कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है,
कोई परे मरण जीवन से कड़वा प्रत्यय पी लेता है ..."
मर जाना कोई पलायन नहीं,
क्षमता की बात है,
जी लेना भी आंतरिक शक्ति है,
पर जो पी लेता है कड़वा प्रत्यय,
उसकी आत्मशक्ति में होता है देवत्व,
विकल्पों का लंबा रास्ता,
किसी भी सत्य-झूठ से अलग
एक "मैं",
जिसकी जड़ें बंजर को भी उर्वरक बनाती हैं,
जो तपते रेगिस्तान के मध्य
बन जाते हैं पानी से भरा बादल का एक टुकड़ा,
जो अपनी अदृश्य पोटली में
लेकर चलते हैं,
सूरज,बादल,बसन्त,पृथ्वी,वायु
और एक शून्यात्मक विस्तार !!!
'मैं' के साथ में 'मर जाना' सत्य है
जवाब देंहटाएंपरन्तु मरता कोई नहीं है
मृत्यु नियत है यानि कि
मारा जाना सत्य होना चाहिये।
बहुत खूब ......बेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कवि प्रदीप और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंइसी शून्यात्मक विस्तार में जो छिपा होता है वह सूरज,बादल,बसन्त,पृथ्वी,वायु से आगे का कोई गहन क्षण होता है जो शिवत्व को पाने समर्थ हो सकता है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! सम्भवतः उस 'मैं' में ही छुपा है सृष्टि का रहस्य..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब 👌👌
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