रेखाएँ खींचते हुए
एक नहीं
हर बार सोचा है
फिर तो मिट ही जाना है ...!
मन के आकाश में
उम्मीदों का कंदील लगाते हुए
एक नहीं
हर बार सोचा है
फिर तो बुझ ही जाना है ...!
जब जब घुप्प अंधेरा हुआ है
दूर दूर तक कुछ नज़र नहीं आया है
हर बार
हर बार सोचा है
सुबह को कौन रोकेगा !
निराशा के बादल गरजते हैं
एक नहीं
कई बार
लेकिन हर बार एक छोटी सी आशा
थाम लेती है उँगली
और ...
फिर डर नहीं लगता !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-03-2017) को "5 मार्च-मेरे पौत्र का जन्मदिवस" (चर्चा अंक-2901) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जय मां हाटेशवरी...
जवाब देंहटाएंअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 06/03/2018 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
ये आशा और उम्मीद की कहानी ही जिंदगी है ...
जवाब देंहटाएंजो इसका दामन पकडे रहता अहि वो कहाँ डरता है ... जीता है समय को भरपूर ...
वाह!!बहुत सुंंदर ....।
जवाब देंहटाएंइसलिए क्योंकि आशा की मिट्टी से बना है आत्मा का कलेवर..
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआशा सभी डर को ख़त्म कर देती है , बढ़िया कविता
जवाब देंहटाएं