वह जो वक़्त था
उसकी बात ही कुछ और थी
भरी दुपहरी में
चिलचिलाती धूप में
डाकिये की खाकी वर्दी
आंखों को ठंडक पहुँचाती थी
मुढ़ीवाले की पुकार
गोइठावाली का आना
पानीवाला आइसक्रीम
कुछ अलग सा था
उन दिनों का स्वाद !
लिफाफा
अंतर्देशीय
पोस्टकार्ड देखकर
चिट्ठी लिखने का मन हो आता था
बैरंग चिट्ठियों का भी एक अपना मज़ा था !
शेरो शायरी समझ आए न आए
लिखते ज़रूर थे
...
एक शायरी तो जबरदस्त थी
सबकी ज़ुबान पर
नहीं नहीं कलम में थी
"लिखता हूँ खत खून से
स्याही न समझना
मरता/मरती हूँ तेरी याद में
ज़िन्दा न समझना'
....
पर्व,त्योहार,मौसम,प्यार
खत में होते थे
नियम से होली का अबीर जाता था
दूर रहनेवालों को रंग दिया जाता था
गुलाब के फूल भेजकर
प्यार का इज़हार होता था
गीतों की किताब से ,
कविताओं से
उपन्यास से
पंक्तियाँ चुराकर
अपना बनाकर
भेजा जाता था
क्या कहूँ
वो जो वक़्त था
बस कम्माल का था !
इंतज़ार में एक स्नेह था
किसी के आने की खुशियाँ बेशुमार थीं
उस वक़्त पड़ोसी का रिश्तेदार भी
अपना हुआ करता था
नेग, दस्तूर
सब आत्मीयता से निभाए जाते थे
हर घर के खिड़की दरवाज़े खुले मिलते थे
कोई किसी के लिए अजनबी नहीं था
वह जो वक़्त था
बहुत अपना था ... !
सच है, न अब डाकिये के लिए घंटों इंतजार होता है ..न भरी दोपहरी में कोई मूड़ी वाला हांक लगाता है..सब कुछ अपने हाथों में आ गया है..हर वस्तु एप से मंगाई जा सकती है..फिर भी हर दिल में एक तलाश है...
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंउफ़ ! कचोटती यादें !!
जवाब देंहटाएंवाह दी। पुराने दिन याद आ गए
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