
द्रौपदी,
यह उनकी अपनी लालसा थी 
ठीक जैसे द्यूत क्रीड़ा उनका लोभ था 
भला कोई पत्नी को दाव पर लगाता है !!
मैं स्वयं भी हतप्रभ थी 
जिस सभा में घर के सारे बुज़ुर्ग चुप थे 
उस सभा में मैं क्या कहती ?
तुम्हारी तरह मैं भी कृष्ण को ही पुकार रही थी 
.... 
मेरी तो हार हर तरह से निश्चित थी 
एक तरफ कर्ण था 
दूसरी तरफ तथाकथित मेरे पांडव पुत्र !
अँधेरे में मैंने कर्ण को मनाना चाहा 
युद्ध को रोकना चाहा 
लेकिन मान-अपमान के कुरुक्षेत्र में 
मैं कुंती 
कुछ नहीं थी !
फिर भी,
मैं कारण हूँ 
तुम मुझे क्षमा मत करो 
पर मानो 
मैंने जानबूझकर कुछ नहीं किया !!!

16 नवंबर, 2015

देना चाहती हूँ तुम्हें संजीवनी सा मौन






मेरे बच्चों,
मुझे जाना तो नहीं है अभी
जाना चाहती भी नहीं अभी
अभी तो कई मेहरबानियाँ
उपरवाले की शेष हैं
कई खिलखिलाती लहरें
मन के समंदर में प्रतीक्षित हैं
लेना है मुझे वह सबकुछ
जो मेरे सपनों के बागीचे में आज भी उगते हैं
इस फसल की हरियाली प्रदूषण से बहुत दूर है
सारी गुम हो गई चिड़ियाएँ
यहाँ चहचहाती हैं
विलुप्त गंगा यहीं हैं
कदम्ब का पेड़ है
यमुना है
बांसुरी की तान है  …
कॉफी के झरने हैं
अलादीन का जिन्न
चिराग में भरकर पीता है कॉफ़ी
सिंड्रेला के जूते इसी बागीचे में
फूलों की झालरों के पीछे हैं
गोलम्बर को उठाकर मैंने यहीं रख दिया है
कल्पनाओं की अमीरी का राज़
यहीं है यहीं है यहीं है   …
०००
समय भी आराम से यहाँ टेक लगाकर बैठता है
फिर भी,
समय समय है
तो उस अनभिज्ञ अनदेखे समय से पहले
मैं इन सपनों का सूत्र
तुम्हारी हथेली में रखकर
तुम्हारी धड़कनों के हर तार को
हल्के कसाव के संग
लचीला बनाना चाहती हूँ
- यूँ बनाया भी है
पर तुमसब मेरे बच्चे हो
जाने कब तुमने मेरी कोरों की नमी देख ली थी
आज तलक तुम नम हो
और सख्त ईंट बनने की धुन में लगे रहते हो
०००
मुझे रोकना नहीं है ईंट बनने से
लेकिन वह ईंट बनो
जो सीमेंट-बालू-पानी से मिलकर
एक घर बनाता है
किलकते कमरों से मह मह करता है
इस घर में
इस कमरे में
मैं - तुम्हारी माँ
तुम्हारी भीतर धधकते शब्दों के लावे को
मौन की शीतल ताकत देना चाहती हूँ  …
०००
निःसंदेह पहले मौन की बून्द
छन् करती है
गायब हो जाती है
पर धीरे धीरे तुम्हारा मन
शांत
ठंडा
लेकिन पुख्ता होगा !
एक तूफ़ान के विराम के बाद
तुम्हारे कुछ भी कहने का अंदाज अलग होगा
अर्थ पूर्णता लिए होंगे
तूफ़ान में उड़ते
लगभग प्रत्येक धूलकणों की व्याख्या
तुम कर पाओगे
और सुकून से सो सकोगे
जी सकोगे !
मौन एक संजीवनी बूटी है
जो हमारे भीतर ही होती है
उसका सही सेवन करो
 फिर एक विशेष ऊर्जा होगी तुम्हारे पास !
०००
श्री श्री रविशंकर कहते हैं
कि 1982 में
दस दिवसीय मौन के दौरान
कर्नाटक के भद्रा नदी के तीरे
लयबद्ध सांस लेने की क्रिया
एक कविता या एक प्रेरणा की तरह उनके जेहन में उत्तपन्न हुई
उन्होंने इसे सीखा और दूसरों को सिखाना शुरू किया  …
फिर तुम/हम कर ही सकते हैं न !
०००
मौन अँधेरे में प्रकाश है
निराशा में आशा
कोलाहल की धुंध को चीरती स्पष्टता
धैर्य और सत्य के कुँए का मीठा स्रोत
....
हाथ बढ़ाओ
इस कथन को मुट्ठी में कसके बाँध लो
जब भी इच्छा हो
खोलना
विचारना
जो भी प्रश्न हो खुद से पूछना
क्योंकि तुमसे बेहतर उत्तर
न कोई दे सकता है, न देना चाहेगा !
यूँ भी,
 दूसरा हर उत्तर
तुम्हें पुनः उद्द्वेलित करेगा
तुम धधको
उससे पहले मौन गहराई में उतर जाओ
हर मौन से मिलो
फिर तुम समर्थ हो
ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव पर
तुम सहजता से चल लोगे 

21 अक्टूबर, 2015

रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ




कौन है रावण ?
कैसा है देखने में ?
दस सिर तो कहीं नज़र नहीं आते
ना ही इतना संयम
कि वाटिका में सीता हो
और वह उसके पास न जाये !
कहाँ है वह रावण
जिसने अपहरण तो किया
परन्तु मर्यादा का उलंघन नहीं किया
कहाँ है वह रावण
जिससे राम ने भी ज्ञान लिया ?
हर कथा को तमाशा बना दिया लोगों ने
एक पुतला खड़ा किया
जलाया  …
और सीताओं की बलि चढ़ा दी !
रामायण,
राम को दुहराने से क्या रामराज्य आ जाता है
कैकेयी की भर्त्सना क्यूँ ?
किसके भीतर मंथरा और कैकेयी नहीं
कौन नहीं देना चाहता राम को वनवास
यानी घर निकाला ?
लांछन लगानेवाली उंगलियाँ
हर घर,चौराहे,नुक्क्ड़ पर है
सच पूछो तो वह राम कहीं नहीं
जो बड़े से बड़ा यज्ञ पत्नी की प्रतिमा संग करे
रावण का संहार करे
साथ ही उसकी विद्वता का सम्मान करे  … !
रामलीला इतना आसान नहीं मेरे भाई
ना ही कोई तमाशा है
जिसे कहीं भी किया जाए
किसी को भी पात्र बना दिया जाए !
त्यौहार मनाना ही चाहते हो
तो रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ
सीता की इच्छा का मान रखो
.... 

20 अक्टूबर, 2015

आत्मकथा





मन के चूल्हे पर
जब अतीत और वर्तमान उफनता है 
तो भविष्य के सकारात्मक छींटे डालते हुए सोचती हूँ 
लिखूँगी आत्मकथा'  … 
नन्हें कदमों से आज तक की कथा !
पर जब जब लिखना चाहा 
तो सोचा,
पूरी कथा एक नाव सी है 
पानी की अहमियत 
किनारे की अहमियत 
पतवार,रस्सी,मल्लाह 
भँवर, बहते हुए पत्ते
किनारे के रेतकण 
कुछ पक्षी 
कुछ कीचड़ 
कमल  …
सूर्योदय, सूर्यास्त 
 बढ़ने और लौटने की प्रक्रिया  … 
यही सारांश है हर आत्मकथा का !

17 अक्टूबर, 2015

हर तुम" के नाम "मैं का खत




प्रिय तुम,

तुम्हारे मन में भी 
ख्यालों का बवंडर उठता होगा 
बंद आँखों के सत्य में 
तुम्हारे कदम भी पीछे लौटते होंगे 
इच्छा होती होगी 
फिर से युवा होने की 
दिल-दिमाग के कंधे पर 
गलतियों की जो सजा भार बनकर है 
उसे उतारकर 
नए सिरे से 
खुद को सँवारने का दिल करता होगा !
आँगन, 
छत वाले घर में 
पंछियों के मासूम कलरव संग 
फिर खेलने का मन करता होगा 
किसी कोने में खत लिखने की चाह होगी 
डाकिये के आने पर 
ढेर सारे लिफ़ाफ़े, अंतर्देशीय के बीच 
अपने नाम के खत की तलाश होगी !
अतीत को भूलने की बात तुम भी करते हो 
पर हर घड़ी अतीत में लौटने की चाह 
पुरवइया सी मचलती होगी  … 
पीछे रह गए कुछ चेहरों की तलाश तुम्हें भी होगी 
ग़ज़ल गुनगुनाते हुए 
दोपहर की धूप की ख्वाहिश तुम्हें भी होगी 
… 
तुम मुझसे अलग नहीं 
पगडंडियाँ, सड़कें 
शहर, देश का फर्क होगा 
पर लौटने की चाह एक सी है 
घर,प्यार,  … शरारतें 
तुम भी फिर से पाना चाहते हो 
मैं भी  … 

08 अक्टूबर, 2015

तस्वीर से निकले एहसास





अपने थे
देना था  -
कुछ वक़्त, कुछ ख्याल 
लेकिन,
इस देने में मैं रह गया खाली 
हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !
मैंने सबको बहुत करीब से देखा 
यूँ 
जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास 
कभी समझ सको,
सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें 
स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !
इसका अर्थ यह नहीं 
कि मैंने किसी को अपना नहीं माना 
देना नहीं चाहा 
.... 
दरअसल किसी को मेरी ज़रूरत नहीं थी 
मेरे ख्याल उन्हें परेशान करते 
मेरा वक़्त उन्हें बेमानी लगता 
उन्हें मेरी सामयिक ज़रूरत थी 
फिर भी 
दुनियादारी, समाज 
और मेरा मन 
… मैं देता रहा 
बुझता गया 
भीड़ में झूठ बनकर हँसता गया 
लेकिन आह,
मैं इस चेहरे की भाषा को कैसे बदलता 
आँखों को चुप करके भी 
बोलने से कैसे रोकता 
!!! 
इसीलिए 
न चाहकर भी 
तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया 

05 अक्टूबर, 2015

सोचना एक आम दिनचर्या है !





चलती हुई सोचती हूँ 
- सारे काम-काज तो हो ही जाते हैं 
बर्तन भी धो लेती हूँ कामवाली के न आने पर 
भीगे कपडे फैलाकर, 
सूखे कपडे तहाकर 
बैठ जाती हूँ कुछ लिखने-पढ़ने 
… इस बीच लेटने का ख्याल कई बार आता है 
पर नहीं लेटती  … 
कभी थोड़ी पीठ अकड़ती है 
कभी घुटना दर्द करता है 
हाथ कंधे के पास से जकड़ा हुआ लगता है 
तो बिना नागा उम्र को उँगलियों पर जोड़ती हूँ 
जबकि पता है 
फिर भी  … !
फिर सोचती हूँ,
अगले साल भी इतनी तत्परता से चल पाऊँगी न 
और उसके अगले साल  … 
"जो होगा देखा जायेगा" सोचकर 
खोल लेती हूँ टीवी 
बजाये मन लगने के होने लगती है उबन 
सोचने लगती हूँ, 
पहले तो कृषि दर्शन भी अच्छा लगता था 
झुन्नू का बाबा 
चित्रहार 
अब तो अनेकों बार आँखें टीवी पर होती हैं 
ध्यान कहीं और  … 

ये वाकई उम्र की बात है 
या अकेले होते जाते समय का प्रभाव ?
पर यादों की आँखमिचौली तो रोज चलती है 
काल्पनिक रुमाल चोर भी 
अमरुद के पेड़ पर भी सपनों में तेजी से चढ़ती हूँ 
… 
फिर भी,
सुबह जब बिस्तरे से नीचे पाँव रखती हूँ 
 स्वतः उम्र जोड़ने लगती हूँ 
सोचने लगती हूँ 
जितनी आसानी से अपने बच्चों को 
पाँव पर खड़ा करके झूला झुलाती थी 
क्या बच्चों के बच्चों को झुला पाऊँगी !!!

सच तो यही है 
कि अभी तक कोई छोटा मोटा काम नहीं किया है 
गोवर्धन की तरह ज़िन्दगी को ऊँगली पर उठाया है 
फिर अब क्यूँ नहीं ??
… 
यह सोचना एक आम दिनचर्या है !

25 सितंबर, 2015

महादेवी वर्मा और एक कोशिश सी मैं


महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य के छायावादी कवियों में एक महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं ... शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी माँ पर उनकी तुकबंदी कुछ यूँ थी -

ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन उन्हें लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी न बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं 

वेदना और करुणा महादेवी वर्मा के गीतों की मुख्य प्रवृत्ति है, असीम दु:ख के भाव में से ही महादेवी वर्मा के गीतों का उदय और अन्त दोनों होता है !

उनकी दो रचनाओं की ऊँगली मैंने यानी मेरी कलम ने थामने की कोशिश की है  … 

महादेवी वर्मा 

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संसृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!
तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय
खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही स्मित मिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या!
रोमरोम में नंदन पुलकित
साँससाँस में जीवन शतशत
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित
मुझमें नित बनते मिटते प्रिय
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या!
हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
भर लाऊँ सीपी में सागर
प्रिय मेरी अब हार विजय क्या!
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या!
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या


मेरी कलम से 


कौन हो तुम
कौन हूँ मैं 
क्या दोगे तुम परिचय 
क्या दूँ मैं अपने लिए  … 
ध्रुवतारे में तुम्हें देखा है 
सप्तऋषि की परिक्रमा कर 
तुमसे बातें की है 
टूटते तारे के रूप में 
तुम्हारे संग टूटी हूँ 
आकाश से उतरी हूँ  … 
परिचय तुम्हारा मैं 
मेरा अस्तित्व तुमसे  निनादित 
मैं कहलाऊँ तुम 
तुम छायांकित मुझमें 
साधक तुम साध्य हूँ मैं 
मैं ध्यानावस्थित 
ध्यान हो तुम 
चल अचल धीर गंभीर 
सागर तुम हो 
मैं हूँ लहरें 
तुम रेतकण 
मैं हूँ नमी 
स्पर्श तुम 
मैं हूँ सिहरन 
हो आग तुम 
मैं हूँ तपन 
विद्युत सी चमक तुझमें लय है 
बादल सी गति मुझमें लय है 
मैं वशीकरण 
तुम हो वश में 
तुम कौन हो 
कहो,
कौन हूँ मैं ? 
तुम मौन मेरा साथ हो,
मैं मौन अनुगामिनी
नाम तेरा मैं न जानूं
तुम भी मुझको ना पहचानो,
फिर भी हैं ये आहटें
साथ चलता साया है !
मौन मुझसे बातें करता
मौन मेरी बातें सुनता !
मौन अपना साथ है,
मौन अपना प्यार है
मौन अपनी जीत है
मौन अपने गीत हैं.........
मौन ही चलते रहें हम
क्षितिज तक मिलने के भ्रम में
भ्रम ही बन जायें हम-तुम
और यूँ मिल जायें हम-तुम !


कहती हैँ महादेवी जी - 

जो तुम आ जाते एक बार ।

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।

हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।


मैं अपनी कलम को पकड़कर अपने मन को उतारती हूँ - 



कोई आहट रुकी है जानी-पहचानी,
मेरे मन की सांकलें सिहर उठी हैं...
मैं तो ध्यानावस्थित थी,
ये कौन आया बरसों बाद?
मुझे याद दिलाया-मैं जिंदा हूँ.......!
किसने मेरे खाली कमरे में घुँघरू बिछा डाले,
जो पुरवा की तरह बज उठे हैं!
क्यों मुझे राधा याद आ रही?
उधो की तरह मैं 
गोपिकाओं सी क्यों लीन हो उठी?
ये बांसुरी की तान कहाँ से आई है?
यमुना के तीरे ये क्या माज़रा है!
क्यों ब्रज में होली की धूम मची है?
क्या कृष्ण ने फिर अवतार लिया है 
ये कौन आ गया फिर मेरे द्वार ?





23 सितंबर, 2015

सचमुच इतना ही सहज था सबकुछ ?






ऐसे तो सहज ही रहती हूँ
बड़ी सहजता से
बड़ी से बड़ी तकलीफ के क्षणों को
शब्दों में बाँध देती हूँ
लेकिन समानान्तर
प्रलाप करते मस्तिष्क के कोनों से
रेगिस्तानी आँखों से
शून्य में अटके वक़्त से
करती हूँ सवाल
क्या सचमुच इतना ही सहज
था सबकुछ ?
मासूम भयभीत आँखें
ममता के थरथराते पाँव
और गंदगी के ढेर पर
कोने में सिमटी उस लड़की की विवशता
जो मैंने देखी है
क्या उसका हिसाब-किताब इतना आसान है
कि जोड़-तोड़ से उसका हल निकाल दिया जाए !!!
....
हल तो हमने भी नहीं निकाला था
वीरान राहों पर
सपनों के अदृश्य दीये रखते हुए
हमने बस मान लिया था
कि हमने जीने का हल निकाल लिया है !
डरकर बुना हुआ हर दिन
झूठ पर अड़ा सत्य
कोई हल नहीं था
!!!
कितने सारे उपद्रव खड़े थे आगे
इससे जुझो तो दूसरा
दूसरे से निकलो तो तीसरा
लगता था रक्तबीज के रक्त बह रहे हैं !
मैं काली' का रूप लेना चाहती थी
पर शिव हमेशा मेरे आगे लेट गए !!

शिव के आगे आने का मान देना था
पर काली का आवेश ?
क्या सहज सरल था विरोध की आग को
अमृत की तरह पीना !

नहीं,
नहीं था सरल मीरा का विषपान
उनकी हँसी
साधुओं की मंडली में उनका सुधबुध खोना
मूर्ति में समाहित हो जाना  …
कथन की सहजता
जीने की विवशता में
बहुत विरोधाभास होता है
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! 

03 सितंबर, 2015

उपसंहार के साथ







मन की लहरों को नहीं लिख पाई
जो लिख पाई
वो किनारे के पानी थे
या भीगी रेत के एहसास  … !
वो जो मन गर्जना करता है
उद्वेग के साथ किनारे पर आकर
कुछ कहना चाहता है
वह मध्य में ही विलीन हो जाता है
....
यूँ कई बार रात के तीसरे पहर में
कितनी बार उठकर बैठी हूँ
लिख लूँ हर ऊँची नीची लहरों की
वेदना-संवेदना
पर कहीं तो कोई व्यवधान है !
शायद सत्य की सुनामी विनाश बन जाए
इसलिए रख देता है खुदा कलम हाथों से लेकर
कहता है माथे पर हाथ रखकर
- "मैं सुनता हूँ, पढता हूँ
समझता हूँ
लहरों के उठने गिरने के मायने
न लिखे जाएँ - तो बेहतर है "
सोचने लगती हूँ,
एक ही लहर के अंदर
जो भरपूर एहसास होता है
उसे शब्द शब्द अलग करना आसान नहीं
मायने भी नहीं !
यूँ भी
जो तलवार उठ जाते हैं
वे सिर्फ समापन लिखते हैं
तो आखिर समापन क्यूँ ?
छोड़ देती हूँ रेतकणों पर
लहरों से भीगे कुछ निशान
जिसके भीतर उन लहरों सी नमी होगी
वे रेतकणों को पढ़ ही लेंगे !!!
फिर कुछ देर मुट्ठी में भरकर
हवाओं के हवाले कर देंगे
अपनी अभिव्यक्तियों को उपसंहार के साथ  … 

25 अगस्त, 2015

(दशरथ मांझी नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के चेहरे में दिखा … और सोच की खलबली होती रही )









(दशरथ मांझी नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के चेहरे में दिखा  … और सोच की खलबली होती रही )

सुना था दशरथ मांझी के प्रेम को 
प्रेम ! तलाश ! परिवर्तन !
- यह सब एक पागलपन है 
धुन में सराबोर, झक्की से चेहरे 
पत्थर मारो, या कुछ भी कहो 
धुन के आगे कोई भी रुकावट नहीं होती !
यूँ तो शाहजहाँ की उपमा दी गई है 
लेकिन बहुत फर्क है 
आर्थिक सामर्थ्य और आत्मिक सामर्थ्य में 
… शाहजहाँ ने एक सौंदर्य दिया 
दशरथ मांझी ने सुविधा दी 
सत्य मिथक के मध्य सुना है 
शाहजहाँ ने कारीगरों के हाथ कटवा दिये थे
और मांझी ने अपने को समर्पित कर दिया !

सोचती हूँ प्रेम में डूबा 
पत्थरों को छेनी से तोड़ता मांझी 
उन पहाड़ों से क्या क्या कहता होगा 
क्या क्या सुनता होगा 
फगुनिया के लिए क्या क्या 
कैसे कैसे सोचता होगा !
एक एक दिन को 
उसने कैसे जीया होगा 
अनुमान मांझी तक नहीं जाता 
उन सड़कों पर भी नहीं 
जो दशरथ मांझी के नाम से है  … 
कभी मिलूँगी उन पहाड़ों से 
उसकी आँखों को पढ़ने की कोशिश करुँगी 
जिसमें एक एक दिन के पन्ने हैं  !

08 अगस्त, 2015

याद है तुम्हें ?







ओ अमरुद के पेड़ 
याद है तुम्हें मेरे वो नन्हें कदम 
जो डगमगाते हुए 
खुद को नापतौल कर साधते हुए 
तेरी टहनियों से होकर 
तेरी फुनगियों तक हथेली उचकाते थे  … 

ओ गोलम्बर 
याद है तुम्हें 
वो एक सिरे से हर सिरे तक 
मेरे पैरों का गोल गोल नाचना 
रजनीगंधा की खुशबू का गुनगुनाना  
हँसी की धारा जो फूटती थी 
वो शिव जटाओं से निकली गंगा ही लगती थी 
और तुम गंगोत्री  … 

ओ आँगन 
आज भी एक लड़की 
तेरे किनारे खड़े चांपाकल को चलाती है 
ढक ढक की आवाज़ सुनते हो न ?
दिखती है न वो लड़की 
जो चांपेकल का मुँह बंदकर 
ढेर सारे पानी इकट्ठे कर 
अचानक हटा देती है हाथ 
कित्ता मज़ा आता है न  … याद है न तुम्हें ?

हमें तो अच्छी तरह याद है 
बरामदा,ड्राइंग रूम,आवाज़ करता वहाँ का पंखा 
दो कमरे,एक लम्बा पूजा रूम,
भंडार घर 
रसोई, मिटटी का चूल्हा 
.... 
.... 
आज भी सपनों में चढ़ती हूँ अमरुद के पेड़ पर 
एड़ी उचकाकर फुनगियों को छूने की कोशिश करती हूँ 
फ्रॉक के घेरे में अमरुद लेकर 
आँगन में जाती हूँ !
पानीवाला आइसक्रीम बेचते हुए 
आइसक्रीमवाले का डमरू बजाना 
ननखटाईवाले का काला चेहरा 
मूँगफली वाले की पुकार 
चनाजोर गरम वाले का गाना 
"मैं लाया मज़ेदार चनाजोर गरम"
सब गुजरे कल की बात की तरह 
आज में तरोताजा है  … 
वो फागुन का गीत 
वो ढोलक की थाप 
वो शनिचरी का नमकीन 
वो बगेरीवाले की पुकार !!

आईने में उम्र हो गई 
लेकिन आईने से बाहर 
वो घेरेवाला फ्रॉक याद आता है 
वो ऊँची नीची पगडंडियाँ  … 
कहो पगडण्डी 
वो नन्हीं सी लड़की तुम्हें याद है ?
क्या आज भी तुम वैसी हो 
जैसी उसकी याद में उभरती हो ?

बोलो ना  … 

01 जुलाई, 2015

ईश्वर अपनी ओर खींचता है




जीवन के किसी मोड़ पर 
अचानक हमें लगता है -
"हम हार गए हैं,
ज़िन्दगी ऊन के लच्छे सी उलझ गई है"  … 
पर किसी न किसी तरह 
कोई न कोई 
खासकर माँ
उसे पूरा दिन 
पूरा ध्यान लगाकर सुलझाती है 
.... 
समस्या का चेहरा कितना भी विकराल हो 
उससे निबटने का हल होता है,
कोई न कोई मजबूत हथेली मिल ही जाती है  … 

निःसंदेह,
मन अकुलाता है 
न भूख लगती है 
न प्यास 
न शब्द मरहम का काम करते हैं 
लेकिन ऐसी स्थिति में ईश्वर अपनी ओर खींचता है 
मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा  … 
हर दहलीज पर माथा टेकना 
हारे मन की उपलब्धि होती है 
सर पटकते पटकते लगता है 
किसी ने नीचे हाथ रख दिया हो 
और वहीँ से विश्वास का 
कुछ कर दिखाने का 
पाने का 
गंतव्य शुरू होता है !

विराम 
विकल्प 
समाधान
परिवर्तन  - हर तूफ़ान का होता है !

समस्याएँ एक तरह की अनुभवी शिक्षा है 
जहाँ न दम्भ होता है 
न दब्बूपन 
होती है एक चाहत 
सहने की 
कुछ कर दिखाने की 
विनम्रता की 
टूटे मन को जोड़ने की  … 

तो,
हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरी नाम।।
जा ही विधि राखे राम, ता ही विधि रहिये।।

27 जून, 2015

कुछ भी असंभव नहीं



आँधियाँ सर से गुजरी हों 
टूट गया हो घर का सबसे अहम कोना 
तो तुम दुःख के सागर में डूब जाओ 
यह सोचकर 
कि अब कुछ शेष नहीं रहा 
तो तुम्हें एक बार बताना होगा
तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो ?

घर का कोना सिर्फ तुमसे ही तो नहीं था 
कई पैरों ने की होंगी चहकदमियाँ उस ख़ास कोने में 
उस ख़ास घर में  … 
क्या तुम उन हथेलियों को थामकर मजबूत नहीं हो सकते ?
फिर से एक महत्वपूर्ण कोना नहीं बना सकते ?

जीने के लिए आँधियों का भय रखो 
मजबूत छतें बनाओ 
आँखों को जमकर बरसने दो 
पर जो हथेलियाँ तुम्हारी हैं 
उन पर भरोसा रखो !
वक़्त कितना भी बदल जाये 
स्पर्श नहीं बदलते 
उनका जादू हमेशा परिवर्तन लाता है 

तो -
निराशा के समंदर से बाहर निकलो 
किनारे तुम्हारे स्वागत में 
नए विकल्पों के साथ पूर्ववत खड़े हैं। 
दृढ़ता से पाँव रखो 
खुद को पहचानो 
फिर देखो,
कुछ भी असंभव नहीं 

12 जून, 2015

किसे लिखूँ किसे रहने दूँ !




मैं चाहती हूँ अपने को लिखना
लिख नहीं पाती  …
खोल सकती हूँ मैं मन की हर परतों को
लेकिन सिर्फ मैं' हूँ कहाँ !

चेहरे से निकलते चेहरे
जितने चेहरे उतने उद्धृत रूप -
श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस
रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस
वीभत्स रस, अद्भुत रस,शांत रस
जाने-अनजाने पात्र
रसों की अलग अलग मात्राएँ !

सोचती रही  …
भयानक रस लिखूँ
करुण रस लिखूँ
या वीभत्स !!
या फिर वह अद्भुत शांत रस
जो समानांतर जीवन का आधार रहा
जिसने श्रृंगार रस की उत्पत्ति की
हास्य रस का घूंट लिया
और रौद्र रस के आगे
वीर रस का जाप किया !

रसों के तालमेल को हूबहू लिखना
संभव नहीं होता
जीवन के वृक्ष में कई फल लगते हैं
मैं' तो सिर्फ जड़ें हैं  
और जड़ों की मजबूती में
आग,पानी,तूफ़ान,बर्फ सब होते हैं
तो,
किसे लिखूँ
किसे रहने दूँ !

08 जून, 2015

माँ' की पुकार ॐ की समग्रता से कम नहीं









ऐसा नहीं था
कि अपने "मैं" के लिए
मुझे लम्हों की तलाश नहीं थी
लेकिन इस "मैं" के आगे
'माँ' की पुकार
ॐ की समग्रता से कम नहीं थी
और जब "मैं" ॐ में विलीन हो
तो सम्पूर्ण तीर्थ है  …

लोग अच्छा दिन
बुरा दिन मानते हैं
मुझे वह हर दिन पवित्र लगा
जब बच्चों के नाम मेरी ज़ुबान पर रहे

दायित्वों की परिक्रमा पूरी करते हुए मुझे लगा
ब्रह्मा विष्णु महेश
दुर्गा,सरस्वती,लक्ष्मी,पार्वती  ....
सब मेरे रोम रोम में हैं

जब कभी मेरे आगे धुँआ धुँआ सा हुआ
मैं जान गई - बच्चे उदास हैं
सहस्त्रों घंटियों की गूँज की तरह
उनकी अनकही पुकार
मेरे आँचल को मुठी में पकड़ खींचती रही
और मेरा रोम रोम उनके लिए दुआ बनता गया 

मेरा घर, मेरा मंदिर,
मेरी ख़ुशी, मेरी उदासी
मेरे बच्चे  … 

30 मई, 2015

सलीके से किराये की ज़िन्दगी बहुत जी लिए







रुलाई की 
जाने कितनी तहें लगी हैं 
आँखों से लेकर मन के कैनवस तक  … 
कोई नम सी बात हो 
आँखें भर जाती हैं 
गले में कुछ फँसने लगता है 
ऐसे में,
झट से मुस्कान की एक उचकन लगा देती हूँ 
....... बाँध टूटने का खौफ रहता है 



रो लेंगे जब होंगे साथ 
देखेंगे कौन जीतता है 
और फिर -
खुलकर हँसेंगे खनकती हँसी 
छनाक से शीशे पर गिरती बारिश जैसी 
………
होना है इकठ्ठा 
बेबात हँसना है 
सलीके से किराये की ज़िन्दगी बहुत जी लिए  …………… !!!

27 मई, 2015

काई का निर्माण किसने किया !




चिट्ठियाँ सहेजकर रखो 
तो अतीत गले में बाहें डाल 
हँसाता है 
रुलाता है  …. 
मोबाइल में तो कुछ मेसेज रहते हैं 
वो भी अचानक मिट जाते हैं 
और मिट जाती है गहराई  … 
……. 
अक्सर हम बुरी बातों को याद रखते हैं 
उनका ज़िक्र करते हैं 
… वे लम्हे 
जो कागज़ की कश्ती में खिलखिलाते हैं 
उसे समय के दरिया में डुबो देते हैं 
…. 
पर चिट्ठियों का जवाब नहीं  …
कुछ देर लैपटॉप बंद करके 
मोबाइल ऑफ करके 
टीवी बंद करके  ….  
समय निकालना होगा लिखने के लिए 
!!!
पर्दा जब गिर जाता है 
तब लगता है -
कह लेते।
लिख लेते, … 

कभी बड़ी गहरी शिकायत 
खुद से हुई है ?
बनाया है कोई इगो अपनी बनावट से ?
अपने किसी बुरे पहलू को 
उजागर किया है सबके आगे ?
…. 
उत्तर किसी को नहीं चाहिए 
… बस अपने मन की नदी में तैरो 
डूबके देखो 
अपने किनारों को देखो 
कितनी गहरी काई है 
कितनी फिसलन !
जरा गौर करना 
इस काई का निर्माण किसने किया !
…। 
बहुत से जवाब तुम्हें मिल जाएँगे 

01 जनवरी, 2015

2015 मंगलमय हो




पुराने वर्ष ने उतार दिया है अपना पुराना वस्त्र 
नई ताजगी, नए हौसलों के साथ 
2015 की आयु लिए 
खड़ा है नया वर्ष !
जन्मदिन की ढेरों बधाई वर्ष :)
बढ़ाओ अपने अनुभवी कदम 
- जिन्होंने खून की होली खेली 
तुम्हारे वस्त्रों को दागदार किया 
उन्हें दो गज ज़मीन भी न नसीब हो 
दिखा दो  … 
हर बच्चों को अपनी सी लम्बी आयु दो 
उनके भीतर हर मौसम की खासियत भर दो 
तुम बहुत सामर्थ्यवान हो वर्ष 
संकल्प लो 
खुशियों से झोली भर दोगे 
अन्याय को खत्म करोगे 
डाकिया बन एक चिठ्ठी 
सबके घर पहुँचाओगे 
हर रिश्तों के नाम  … 
ऐ वर्ष 
तुम तो बहुत बड़े हो 
दादा जी के दादा के दादा 
तुम इस भारत की तक़दीर बना दो 
ऐसी छड़ी घुमाओ 
कि दुश्मन दुश्मनी भूल जाये 
किसी का बेटा,भाई,पति  … शहीद न हो 
.... 
तुममें संभावनाओं का विस्तृत,विशाल समंदर है 
तुम चाह लो तो सब संभव है 
कहो न सबसे 
"मैं 2015 
सबके सपने पूरे करूँगा 
आतंक के साये से मुक्त करूँगा 
इतनी खुशियाँ दूँगा 
कि तुमसब निर्भय मेरे 
2016 वें वर्ष का स्वागत कर सको" 

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...