17 अप्रैल, 2019

कुछ ठीक करने का बहाना



कितनी दफ़ा सोचा,
खोल दूँ घर की
सारी खिड़कियां,
सारे दरवाज़े,
आने दूँ हवा
सकारात्मक,नकारात्मक -दोनों !
कीड़े मकोड़ों से भर जाए कमरा,
मच्छड़ काटते जाएं,
सांप, बिच्छू भी विश्राम करें
किसी कोने में ।
भर जाए धूलकणों से कमरा,
सड़कों पर आवाजाही का शोर
कमरे में पनाह ले ले ...
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी में,
घर घर ही नहीं रहा,
अनुमानों के सबूत
इकट्ठा हो रहे,
टीन का बड़ा बक्सा भी नहीं
कि भर दूँ अनुमानों से,
यह काम का है,
यह बेकार है ,
सोचते हुए हम सबकुछ बारी बारी
फेंकते जा रहे हैं !
और जो है,
उसको बेडबॉक्स में रख देते हैं,
और भूल जाते हैं ।
महीने, छह महीने पर जब खोलते हैं
तो फिर बहुत कुछ बेकार
कचरा लगता है
और उसे हटा देते हैं ।
यही सिलसिला चल रहा है
जाने कब से !
अगर आज भी कुछ सहेजा हुआ है
तो कुछ चिट्ठियाँ,
कुछ नन्हे कपड़े,
यादों की थोड़ी सुगन्धित गोलियाँ
.....
खोल दूँगी खिड़की, दरवाज़े
तो झल्ला झल्लाकर
कुछ ठीक करने का बहाना तो होगा,
मोबाइल भला कोई जीने का साधन है !!!

17 टिप्‍पणियां:

  1. थोड़ा समझ में आता है
    उसको
    जिसके यहाँ सारी खिड़किया दरवाजे खुलते हैं रोज
    और दिखाई देता है नीला फैला हुआ आसमान
    मोबाइल नहीं होने और होने का मतलब भी

    फिर भी
    समझ का विस्तार और समझ की सीमा दोनो
    खिड़कियों और दरवालों के दायरे में हों
    जरूरी नहीं
    शायद।

    सुन्दर रचना।

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  2. सहेजने की ऐसी चाहत कि
    सब बिखेरने को जी चाहता है

    लाजवाब अभिव्यक्ति

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 17/04/2019 की बुलेटिन, " मिडिल क्लास बोर नहीं होता - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. खोल दो न ...पर समय को देखते हुए. थोडा इंतजाम पहले से करके कि न घुसे कीड़े मकोड़े ज्यादा और न करें नुक्सान सेहत का बस.
    सुन्दर रचना...

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. मन के वातायन को भी यूँ ही खुला रखने से विचारों की नवीन हवा का प्रवेश होता है. सुन्दर रचना.

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  7. मन का अंतर्द्वंद उभर के आया है जीवन में जैसे कुछ तो अधुरापन है। जिसे पुरा करने को व्याकुल है मन ।
    गहरी अभिव्यक्ति।

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  8. गहरी अभिव्यक्ति ..बहुत खूब ...

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  9. मन की उथल पुथल में कई बार पूरा घर बिखरा सा लगता है और समेटने की सोचकर और बिखेरना...ऐसा भी होता हैमन के गहन भाव लिए सुन्दर चिन्तनपरक भावाभिव्यक्ति...

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  10. सहेजने की निरंतर कोशिश के बाद भी कहाँ सहज पाता है घर या जीवन...कभी तो मन सोचता है कि बिखर जाए सब कुछ और खो जाए उसमें अपना अस्तित्व...लेकिन कहाँ संभव हो पाता है यह भी। लाज़वाब अभिव्यक्ति...

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  11. सच्ची ! यही तो होता है हर बार। हर बार आलमारियाँ साफ करते समय सब बिखेरा और फिर समेटा जाता है। कुछ चीजें फेंकने की हिम्मत ही नहीं हो पाती, चाहे जितनी पुरानी हों। और सच पूछिए तो कई बार सिर्फ मनबहलाव और बोरियत से बचने के लिए भी किया जाता है ये बिखेरना समेटना....

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