शोर से अधिक एकांत का असर होता है, शोर में एकांत नहीं सुनाई देता -पर एकांत मे काल,शोर,रिश्ते,प्रेम, दुश्मनी,मित्रता, लोभ,क्रोध, बेईमानी,चालाकी … सबके अस्तित्व मुखर हो सत्य कहते हैं ! शोर में मन जिन तत्वों को अस्वीकार करता है - एकांत में स्वीकार करना ही होता है
04 सितंबर, 2020
#कुछचेहरे
02 सितंबर, 2020
#कुछचेहरे
27 अगस्त, 2020
राधा
11 अगस्त, 2020
क्या खोया,क्या पाया !
(लिखती तो मैं ही गई हूँ, पर लिखवाया सम्भवतः श्री कृष्ण ने है )
भूख लगी थी,
मगर रोऊं ...
उससे पहले बाबा ने टोकरी उठा ली !
घनघोर अंधेरा,
मूसलाधार बारिश,
तूफान,
और उफनती यमुना ...
मैं शिशु से नारायण बन गया
घूंट घूंट पीता गया बारिश की बूंदों को,
और कृष्णावतार का दूसरा चमत्कार हुआ
अपनी तरंगों से बादलों को छूती यमुना
सहसा शांत हो गईं
मुझे देखा,
श्यामा हुई,
गोकुल को जाने की राह बन गई
मैं जा लगा
मइया यशोदा के उर से,
मेरी भूख क्या मिटी
मैं गोपाल, कन्हैया, कान्हा ...
जाने कितने नामों से सज गया
उत्सव का नाद मेरे कानों में गूंजा
झूल रहे थे वंदनवार,
नंद बाबा के द्वार
मां की गोद क्या मिली
मुझे मेरा खोया वह ब्रह्मांड मिल गया
जिसे छोड़ आया था मैं
या यों कहूं
जो मुझसे छूट गया था
मथुरा के कारागृह में ...
गोकुल में मिला तभी,
हां, हां तभी
मैं सुरक्षित रहा
पूतना के आगे
कर सका कालिया मर्दन
उठा सका गोवर्धन ......
तो ईश्वर कौन था ?
मैं ?
या सात नवजात बच्चों की हत्या देखकर भी
मुझे जन्म देनेवाली मां ?
संतान को जीवित रखने का साहस जुटाकर
मुझे गोकुल ले जानेवाले पिता वासुदेव ?
पुत्री का दान देकर मुझे स्वीकार करनेवाले
नंद बाबा ?
या अपने पयपान से
मेरी बुभुक्षा को तृप्त कर
मुझे संजीवित करनेवाली
मां यशोदा ?
यह कौन तय करेगा
क्योंकि मैं स्वयं अनभिज्ञ हूँ ...
इस गहन ज्ञानागार में मैंने जाना ...
तुम क्या लेकर आए जिसे खो दोगे ?
तुम्हारा जब कुछ था ही नहीं
तो किसके न होने के दुख से रोते हो ?
मिट्टी से भरे मेरे मुख में
मां ने ब्रह्मांड देखा था
या कर्तव्यों का ऋण चुकाते हुए,
तिल तिलकर मेरे मरने का सत्य ...
किसी ग्रंथकार या लेखाकार को नहीं मालूम
यह सारा कुछ तो
मेरे और मेरी जीवनदायिनी के मध्य घटित
हर छोटे - बड़े संदर्भों की कथा है
जिसे वह जानती है
या फिर मुझे पता है.....
मेरे मथुरा प्रस्थान पर
विस्मृति का स्वांग ओढ़ना
उसकी वैसी ही विवशता थी
जैसे गोकुल का चोर,
ब्रज का किशोर
और फिर,
द्वारकाधीश बनना मेरी विवशता रही ...
मैं !
जिसे सबने अवतार माना,
अबतक नहीं जान पाया
कि मैंने क्या खोया, क्या पाया !
पर एक सत्य है
जो मुझे प्रिय है ...
गोकुल, यमुना, वृंदावन की तरह
मां की फटकार और
मुंह से लगे चुगलखोर माखन की तरह
पीताम्बर, मोरपंख और गोधन की तरह
बरसाने, राधा, बंसी और मधुबन की तरह
जिसके दर्शन
हर बरस होते हैं मुझे
भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र में पड़ी
अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि को
चहुंओर बिखरे
अपने जन्मोत्सव के उल्लास में,
ममता से भरी खीर में,
प्रेम की दहीहांडी में,
गलियों के बीच मचे हुड़दंग में...
उस रात के हर प्रहर में
मैं याद रखकर भी भूल जाता हूं
कि सदियों पूर्व क्या हुआ था
इस रात को ...
और सुनता हूं
मुग्ध होकर,
तुम्हारे घर में गूंजते
अपने लिए गाए जा रहे
क्षीरसागर में डूबे
सोहर के मीठे, सरल शब्दों को
और अपने जन्म की खुशी को जीता हूं।
और अपने जन्म की खुशी को जी भर के पीता हूं,
जी भर के जीता हूं
...कि यह रात!फिर आएगी
मगरपूरे एक बरस के बाद।
26 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 11 (अंतिम)
ताना-बाना
कितना कुछ हम मुट्ठी में भरकर चलते हैं, कितना कुछ रेत की तरह फिसल जाता है । मुड़कर बहुत से कणों को फिर से सहेजने का दिल करता है, जो अपने थे, जीने की वजह थे, जिनसे बचपन और युवा मन के तार जुड़े थे ।
दिन,महीने,सालों का क्या है, बीत ही जाते हैं, लेकिन कोई कोई लम्हा रह जाता है, कोई चाह ठिठक जाती है ।
धागों से बुनी
....
बाँध देती हूँ मैं भी,
राखी अब !
अपनी कलाई बढ़ाओ तो
भैया"
जब तक कोई
आवाज़ देता है !'
परंतु कहाँ बदलती है फ़ितरत!!!"
मेरे बोलों की तपिश से
पिघल जाएगी सालों की
अनबोले शब्दों की बर्फीली चट्टान
पर .....
कभी भी पीछा छोड़ते नहीं,
रक्तबीज जैसे उपजे
ये कहे-अनकहे शब्द ...।"
खींच-तान कर जबरदस्ती
कोशिश कर रही थी बुनने की
ताना-बाना,"
जैसे-
भीतर का घट
कुछ रीत गया है
कुछ छूट गया है !"
बहुत पास गुनगुनाती है
पर तुम ...
कहीं नज़र नहीं आते
या शायद
हर कहीं नज़र आते हो ...!"
तभी तो,
काली चादर ओढ़
सो जाती है
तब-
जुगनुओं को
हाथों में लेकर,
खुद को साथ लिए
निकलती हूँ हर रोज़..."
इसी इच्छा के आगे फंदे डाले जाते हैं, प्रतीक्षित आँखों से बुना जाता है ताना-बाना, कुछ अपने लिए, कुछ औरों के मौन के लिए ...जो कहता है जीवन की हर क्यारियों से,
अबके जब आना न
तो ले आना हाथों में
थोड़ा सा बचपन
. . .
बो देंगे मिलकर
...
छू लेंगे भीगे आकाश को"
अल्प विराम है यह
अगली यात्रा के लिए,
कुछ तुम बुनना
कुछ हम बुनेंगे
एक-दूसरे का दर्द बांटकर
मुस्कान का ताना-बाना
रंगों से भरकर फिर लाएंगे .... आमीन ।
25 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10
ताना-बाना
न सत्य
न झूठ
ना ही कल्पनाओं का संसार ...
पर समाप्ति की एक मुहर लगानी होती है, तभी तो एक नई सुबह का आगाज़ होता है, कुछ नया सोचा और लिखा जाता है ...
अनुभवों का एक और बाना ।
खुद का हाथ पकड़ पुचकारा
सराहा,समझाया..."
और तभी खुद में सिमटकर, खुद को जीते हुए कहती है मन की स्वामिनी
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच
खेलने लग जाती हूँ कैंडी क्रश
...
बचपन मे सीखे कत्थक के स्टेप्स
आदी की चॉकलेट कुतर लेती हूँ"
...
चल रही हूँ बस अपने हिसाब से ।
जीवन का पुलोवर बनाते हुए कवयित्री ने शोख़ी से कहा,
कई बार से देख रही
ये हर करवाचौथ जो तुम
कहीं बाहर जाते हो ... चक्कर क्या है
कहीं और कोई चाँद तो नहीं ?"
24 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9
महाभारत की कथा जैसी होती है
समय का दृष्टिकोण
हर पात्र
हर स्थिति-परिस्थिति की व्याख्या
अपनी मनःस्थिति की आंच पर
अलग अलग ढंग से करता है ...
....
वही जो होना है"
अब इसे जीने का सलीका कह लो, या अपनी आत्मा से मौन साक्षात्कार ।
"अंजुरी में संजोकर तुमसे
ढेरों प्रश्न पूछती हूँ"
निःशब्द ही देखना चाहती हूँ !"
क्योंकि तुम्हारी ही परछाई थी मैं अम्मा ...
नहीं लड़ पाती मैं
आज भी
ख़ुद अपनी परछाई से
समेट लेती हूँ ख़ुद को
बस एक संभ्रांत चुप्पी में"
23 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 8
वैसे,
"ये धूप भी पूरी
शैतान की नानी है !"
पर्स से लेकर लिपस्टिक लगाती
गुड़िया को दुलराती ...
कितना उतावलापन होता
आंखों में"
धूप सी बेटियाँ पूरे आँगन में इक्कट दुक्कट खेलती रहती हैं ।
"हमें मिलना ही था
मेरे जुलाहे ! ... तभी तो,
मेरे होम का धुंआ
तुम्हारी तान में
लीन हो जाता है"
कई पूनी कातनी बाकी हैं अभी"
21 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 7
20 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 6
हौसले नहीं
वादे टूट सकते हैं
हम तुम नहीं ....
कोई ना थी मंजिल
न था कारवां
अजनबी सा लगता रहा
सारा जहाँ
कारवां खो सकता है
मंजिलें नहीं
राहें रुक सकती हैं
हम तुम नहीं ...
रात भर दर्द रिसता रहा
मोम की तरह पिघलता रहा
तुम जो आए जीने की चाह जग उठी
नाम गुम हो सकता है
आवाजें नहीं
रिश्ते गुम हो सकते हैं
हम तुम नहीं ...! ...
निःसंदेह, किसी एक दिन का परिणाम नहीं यह ताना-बाना । बचपन,यौवन,कार्य क्षेत्र, सामाजिक परिवेश, रिश्तों के अलग अलग दस्तावेज,क्षणिक विश्वास, स्थापित विश्वास, और आध्यात्मिक अनुभव है यह लेखन ।
कई बार ज़िन्दगी घाटे का ब्यौरा देती है और कई बार सूद सहित मुनाफ़ा -
उतनी ही अपनी थी,
ब्याज में एक बेटा..."
हौले से छूकर गुजर गया
...
सौगातें छोड़ गया"
19 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 5
धप्पा मारते हुए,
किसी धप्पा पर चौंक कर मुड़ते हुए,
कब आंखों में सपने उतरे,
कब उनका अर्थ व्यापक हुआ -
यह तब जाना,
जब एक दिन आंसुओं की बाढ़ में,
शब्दों की पतवार पर मैंने पकड़ बनाई
और कागज़ की नाव लेकर बढ़ने लगी
---...... यह ताना-बाना और कुछ नहीं, कवयित्री उषा किरण के मन की वही अग्नि है, जिसके ताप और पानी के छींटे से मैं गुजरी हूँ ।
एक आराम का
.... एक चैन का !"
कोई भी रिश्ता सहज नहीं होता, सहज बनाना होता है या दिखाना होता है ।
जो यूँ ही अंकुरित हो उठे..."
....सम्पूर्ण होकर भी
घट रीता !"
परछाइयाँ,
बांधती हूँ गंध
पारिजात की !"
18 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 4
ज़िन्दगी को आकार में ढालते, तराशते हुए, हम जाने किस प्रयोजन के चक्रव्यूह में उलझ जाते हैं, निकलते हुए वह विराट कई सत्य प्रस्तुत करता है और सिरहाने रखी एक डायरी,एक कलम अनकही स्थिति की साक्षी बन जाती है और वर्षों बाद खुद पर जिल्द चढ़ा ... लिख देती है ताना-बाना ।
"वो जो तू है
तेरा नूर है
तेरी पनाहों में
मेरा वजूद है"
एहसासों के फंदों के मध्य एकलव्य भी रहा, एक अंगूठा देता हुआ,एक अपनी और द्रोण की जिजीविषा को अर्थ देता हुआ ...
और कोई,
अंगूठे को काटता हुआ ।
प्रश्नों के महासागर में डूबता-उतराता हृदय चीखता है,
"कहो पांचाली !
अश्वत्थामा को
क्यों क्षमा किया तुमने?"
"(नदी)
क्यूँ बहती हो ?
कहाँ से आती हो,
कहाँ जाती हो?"
मन की गति मन ही जाने ...
"बार-बार
हर बार
समेटा
सहेजा
संभाला
और ...
छन्न से गिर के
टूट गया !"
क्रमशः
17 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 3
तना-बाना
उषा किरण
शिवना प्रकाशन
दो आंखों की सलाइयों पर एक एक दिन के फंदे डाल मन कितना कुछ बुनता है,उधेड़ता है ...गिरे फंदों को सलीके से उठाने की कोशिश में जाने कितनी रातें आंखों में गुजारता है ... दीवारों से बातें करता है, खामोश रातों को कुरेदता है, 'कुछ कहो न'
"एक बार तो मिलना होगा तुम्हें
और देने होंगे कई जवाब
...क्यों बर्दाश्त नहीं होता तुमसे
छोटा सा भी टुकड़ा धूप का-
हमारे हिस्से का ?"
सफ़र छोटा हो या बड़ा, कुछ अपना बहुत अज़ीज़ छूट जाता है, या खो जाता है और बेचारा मन - अपनी ही प्रतिध्वनियों में कुछ तलाश करता है,
पर चीजें हों या एहसास - वक़्त पर कहाँ मिलती है !
"यूँ ही
तुम मुझसे बात करते हो
यूँ ही
मैं तुमसे बात करती हूँ..."
गहराई न हो तो कोई भी बुनावट कोई शक्ल नहीं ले पाती ।
लहरों का क्या है,
"लड़ती है तट से
सागर मौन ही रहता है"
यह अहम भी बड़ी अजीब चीज है, है न ?!
*****
क्रमशः
16 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से - 2
मैंने पढ़ा, सिर्फ एक किताब ताना-बाना नहीं, बल्कि एक मन को । यात्रा सिर्फ शब्द भावों के साथ नहीं होती, उस व्यक्ति विशेष के साथ भी होती है, जिसे आपने देखा हो या नहीं देखा हो । अगर शब्दों को भावों को जीना होता तो शायद मैं नहीं लिख पाती कुछ, मैंने उन पदचिन्हों को टटोला है, जिस पर पग धरने से पूर्व आदमी सिर्फ जीता ही नहीं, अनेकों बार मरता है ...
"थका-मांदा सूरज
दिन ढले
टुकड़े टुकड़े हो
लहरों में डूब गया
जब सब्र को पीते
सागर के होंठ
और भी नीले हो गए ...!"
ऐसा तभी होता है जब सौंदर्य में भी पीड़ा की झलक मिल जाए और यह झलक उसे ही मिलती है, जिसकी खिलखिलाहट में सिसकियों की किरचनें होती हैं ।
यूँ ही कोई बहादुर नहीं होता, बहादुरी का सबब उन छालों में देखो,जो मीलों तपती धरती को चीरकर चलता ही जाता है ... उस अद्भुत क्षितिज की तलाश में, जहाँ ख्वाबों का पौधा लगाया जा सके, जिसमें संभावनाओं के अनगिनत फलों के सपने होते हैं ।
कलम की अथक यात्रा किसी छांह को देखकर रुकती नहीं, विश्राम नहीं तलाशती - विश्वास है,
"जो मेरा है,
वो कहाँ जाएगा?"
और दो मुट्ठी आकाश को सीने से भींच लेती है, बहादुर लड़की जो ठहरी
"मनचाहा विस्तार किया
जब चाहा
पिटारी में रख लिया
तहा कर
एक टुकड़ा आसमान..."
क्रमशः
15 जुलाई, 2020
ताना - बाना - मेरी नज़र से
04 जुलाई, 2020
जवाब तुम्हें खुद मिल जाएंगे
जिस दिन तुम्हारे हिस्से वक़्त ही वक़्त होगा,
तुम जानोगे अकेलापन क्या होता है !
इस अकेलेपन के जिम्मेदार
जाने अनजाने हम खुद ही होते हैं ...
कितने सारे कॉल,
कितनी सारी पुकार को हम नहीं सुनते
अपने अपने स्पेस के लिए
बढ़ते जाते हैं उन लम्हों के साथ
जिनका होना, नहीं होना
कोई मायने नहीं रखता ...
फिर भी,
एक मद में
हम उसे अर्थवान बना देते हैं।
कोई भी सीख गले के नीचे नहीं उतरती,
हम झल्लाने लगते हैं,
कुतर्कों का अंबार लगा देते हैं
कटघरे में खड़ा व्यक्ति
पश्नों के आगे अनुत्तरित खड़ा
जाने कितनी मोहक गलियों में भटकता है,
मस्तिष्क बोलता है -
प्रश्नों की धुंध में इसे भूल गए !!!
यह भी तो हमारा था,
जहाँ बेफिक्री थी,
विश्वास था,
और था हर हाल में
साथ साथ चलने का अनकहा वादा ...
हाँ, जिस दिन वक़्त हर कोने में
उबासियाँ लेता रहेगा
प्रश्नों के आगे
अपने खोए हुए लम्हात की बारिश
तुम्हें सर से पाँव तक भिगो जाएगी
महसूस करोगे तुम मेरा स्पर्श
अपने माथे पर
सुनो,
उस दिन
खुलकर रो लेना
मेरी यादों के
एक एक लम्हे के कांधे लगकर ...
जवाब तुम्हें खुद ब खुद मिल जाएंगे ।
01 जुलाई, 2020
असंभव कुछ नहीं होता
मैं माँ,
समय की तपती रेत ने
मुझमें पिता के अग्निकण डाले
मातृत्व की कोमलता के आगे
मैं हुई नारियल
बच्चे की कटी उंगलियों को सहलाया
भयभीत चेहरे को
सीने की ताप से सहलाया
और लक्ष्य की ओर बढ़ने को कहा
(बिल्कुल अपने पिता की तरह)
क्योंकि दुनिया चर्चा करती है
सूरज के उगने और चढ़ने की
साथ ही, उसकी कोशिश होती है
हर तरफ से, उसी के विरूद्ध
चक्रव्यूह को गढ़ने की...
सनातन परंपरा है !
दरअसल दुनिया एक ज्वालामुखी है
जिसके अनुग्रह कोश से
सपनों की चिंगारियां मिलती हैं
जिनसे अपने उद्देश्यों की अग्नि सुलगती है
जिसमें निहित है,
एक एक करके
एक एक व्यूह को तोड़ना,
विपरीत जा रही
गंतव्य की दिशा का रुख
सायास अपनी ओर मोड़ना,
निरंतर स्वगत स्वस्तिवाचन से
स्वयं को जोड़ना
कि भले आज ये संभव न हो मगर,
असंभव कुछ नहीं होता।
07 जून, 2020
जीत किसकी होगी ?
एक तरफ हैं हालातों के घुड़सवार,
जिरहबख्तर पहने और
हाथों में है लपलपाती तलवार
तो दूसरी तरफ,
मजबूरियों की पैदल लंबी कतार,
इन्द्र छद्म वेश में फिर आकर
ले गए छल से
कवच कुंडल का देवदत्त उपहार
अस्त्र_शस्त्र के नाम पर है
सिर्फ हौसलों की छोटी_सी कटार
इधर बख्तियार, उधर लाचार
सनातन है यह विचार
कि समरथ को नहीं दोष गोसाईं
आरोपी तो सदा आम जन है भाई.....
अब कहो कि अनुमान क्या कहते हैं ?
जीत किसकी होगी ?
या होगा वही, जो इतिहास में नहीं होता
पर समय और सच को पता है
कि जीत तो हौसलों की ही होती है
उन्हीं की होगी भी,
किंतु अमरबेल है विडंबना !
समर ईसा पूर्व का हो या आज का
जीत का श्रेय समर्थ को ही जाता है !
हमारा क्या है
पढ़ेंगे, पढ़ाएंगे
जो वर्णित है इतिहास में,
वही अगली पीढ़ी को बताएंगे।
15 मई, 2020
हकीकत की शुक्रगुजार हूँ
सपने देखने में
उसके बीज बोने में
उसे सींचने में
आठवें रंग से उसे अद्भुत बनाने में
मैं सिर्फ माहिर नहीं थी
माहिर हूँ भी ...
दिल खोलकर मैंने
सबको अपने हिस्से का सपना दिया
देखने का
बोने का हौसला दिया
लेकिन उसमें अधिकतर
अनजान,घातक पंछी निकले,
सबने मेरे घर पर धावा बोल दिया,
उनको लगा,
कि बिना आर्थिक संपन्नता के
सम्भव नहीं यूँ बेमोल सपने दे देना,
हकीकत के खून से
उन सबने मेरे सपनों को
लहूलुहान कर दिया !
बरसों मैं खून के धब्बे मिटाती रही - सपनों से भीगी सोच से ।
कितने गोदाम खाली हुए,
पर मेरे सपनों के पन्नों ने
नए जिल्द से खुद को संवारा,
समझदारी की स्याही से
कहीं कहीं कुछ निशान बनाये,
जहाँ सपनों की अहमियत ना हो,
अनुमानों की फसल लहलहाए,
वहाँ से मैंने खुद को पीछे कर लिया...
वैसे कह सकते हो,
अनुमानों की भीड़ ने मुझे धकेल दिया ।
चोट लगी,
बड़ी गहरी चोट
लेकिन सपनों ने चोट की अहमियत बताई
मुट्ठी में नए बीज रखे
और उंगली पकड़कर
मेरी आँखों
मेरे मन की जमीन पर
सपने ही सपने बो दिए ।
इन सपनों की मासूमियत की बरकरारी में
मैं हकीकत की शुक्रगुजार हुई
जिसने मुझे बंजर जमीन से अलग कर दिया ...
13 मई, 2020
निर्णय ज़रूरी है
निर्णय ज़रूरी है
एक चिड़िया के लिए
एक माँ के लिए,
आंधियों का क्या कहना,
कई बार दूसरों की नज़र का सुकून भी
गले से नीचे नहीं उतरता,
पर एक एक निर्णय के पहले
उड़ान भर लेने से पहले
नन्हें चूजों के मासूम सुकून को
देखना होता है,
जिनसे सुबह होती है
बहारें आती हैं
जिनकी दृष्टि और समझ
बड़ी सूक्ष्म होती है ...
कहते हैं न कि जहाँ न पहुंचे रवि
वहाँ पहुंचे कवि"
बिल्कुल यही बात बच्चों पर भी लागू होती है
एक पिता नजरअंदाज भी कर दे
लेकिन गर्भनाल के रिश्तों को अनदेखा अनसुना करना
संभव ही नहीं ।
उनकी मानसिक,आत्मिक खुराक को समझना होता है
किताब,कॉपी के किस पन्ने से उसे बेहद लगाव है,
इसे अनदेखा करना,
उसके मन पर बेतरतीबी से खींची गई
लकीरें बन जाती हैं ।
आँधी जैसी भी हो,
अनहोनी लाख सर पटके
लेकिन एक बच्चे के लिए माँ
वह सब बन जाती है,
जिसकी कल्पना उसने भी नहीं की होती है !
ज़रूरी है उनके मन की थाह
एक माँ अगर उस गहराई से दूर रह जाये
तो मुश्किल है उसमें कागज़ की नाव भी चलाना ...
परिस्थितियों को उनके अनुकूल करते करते
माँ होम होती चली जाती है
राख हो जाती है,
अस्थियां जलमग्न हो जाती हैं
लेकिन,
नाव से उतरने के पहले
झंझावातों का
सामना करने के लिए
दोनों हाथों से गढ़े गए हाथों में
एक मजबूत पतवार थमा जाती है ।
11 मई, 2020
घर से बाहर
कहने को तो हम निकल गए थे
घर से बाहर की दुनिया में
क्योंकि,खुद को आत्मनिर्भर बनाना था
अपने आप में कुछ बनना था
उठानी थी जिम्मेदारियां ...
हर स्वाभाविक भय को
माँ की आलमारी में रख
चेहरे पर निर्भीकता पहनकर
निकल गए थे हम घर से
शहर से
दूर ,बहुत दूर
छुट्टियों में आने के लिए!
रोज रोज की दुश्वारियां
भूखे रह जाने की कवायद
अपशब्दों को घूंट घूंट पचा लेने की कशमकश से
हम लड़ते रहे
और माँ की आवाज़ सुनते
भर्राए गले पर नियंत्रण रखते हुए
कह देते थे
बाद में बात करते हैं,
कुछ काम आ गया है ..."
उस एक पल की थरथराहट में
माँ सबकुछ सुन लेती थी,
समझ लेती थी
पर मिलने पर
सर सहलाते हुए
न उसने कभी कुछ पूछा
न हमने कुछ कहा ।
इस धक्कमधुक्की की दौड़ में
एक दिन एहसास हुआ
माँ भी तो आ गई थी अपना घर छोड़कर
एक नई दुनिया में
सामर्थ्य से अधिक खटती थी
शिकायतों,उपेक्षा के अपशब्दों को
पचा लेती थी
और अपनी माँ के गले लगकर कहती थी
सब ठीक है ...
पूरी ज़िंदगी की भागदौड़ का
यही सार मिला,
घर छूट जाता है एक दिन
यादों में रहता है खड़ा
और सारी उम्र
एक घर की तलाश रहती है !
22 अप्रैल, 2020
मनवा प्रीतनदी में डूबा राधेकृष्ण ही रहता है।
प्रेम नहीं मिलता
तो प्रेम का अर्थ नहीं खो जाता,
वह अर्धनारीश्वर का रूप धर
मन को वृंदावन बना ही लेता है ।
राधा कृष्ण !
प्रेम,वियोग,संघर्ष,
सहनशीलता के मार्ग हैं,
ज़िन्दगी की कोई भी उपेक्षा
इन सपनों
इन लक्ष्यों से विमुख नहीं करती ।
अवसाद, प्रेम की चरम स्थिति है
मृत्यु वरण, अगले जन्म की
सकारात्मक चाह है ।
निरन्तर बहते आँसू
अपमान की ही कथा नहीं कहते,
सम्मान को नए सिरे से परिभाषित करते हैं ।
शुष्क हो गई आंखें बताती हैं,
क्या पाना था,
क्या खोया ...
यह चाह की वह पुनरावृति है
जो मन को मीरा बनाती है ।
कृष्ण और राधा
राधा और कृष्ण
कंस की गर्जना से नहीं घबराते,
समाज जो भी निर्णय दे,
मन राधेकृष्ण ही रहता है ।
कृष्ण और राधा,
राधा और कृष्ण
मधुवन, बंसीवट
बरसाने की होरी
रासलीला, कदंब की छांव
और यमुना का तट .....!
कंस का अत्याचार
इनको छू भी नहीं सकता है,
समाज इन्हें जो भी कहे
क्या फर्क पड़ता है !
कि धड़कनों में दिन_ रात
गूंजता है गोधन,
और मनवा प्रीतनदी में डूबा
राधेकृष्ण ही रहता है।
17 अप्रैल, 2020
चलो ढेर सारी बातें करते हैं
"अरे बहुत कुछ कहना था,
कह लिए होते,"
यह सोच एकांत में रुलाती रहे
उससे पहले चलो
ढेर सारी बातें करते हैं ।
अपनी बातों की गेंद से
शिकायती पिट्टो को मारते हैं
सच को तहे दिल से स्वीकारते हैं ।
23-24-25 की गिनती के साथ,
जाने कहाँ तक युद्ध समय बढ़े ...
भीष्म,अभिमन्यु,द्रोणाचार्य....कर्ण
कब युद्ध समाप्त होगा,
क्या शेष रहेगा,
किन अवशेषों पर अगला अध्याय लिखा जाएगा
इससे पहले,
एक अनजान ऐतिहासिक पन्ना होने से पहले
चलो, बिना लड़े-झगड़े
उन बातों को याद करें,
जिसमें हमारे रतजगे चलते थे,
पापा की घुड़की,
अम्मा का बचाना
और हमारा ठिठियाना ।
दूर से ही सही,
एक बिछावन पर
धमाचौकड़ी मचाएं ।
नानखटाई, आइसक्रीम,
रम बॉल,चॉकलेट खाएं,
अंत तक एक टुकड़ा मुंह में रखें,
चिढायें
गुदगुदी लगाएं
बालों में उंगली घुमाएं
आएं बाएं शायें बोलते जाएं ...
भूल जाएं कि हम बड़े हो गए हैं
बुजुर्ग हो गए हैं,
अपने बच्चों के बच्चों के संग
रुमाल चोर खेलें
दो चार लूडो फाड़ें
तपती लू में टिकोले तोड़ें,
रसना बनायें,
बात बात में थोड़ी बेईमानी करें
.. बच निकलें -
तो फिर से शिकायतों की पेटियां बनाएंगे
अपनी अपनी दुनिया में रम जाएंगे
कभी कभार याद करेंगे
क्योंकि तब क्षण क्षण
मृत्यु का अंदेशा नहीं होगा,
लेकिन अभी -
भूल जाएं उन गिले शिकवों को,
अभी तो बस एक दूसरे की कद्र जाने ..
13 अप्रैल, 2020
घर को लौटे लोग
एक युद्ध चल रहा है
घर में रहकर
खुद को बचाने का ।
साधना है खुद को,
याद करना है उन पलों को
जिसमें हम बिना शरमाये
धूल में खेलते थे,
मिट्टी में पानी मिलाकर
बन जाते थे कलाकार ।
बालू की ढेर पर बैठकर
घरौंदे बनाते थे ।
आटे की चिड़िया बनाकर
लकड़ी,कोयले की आंच पर सेंककर
किसी आविष्कारक की तरह
उसे अपनी थाली में रखते थे ।
हवाई चप्पल में ही स्कूल जाते थे,
जूते मोजे और स्कूल ड्रेस में
हम सबसे अलग होते थे ।
ये अलग होने का नशा इतना बढ़ा
कि हमारे आंगन सीमेंटेड हो गए,
लोगों से मिलने का अंदाज बदलने लगा
और अनाजों का गोदाम
शिकायतों से भरने लगा ...
शिकायतों के दाने गौरैया भला क्या चुगती,
वह भी गुम होने लगी,
यूँ कहें,
उड़ते भागते
वह उस जगह की तलाश में निकल गई
जहाँ अनाजों के ढेर बेख़ौफ़ पड़े रहते थे/हैं ।
विदेश जाने की होड़ लगी,
समानता,असमानता की दीवारें गिरने लगीं,
सारी पहचान गडमड हो गई
सारे तौर तरीके खत्म हो गए ।
ये क्यों,वो क्यों के तर्क
आग की लपटों की तरह झुलसाने लगे,
सबको एक दूसरे से दूर होने के बहाने मिल गए
चेहरों की कौन कहे
नाम तक भुला दिए गए ।
...वक़्त हैरान
शहर हैरान
घरों की भरमार हुई
पर कहीं कोई घर नहीं रहा ।
सड़क,ट्रेन,मॉल,समुद्री किनारे,
हवाई जहाज,होटल के कमरे,
पब,...रुतबे भरे ठिकाने हो गए ।
सरेआम अश्लीलता का वो दौर चला
कि प्रकृति क्षुब्ध हो गई ।
सुनामी,भूकम्प,जैसी प्राकृतिक आपदा से
कोई खास फर्क नहीं पड़ा
तब मानव की गलतियों ने
एक वायरस को
अनजाने ही सही
बढ़ावा दिया ।
त्राहिमाम के आगे वही घर आया,
जिसे सबने छोड़ दिया था,
घर के खाने से मुंह फेरकर
बाहर के खाने में स्वाद ढूंढने लगे थे ।
आज डर ने घर दिया है
सबको मिलजुलकर रहने का मौका दिया है
कच्ची अधसिंकी रोटी में स्वाद दिया है
हम कहाँ गलत थे,
यह सोचने का मौका दिया है ।
सफाई,अनुशासन का अर्थ बताया है
जो घर में रहकर इंतज़ार करते हैं
अकेले खाते हैं,
उनके दर्द को समझाया है ।
यह वक़्त यूँ ही नहीं टलेगा,
ज़िद को खत्म करके ही विदा लेगा ।
अब हम पर है
कि हम समझते हैं
या ज़िद को ही पकड़कर रहना चाहते हैं ।
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