शोर से अधिक एकांत का असर होता है, शोर में एकांत नहीं सुनाई देता -पर एकांत मे काल,शोर,रिश्ते,प्रेम, दुश्मनी,मित्रता, लोभ,क्रोध, बेईमानी,चालाकी … सबके अस्तित्व मुखर हो सत्य कहते हैं ! शोर में मन जिन तत्वों को अस्वीकार करता है - एकांत में स्वीकार करना ही होता है
24 दिसंबर, 2021
एक स्त्री
17 नवंबर, 2021
भगवान थे !
12 नवंबर, 2021
आओ, मिलकर बढ़ें ...
06 अक्टूबर, 2021
हम आज भी वहीं खड़े हैं
23 सितंबर, 2021
उसी की अदृश्य शक्ति
19 सितंबर, 2021
स्त्री लिपि
14 सितंबर, 2021
नज़रिए का मोड़
13 सितंबर, 2021
जर्जर परंपरा तोड़ दो
03 सितंबर, 2021
बरसाने की राधिका
साठ की कुछ सीढ़ियां चढ़ तो गई है वह स्त्री,
30 अगस्त, 2021
मैंने देवकी और यशोदा को ही जिया है
23 अगस्त, 2021
रिश्तों का हवाला नहीं होता
19 मई, 2021
सुना तुमने ?
28 अप्रैल, 2021
हमारा देश जहाँ पत्थर भी पूजे गए !
हमारा देश
जहाँ पत्थर भी पूजे गए !
जाने किस पत्थर में अहिल्या हो
कहीं तो जेहन में होगा
जो हमीं ने पत्थरों में प्राणप्रतिष्ठा की
फूल अच्छत चढ़ाए
और सुरक्षित हो गए ।
बड़ों के चरण हम झुककर
श्रद्धा से छूते थे
कि उनका आशीर्वचन
रोम रोम से निकले
और ऐसा हुआ भी
और हम सुरक्षित हो गए ।
स्त्री के लिए हमने एक आँगन बनाया
जहाँ वह खुलकर सांस ले सके
अपने बाल खोल
धूप में सुखाए
आकाश से अपना सरोकार रखे
चाँद को रात भर देखे
स्त्री खुश थी
संतुष्ट थी
बाधाओं में भी उसके आगे एक हल था
जिसे संजोकर
हम सुरक्षित हो गए ।
फिर एक दिन हमने अपनी आज़ादी का प्रयोग किया
बोलने की स्वतंत्रता को
स्वच्छंदता में तब्दील किया ...
हमने पत्थर को उखाड़ फेंका
अपशब्द बोले
और उदण्डता से कहा,
"अब देखें यह क्या करता है !"
बड़ों के आगे झुकने में हमारी हेठी होने लगी
चरण स्पर्श की बजाय
हम हवा में घुटने तक हाथ बढ़ाने लगे
प्रणाम करने का ढोंग करने लगे
बड़ों ने देखा,
महसूस किया
उनके आशीर्वचनों में उनकी क्षुब्धता घर कर गई
. .. सिखाने पर हमने भृकुटी चढ़ाई
उपेक्षित अंदाज में आगे बढ़ गए
घने पेड़ की तरह वे भी धराशायी हुए
हम फिर भी नहीं सचेत हुए !
आँगन को हमने लगभग जड़ से मिटा दिया
जिस जगह पुरुष द्वारपाल की तरह डटे थे
वहाँ स्त्रियाँ खड़ी हो गईं
उनकी सुरक्षा में खींची गई
हर लकीर मिटा दी गई
हम भूल गए कि कराटे सीखकर भी
एक स्त्री
वहशियों की शारीरिक संरचना से नहीं जूझ सकती !!!
दहेज हत्या,कन्या भ्रूण हत्या,...
हमने स्त्रियों का शमशान बना दिया
और असुरों की तरह अट्टहास करने लगे
माँ के नवरूप स्तब्ध हुए
जब उनके आगे कन्या पूजन के नाम पर
कन्याओं की मासूमियत दम तोड़ गई
कंदराओं में सुरक्षा कवच बनी माँ
प्रस्थान कर गईं !
गंगा,यमुना,सरस्वती ... कोई नहीं रुकी !
उसका घर मेरे घर से बड़ा क्यों?
उसकी गाड़ी मेरी गाड़ी से कीमती क्यों?
और बनने लगा करोड़ों का आशियाना
आने लगी करोड़ों की गाड़ियां
ज़रूरतों को हमने
इतना विस्तार दे दिया
जहाँ तक हमारी बांहों की
पहुँच नहीं बनी
पर हमने
उसे समेटने की कोशिश नहीं की
उस नशे ने हमें आत्मघाती बना दिया
फिर हम ताबड़तोड़
आत्महत्या करने लगे ।
अति सर्वत्र वर्जयेत"
इसीके आगे आज हम असहाय,
निरुपाय ईश्वर को पुकार रहे ।
पुकारो,
वह आएगा
लेकिन मन के अंदर झांक के पुकारो
लालसाओं से बाहर आकर पुकारो
पुकारो,पुकारो
ईश्वर ने सज़ा दी है
कठोर नहीं हुआ है"
इस विश्वास के साथ अपने संस्कारों को जगाओ
फिर देखो - वह प्रकाश पुंज क्या करता है ।
08 मार्च, 2021
महिला दिवस
03 मार्च, 2021
चाहा तो ऐसा ही था !
01 मार्च, 2021
अटकन चटकन
विरासत में पिता से मिली कलम, वंदना अवस्थी ने उसे सम्मान से संजोया ही नहीं, ज़िन्दगी के कई सकरी गलियों में घुमाया, कहीं रुदन भरा,कहीं हास्य,कहीं घुटन,कहीं विरोध और अपनी खास दिनचर्या में इसकी खासियत को बड़े जतन से शामिल किया । "बातों वाली गली" से गुजरकर, आज अटकन चटकन की गलियां हैं, जिसमें सिर्फ सुमित्रा,कुंती ही नहीं, किशोर,छोटू,रमा,जानकी,छाया, ... जैसे विशेष पात्र भी हैं, और लेखिका ने किसी को अपनी कलम से अछूता नहीं रखा है ।
26 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
24 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
19 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन
पहली बार जब यह नाम "अटकन चटकन" मेरी आंखों से गुजरा, लगा कोई नाज़ुक सी लड़की अपने दोस्तों के साथ चकवा चकइया खेल रही होगी ... सोचा,बचपन की खास सन्दूक सी होगी कहानी । शब्दों को, गज़लों को,किसी वृतांत को ज़िन्दगी देनेवाली वन्दना अवस्थी दूबे ने कोई जादू ही किया होगा, इसके लिए निश्चिंत थी । फिर भी आनन-फानन मंगवाने का विचार नहीं आया ।
17 फ़रवरी, 2021
अटकन चटकन और लेखिका वंदना अवस्थी
कहानी या कविता या और किसी विधा में लिखित दस्तावेज़, हैं क्या ? सब सामान हैं, पड़ाव हैं, हमसफ़र हैं - कलम की यात्रा में और इस यात्रा में राहगीरों की कमी नहीं है, हज़ारों आए, आते हैं और अपने शब्दों में अपनी नजर छोड़ जाते हैं... जहां से पाठक उसे उठाते हैं, उसमें झांकते हैं...फिर उनका मन हर राहगीर के साथ सहयात्री बन चलने लगता है, उसकी नजर और नज़रिये को पूरी शिद्दत से पढ़ने और समझने लगता है। इसी समझ की चाक पर राहगीर यानी रचनाकार की पहचान गढ़ी जाती है, उसकी छवि बनने लगती है, उसके ख्यालों की बारीकियां बिंब से प्रतिबिंब बनती हैं और उसकी कलम की बेल परवान चढ़कर आबोहवा को जीवन का दान देती है।
अटकन-चटकन की कथाकार वंदना अवस्थी की जीवनदायिनी कलम के सौजन्य से चटकी रचना है अटकन-चटकन, जिसको मैं एकबारगी नहीं पढ़ सकी क्योंकि मुमकिन नहीं था। इसके हर पात्र के सम्मोहन से बंध जाती थी मैं और उस मोहपाश को काटकर आगे बढ़ना मुश्किल होता था क्योंकि हरेक मुझे अलग - अलग सोच की गहरी नदी में गोते लगाने के लिए छोड़ देता था।
कथाकार कुछ नहीं होता जब तक कथा की गलियों से पढ़ने वाले नहीं गुजरते, पर गुजरने के बाद कथा दूसरे सोपान पर जाती है और प्रथम सोपान पर कथाकार का राज्य बनता है। अपनी साकेत नगरी की बड़ी कुशल और गंभीर महिषी हैं वंदना अवस्थी जी जिनकी कलम ने कथा के हर दृश्य को यों जीवंत कर दिया है कि घटना और घटनास्थल भी सांस लेते महसूस होते हैं। जीवन के मंच पर जहां हर पल कलाकार आते हैं और अगले पल ही बदल जाते हैं, दिल दुआ मांगता है कि यहीं कहीं, आस पास, किसी ऐसे कलमजीवी से मुलाकात हो जाए जो ज़िन्दगी के हाथ आए उस पल की बेहतरीन सौगात बन जाए ...
बेशक वंदना अवस्थी से मिलना कुछ ऐसा ही एहसास है।
एहसास
मैंने महसूस किया है कि तुम देख रहे हो मुझे अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...
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मन को बहलाने और भरमाने के लिए मैंने कुछ ताखों पर तुम्हारे होने की बुनियाद रख दी । खुद में खुद से बातें करते हुए मैंने उस होने में...
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भगवान ने कहा, मुझको कहाँ ढूंढे - मैं तो तेरे पास हूँ । बन गया एक पूजा घर, मंदिर तो होते ही हैं जगह जगह । अपनी इच्छा के लिए लोगों न...