29 जुलाई, 2024

शिव

 हे शिव,

तुम जन्म से मेरे साथ थे

शायद तभी...

नहीं, नहीं 

निस्संदेह तभी

मुझे यह विश्वास रहा 

कि तुम हर जगह, 

हर घड़ी मेरे आस-पास उपस्थित हो !


उपस्थिति का अर्थ यह बिल्कुल नहीं

कि मेरे हिस्से हमेशा कथित जीत रही

बल्कि मुंह के बल गिरी 

पर एक सबक के साथ

मेरी हार भी

मेरी अगली जीत का 

मज़बूत आधार बनी।


तुम्हारी पूजा करते हुए

लोगों द्वारा निर्धारित 

तुम्हें प्रसन्न करनेवाली सामग्रियां

मेरे पास नहीं थीं !

बेलपत्र मिला

तो धतूरा नहीं 

कई बार सफ़ेद क्या,

कोई फूल नहीं मिला

बिना किसी तय विधि विधान के

मैंने पूजा की - सिर्फ निष्ठा से ।


मेरी आंखें शंखनाद बनीं

रक्त वाहिकाओं में दौड़ता 

ॐ का अनवरत उच्चार

अहर्निश जलता दीप बना 

और बेलपत्र,अक्षत,

भांग, धतूरा,नैवेद्य में काया ढल गई...

अंतर्मन अभिषेक का गंगाजल हुआ

और निर्विघ्न संपन्न होती रही 

मेरी रीतिहीन पूजा !


हे शिव,

जब तुम्हें शिकायत नहीं हुई

तो किसी और की आलोचना का क्या अर्थ है !

 मेरे रोम-रोम के वाद्यवृंद से 

सतत नि:सृत होता 

ऊं नमः शिवाय

ऊं नमः शिवाय

ऊं नमः शिवाय

कहता है - 

"मैं हूँ शिव और

तू है शिवप्रिया !"


रश्मि प्रभा

5 टिप्‍पणियां:

  1. आहा... हृदयग्राही, अध्यात्मिक भावों की सुगंध से रोम रोम पुलकित हुआ।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ३० जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. यही तो है सच्ची पूजा !
    लाजवाब सृजन
    🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. एक नितांत व्यक्तिगत अनुभव सदाशिव की उपासना का! आपकी लेखनी में जादू है रश्मि जी! इस जादू से शब्द नगरी से मुग्ध हूँ! 🙏

    जवाब देंहटाएं

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